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Wednesday, 20 November, 2024
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विकल्प बनाम अधिकार: कैसे हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस ने अन्नामलाई और राहुल गांधी की पदयात्रा की तुलना की

पिछले कुछ हफ़्तों में हिंदुत्व-समर्थक लेखकों ने न्यूज़ और सामयिक मुद्दों को कैसे कवर किया और उन पर किस तरह की टिप्पणी की, दिप्रिंट का राउंड-अप.

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नई दिल्ली: पदयात्रा या पैदल मार्च, महात्मा गांधी के समय से ही जनता से जुड़ने और भारतीय राजनीति को प्रभावित करने का एक तरीका रहा है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के संपादकीय में, प्रफुल्ल केतकर ने दो नेताओं – तमिलनाडु के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रमुख के. अन्नामलाई और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी – की पदयात्रा की तुलना की.

4 मार्च को प्रकाशित संपादकीय में, केतकर ने तर्क दिया कि अन्नामलाई “सरकार के लिए एक विकल्प प्रदान करते हैं”, जबकि राहुल गांधी “हकदार होने का दावा करते दिखते हैं”.

राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा का दूसरा चरण 14 जनवरी को मणिपुर से शुरू हुआ और 20 मार्च को मुंबई में समाप्त होने की उम्मीद है, जबकि अन्नामलाई ने पिछले साल 28 जुलाई को माई लैंड, माई पीपल पदयात्रा शुरू की, जो 27 फरवरी को समाप्त हुई.

केतकर ने लिखा कि राहुल गांधी ने अपनी पदयात्रा की योजना बनाते समय वंशवादी भ्रष्टाचार के मुद्दे को संबोधित नहीं किया.

केतकर ने लिखा, “यात्रा की कल्पना करते समय वंशवादी भ्रष्टाचार के मुद्दे को संबोधित करने पर कभी विचार नहीं किया गया. अपनी नुक्कड़ सभाओं में वह उपदेश देते या किसी पर आरोप लगाते नजर आते हैं. इसको सपोर्ट करने के लिए संगठनात्मक मशीनरी मौजूद नहीं है, इसलिए सलाहकारों के एक समूह ने अपने एजेंडे के साथ यात्रा पर कब्ज़ा कर लिया है,”

अन्नामलाई की यात्रा के बारे में बताते हुए केतकर ने कहा कि आईपीएस अधिकारी से नेता बने अन्नामलाई साफ सुथरी छवि और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कल्याणकारी योजनाओं के ट्रैक रिकॉर्ड के साथ डीएमके सरकार को चुनौती दे रहे हैं.

केतकर ने कहा, “उनका दृष्टिकोण अधिकार या अहंकार का नहीं बल्कि लोगों के दिलों को छूने वाला और सुनने का है. उनकी पूरी पार्टी मशीनरी इसी उद्देश्य और भावना से काम करती थी; परिणामस्वरूप, इसे तमिलनाडु की राजनीति में राजनीतिक तूफान के रूप में देखा जाता है.”

उनके मुताबिक, इन यात्राओं का असर सीधे तौर पर मंशा और विषय-वस्तु पर पड़ेगा. उन्होंने लिखा, यात्रा शुरू करते समय देश के लोगों और सांस्कृतिक विरासत के लिए आवश्यक दृढ़ विश्वास और प्रतिबद्धता महत्वपूर्ण है.

“आधुनिक संचार तकनीकों को अपनाते हुए, अन्नामलाई ने इस प्राचीन ज्ञान पर भरोसा किया, लेकिन लगता है कि राहुल गांधी इससे चूक गए.”

सावरकर का ‘पुनर्जन्म’ और गांधी की कई ‘मृत्यु’

विनायक दामोदर सावरकर की 58वीं पुण्य तिथि पर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में प्रोफेसर मकरंद आर. परांजपे ने ओपन पत्रिका में लिखा कि कैसे सावरकर, जो कभी इतिहास के पन्नों में खो गए थे, ऐसा लगता है कि वह एक बार फिर से जीवित हो गए हैं.

1 मार्च को प्रकाशित “गांधी बनाम सावरकर” शीर्षक वाले कॉलम में, परांजपे ने कहा कि यह इतिहास की विडंबना है कि सावरकर ने अपने विरोधियों और आलोचकों से मीठा बदला लिया है.

उन्होंने लिखा, “एक लंबी शीतनिद्रा के बाद, वह (सावरकर) और ज्यादा महत्त्वपूर्ण होकर एक बार फिर जीवित हो उठे हैं. आज का भारत उन्हें अपने महान नायकों में से एक मानता है. इसके अलावा, हिंदुत्व, जिस विचारधारा को उन्होंने प्रवर्तित और प्रचारित किया, वह अब लगभग पूरे भारत का है, कुछ लोग तो यहां तक कहेंगे कि यह आधिकारिक, राजकीय धर्म है. समय कितना बदलता है! ऐसा नहीं है कि अब सावरकर को कोई सुनने वाला नहीं है; वह देश के अकथित आदर्श बन गए हैं,”

उन्होंने आगे कहा, “क्या रिवॉल्वर, चरखे के पंथ पर हावी हो गया? शायद.”

परांजपे के अनुसार, मृत सावरकर को यदि बहुत भव्यता के साथ नहीं तो अभूतपूर्व तीव्रता के साथ ज़रूर पुनर्जीवित किया गया है. उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए गांधी और सावरकर के अलग-अलग दृष्टिकोणों के बीच तुलना करते हुए लिखा, “गांधी की हत्या केवल एक बार की गई थी, उनसे नफरत करने वालों ने उन्हें बार-बार मारा है.”

फिर भी, परांजपे ने कहा कि हालांकि सावरकर एक बार फिर जीवित हो गए हैं, पर आधुनिक राजनीति में गांधी का स्थान और भी महत्वपूर्ण हो गया है. उन्होंने प्रशांत किशोर का उदाहरण दिया, जो बिहार में भाजपा विरोधी मोर्चे को एकजुट करने के लिए गांधी को एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं.

“आज, प्रशांत किशोर, बिहार में भाजपा विरोधी मोर्चे को सक्रिय करने की कोशिश कर रहे हैं, और शुभंकर के रूप में महात्मा गांधी को अपनाया है. क्योंकि वह जानते हैं कि भारत की जनता गांधी को न तो भूली है और न ही उनसे मुंह मोड़ा है. किशोर का विचार है कि केवल गांधी, जिन्हें महात्मा और राष्ट्रपिता के रूप में खारिज किया जा चुका है, का उपयोग ‘महात्मा’ मोदी का मुकाबला करने के लिए किया जा सकता है.’

परांजपे ने लिखा, गांधी और सावरकर दोनों ने ‘इंडिया जो कि भारत है’ के लिए मरना सीखा था. आगे उन्होंने कहा कि प्रत्येक ने बहादुरी से मरकर और अकेले मरकर इसे अपने अनूठे तरीके से प्रदर्शित किया.

“लेकिन हमें, यानि उनके उत्तराधिकारियों को, भले ही हम एक-दूसरे से कितने भी भिन्न क्यों न हों, अपने देश के लिए जीने की कला सीखनी चाहिए, न कि मरने की, या एक-दूसरे को मारने की.”

मन्दिरों से कर वसूलना

हिंदू मंदिरों से टैक्स वसूलने वाले कानून में संशोधन करने के कर्नाटक सरकार के फैसले ने अर्थव्यवस्था में मंदिरों की भूमिका पर बहस छेड़ दी है.

जैसा कि दिप्रिंट ने पहले रिपोर्ट किया था, कर्नाटक में एक विधेयक, जिसमें 1 करोड़ रुपये से अधिक आय वाले राज्य संचालित मंदिरों के राजस्व का 10 प्रतिशत और 10 लाख रुपये से 1 करोड़ रुपये के बीच राजस्व वाले मंदिरों से 5 प्रतिशत राजस्व एकत्र करने की मांग की गई थी, विधान सभा में पारित होने के बाद विधान परिषद में गिर गया.

आरएसएस से जुड़ी पत्रिका पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर ने जोर देते हुए लिखा कि मंदिर केवल राजस्व के स्रोत नहीं हैं, बल्कि समाज के लिए उनका गहरा महत्व है.

“ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने मंदिर को दुधारू गाय मान लिया है. शायद ऐसे लोगों ने ही ‘टेंपल इकोनॉमी’ शब्द को गढ़ा है। रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद ‘अल जजीरा’ से लेकर ‘द गार्जियन’ तक में ‘टेंपल इकोनॉमी’ को लेकर लिखा जा रहा है. दरअसल, ‘टेंपल इकोनॉमी’ हमारा चिंतन नहीं है. यह उससे कहीं गहरी बात है. मंदिर मन की शांति के लिए होते हैं, और धन की शांति (अर्थात प्रबंधन) के लिए भी. क्योंकि हमारी संस्कृति में लक्ष्मी को चंचला कहा गया है.

शंकर के अनुसार, हमारे देश में मंदिर लक्ष्मी को विकसाने और हाशिये के वर्गों तक पोषण और पैसा-कौड़ी पहुंचाने वाली महत्वपूर्ण आर्थिक संरचना के तौर पर रहे हैं.

उन्होंने कहा, “ऐसे मंदिरों से कोई ‘टैक्स’ वसूलने के बारे में सोच भी कैसे सकता है? हिंदू विरोधी भावनाओं और वोट इकट्ठा करने की रणनीति को छोड़कर, मंदिरों की सूक्ष्म सामाजिक-आर्थिक संरचना और उसके योगदान को समझने की जरूरत है.”

शंकर ने पूरे भारतीय इतिहास में मंदिरों के महत्वपूर्ण आर्थिक योगदान पर भी जोर दिया.

आर्थिक विकास में मंदिरों की भूमिका पर प्रकाश डालने वाले इतिहासकार बर्टन स्टीन के अध्ययन का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा, “तीर्थ के साथ-साथ आर्थिक संरचनाओं का विकास और बहुत से क्षेत्रों को बहुत मजबूत कर देना भी मंदिरों के चलते ही हुआ है.”

इसके अलावा, उन्होंने धार्मिक कार्यों से परे मंदिरों की बहुमुखी भूमिका, जैसे शिक्षा और आपदा राहत प्रयासों में उनके योगदान पर चर्चा की.

उन्होंने लिखा, “तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर और गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर क्या थे? ये सिर्फ धार्मिक केंद्र नहीं थे बल्कि अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे.

UNSC सुधारों की आवश्यकता

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) द्वारा छात्रों के लिए संचालित पत्रिका, राष्ट्रीय छात्रशक्ति के नवीनतम अंक में भारतीय विद्वान के.एन. पंडिता का एक लेख छपा है. पंडिता ने बदलती दुनिया के अनुरूप ढलने में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की विफलता पर कार्नेगी एंडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में ग्लोबल ऑर्डर एंड इंस्टीट्यूशंस प्रोग्राम के निदेशक स्टीवर्ट पैट्रिक का जिक्र किया.

पत्रिका के फरवरी संस्करण में प्रकाशित लेख में, पंडिता ने कहा कि यूएनएससी, जिसे 1945 में स्थापित किया गया था, महत्वपूर्ण वैश्विक बदलावों के बावजूद अपरिवर्तित बनी हुई है – विशेष रूप से भारत और ब्राजील जैसे विकासशील देशों के उद्भव के बावजूद.

उन्होंने लिखा, “पी5 (परमानेंट 5) देशों ने वीटो शक्ति बरकरार रखी है, जिससे प्रत्येक को सुरक्षा परिषद के उन प्रस्तावों को अकेले के दम पर रोक लगाने का अधिकार मिलता है जो उनके राष्ट्रीय हितों के अनुरूप नहीं हैं. इस स्थिति का क्या परिणाम होता है? यह ‘काउंसिल पैरालिसिस है, जो पश्चिमी लोकतंत्रों और सत्तावादी चीन व रूस के बीच गहरी भूराजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण और बढ़ गई है.”

उन्होंने आलोचना और बदलाव के कारणों के बारे में बात करते हुए यूएनएससी में सुधार की चुनौतियों पर भी चर्चा की.

उन्होंने कहा, कई बाधाएं हैं, जैसे संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन की कठिनाई, विभिन्न देशों की अलग-अलग स्थिति और यूएनएससी के नए स्थायी सदस्यों को वीटो शक्ति के विस्तार पर असहमति.

“इतनी आलोचना और सुधारों के लिए उचित कारणों के बावजूद यूएनएससी को सुधार प्रक्रिया शुरू करने से कौन रोक रहा है? हां, ऐसे कारण हैं जो निष्पक्ष विश्लेषण करने पर सामने आते हैं. जैसा कि हम जानते हैं, संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन का एक लंबा आदेश है, विभिन्न देश इस मुद्दे पर अलग-अलग रुख अपना रहे हैं.”

उन्होंने एक और रुकावट पर रोशनी डाली जो कि पांच स्थायी सदस्यों को दी गई वीटो शक्ति है.

“क्या’ और ‘कैसे’ मौजूदा वीटो प्रावधानों को यूएनएससी के नए स्थायी सदस्यों तक बढ़ाया जाना चाहिए, इस पर सदस्य देशों के बीच गहरी असहमति है?”

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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