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Monday, 4 November, 2024
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चीन भारत से 20 साल आगे, पर NEP भारत की शिक्षा गुणवत्ता सुधार में मदद कर सकता है- UN यूनिवर्सिटी रिसर्च

इस शोधपत्र को यूएन यूनिवर्सिटी के वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स एंड रिसर्च द्वारा प्रकाशित और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय सैन डिएगो तथा इलिनोइस विश्वविद्यालय, शिकागो के दो लेखकों के द्वारा लिखा गया है.

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नई दिल्ली: एक अध्ययन जो भारत और चीन, जो संयुक्त रूप से दुनिया की आबादी में लगभग एक तिहाई हिस्सा रखते है, में प्राथमिक शिक्षा की तुलना करने का प्रयास करता है, यह बताता है कि अच्छी गुणवत्ता वाली स्कूली शिक्षा की दिशा में नीतिगत कदम उठाने के मामले में हमारा पड़ोसी हमसे लगभग 20 साल आगे है.

यह अध्ययन फिनलैंड स्थित थिंक टैंक यूएन यूनिवर्सिटी के वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स एंड रिसर्च (यूएनयू-वाइडर) द्वारा पिछले महीने प्रकाशित एक वर्किंग पेपर है जिसे कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय सैन डिएगो के नवीन कुमार और इलिनोइस विश्वविद्यालय, शिकागो के विनीता वर्गीज नमक दो शोधकर्ताओं द्वारा तैयार किया गया था.

यह भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (न्यू एजुकेशन पालिसी – एनईपी) 2020 के लागू होने से दो दशक पहले चीन से सीखे जा सकने जाने वाले ‘महत्वपूर्ण सबकों’ का पता लगाने का प्रयास करता है, जिसने उसी समय अपना ध्यान क्वांटिटी (मात्रा) से हटाकर क्वालिटी (गुणवत्ता) पर स्थानांतरित कर दिया था.

इस पेपर के लेखकों का कहना है कि भारत के एनईपी 2020 से 20 साल पहले चीन द्वारा ‘नए पाठ्यक्रम सुधार’ को अपनाये जाने के कदम ने चीन को ‘गुणवत्तापूर्ण’ अनिवार्य स्कूली शिक्षा के समान रूप से विकास को प्राप्त करने के रास्ते पर ला दिया था.

हालांकि, इसमें यह भी कहा गया है कि ‘एनईपी 2020′ में कुछ ऐसे घटक हैं जो शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता, समानता और दक्षता में सुधार करने की क्षमता रखते हैं’.


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भारत का ‘देरी से महसूस करना’

अध्ययन में कहा गया है कि 1950 के दशक में, भारत और चीन शिक्षा के बारे में अपने दृष्टिकोण के मामले में लगभग समान स्तर पर थे, जिसमें उच्च शिक्षा – विशेष रूप से विज्ञान और प्रौद्योगिकी- पर ध्यान केंद्रित किया गया था.

हालांकि, इस अध्ययन के अनुसार, 1960 के दशक में चीन ने निरक्षरता पर काबू पाने को प्राथमिकता दी, जबकि भारत ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उच्च शिक्षा पर जोर देना जारी रखा. इस अध्ययन के अनुसार, चीन के दशकों बाद, साल 2009, में भारत में शिक्षा के अधिकार (आरटीई) के रूप में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया.

नतीजतन, 1961 और 1981 के बीच, चीन की साक्षरता दर 43 प्रतिशत से बढ़कर 68 प्रतिशत हो गई, जबकि इसी अवधि में भारत की साक्षरता दर 28 प्रतिशत से बढ़कर 41 प्रतिशत तक ही पहुंच पाई.

अध्ययन में कहा गया है कि उच्च शिक्षा पर भारत द्वारा दिया गया विशेष ध्यान ‘बड़े पैमाने पर निरक्षरता की समस्या को हल करने’ की कीमत पर आया था. साथ ही, इसमें कहा गया है कि यह समस्या ‘शिक्षा तक असमान पहुंच’ की वजह से और बढ़ गयी थी.

दोनों देशों की साक्षरता दर के बीच का अंतर अब कम हो गया है. विश्व बैंक के अनुसार, साल 2018 तक, भारत की साक्षरता दर 74 प्रतिशत थी जबकि चीन के मामले में यह 97 प्रतिशत थी.

यूएनयू-वाइडर के अध्ययन में कहा गया है कि साक्षरता के क्षेत्र में भारत में अधिकांश सुधार हाल के वर्षों में हुए हैं जबकि पिछले तीस वर्षों में चीन को लगातार बढ़त मिली हुई है.

यह अध्ययन कहता है, ‘चीन 1990 के दशक की शुरुआत से (15-24 वर्ष आयु वर्ग के लिए) 100 प्रतिशत साक्षरता के अंक के करीब रहा है और भारत 1990 में 62 प्रतिशत साक्षरता दर से सुधर करते हुए साल 2018 में 92 प्रतिशत तक पहुंचा. युवा साक्षरता दर की बढ़ोत्तरी में यह अंतर भारत द्वारा प्राथमिक शिक्षा नीतियों के क्षेत्र में की गई देरी की वजह से है.’

प्रारंभिक शिक्षा के प्रति रवैया

अध्ययन में कहा गया है कि इन देशों के बीच अगला मुख्य अंतर प्राथमिक शिक्षा के प्रति उनके रवैये का है.

वर्किंग पेपर में कहा गया है कि 1970 के दशक में ही चीन ने सभी के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी थी, और इसके परिणामस्वरूप, इसकी स्कूल नामांकन दर में वृद्धि हुई. साल 1985 तक, चीन की सकल नामांकन दर – स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या का स्कूली स्तर की शिक्षा के लिए उपयुक्त आयु वर्ग में बच्चों की कुल संख्या का अनुपात – 100 प्रतिशत तक पहुंच गयी.

प्राथमिक शिक्षा में नामांकन के लिए चीन द्वारा दिए गए इस जोर ने 1990 के दशक में प्रगति दिखाई, जब उसके सेकेंडरी स्कूल्स (माध्यमिक विद्यालयों) में नामांकन में वृद्धि हुई. अध्ययन में कहा गया है कि भारत में सेकेंडरी स्कूल्स में नामांकन में वृद्धि 2000 के दशक की शुरुआत के बाद ही हुई.

अध्ययन कहता है कि 1990 के दशक के बाद से एक औसत 25 वर्षीय चीनी व्यक्ति ने हमेशा एक भारतीय की तुलना में लगभग दो साल अधिक स्कूली शिक्षा प्राप्त की है.

शिक्षा की गुणवत्ता में चीन का निवेश

लेखकों का कहना है कि साल 2001 में, चीन ने अपनी शिक्षा नीति में सुधार करना शुरू कर दिया, ताकि परीक्षा-उन्मुख रटने वाली पढाई के बजाये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया जा सके. ऐसा इसलिए था क्योंकि नामांकन बढ़ने के कारण रटने वाली प्रणाली को छात्रों के अभिभावकों की तरफ से विरोध का सामना करना पड़ा था.

अपनी नई शिक्षा नीति के तहत, चीनी सरकार ने बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया, अपने पाठ्यक्रम में बदलाव किया, परीक्षा-उन्मुख शिक्षा पर ध्यान देना कम किया और ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षण के प्रति प्रोत्साहन प्रदान किया.

हालांकि, भारत ने भी अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ मध्याह्न भोजन, लड़कियों और लड़कों के लिए अलग शौचालय बनाने, स्कूलों की संख्या बढ़ाने आदि में निवेश किया, लेकिन, लेखकों के अनुसार, यह रवैया ज्यादातर सिर्फ ‘क्वांटिटी’ से सम्बन्धी उपायों के लिए था.

इस अध्ययन में कहा गया है, ‘शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार के प्रयासों की कीमत पर स्कूल तक छात्रों की पहुंच और बुनियादी ढांचे में वृद्धि करने की भारत की दौड़ ने गुणवत्ता, समानता और दक्षता सम्बन्धी प्रयासों के मामले में भारत और चीन के बीच एक व्यापक अंतर पैदा कर दिया है.’

इसमें आगे कहा गया है, इसके कारण ‘कम अधिकार प्राप्त सामाजिक वर्गों के बच्चों का अलगाव बढ़ा’ और स्कूल जाने वाले बच्चे, सार्वजनिक और निजी दोनों स्कूलों में, ‘सीखने के खराब नतीजे’ प्रदर्शित कर रहे हैं.

आगे की राह

इस शोधपत्र के लेखकों का मानना है कि भारत के एनईपी में इस सब में सुधार लाने की क्षमता है. ये लेखक कहते हैं, अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन (प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा) (ईसीसीई) से लेकर, शिक्षकों की भर्ती और प्रशिक्षण में सुधार और मानकीकृत परीक्षणों तक (कक्षा 3, 5 और 8 में एक सामान्य बेंचमार्क का उपयोग करके सीखने के परिणामों को मापना), एनईपी भारत की शिक्षा प्रणाली की जरूरतों के ऊपर गुणवत्तापूर्ण जोर लगाने का काम कर सकता है.

लेकिन लेखकों ने कुछ नीतिगत सुझाव भी दिए हैं – जैसे कि प्रत्येक प्री -स्कूल सेंटर (विद्यालय पूर्व केंद्र) में अधिक कर्मियों को जोड़ना, और शिक्षकों की भर्ती, उन्हें प्रशिक्षित तथा पुरस्कृत करने के तरीके को बदलना आदि. उन्होंने इस बात की भी अनुशंसा की है कि यह सुनिश्चित करने हेतु कदम उठाए जाने चाहिए कि मानकीकृत परीक्षण स्कोर का डेटा किसी भी तरह की हेरफेर से मुक्त रहे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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