नई दिल्ली: 2017 के सुप्रीम कोर्ट फैसले में जिसका सहारा लेकर केंद्र ने बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (पीसीएमए) में संशोधन करके, महिलाओं की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष कर दी है, कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां की गईं थीं कि क़ानून बाल विवाह को ‘अमान्य’ (जिसकी कोई क़ानूनी हैसियत न हो) नहीं, बल्कि ‘अमान्य किए जाने योग्य’ (जो क़ानूनी है लेकिन जिसे बाद में समझौते के एक पक्ष द्वारा रद्द किया जा सकता है) करता है.
न्यायमूर्ति एमबी लोकुर और दीपक गुप्ता (दोनों अब सेवा निवृत्त) ने इसे ‘अजीब’ बताया कि पीसीएमए में बाल विवाह को अमान्य घोषित नहीं किया गया है, जबकि उसे प्रतिबंधित करके अपराध की श्रेणी में रखा गया है.
दोनों जजों ने अलग अलग लेकिन मिलते-जुलते फैसले लिखे थे और उनकी राय थी कि सीपीएमए के ‘प्रभावी कार्यान्वयन’ के लिए इस पर एक ‘गंभीर पुनर्विचार’ की ज़रूरत है, ताकि ये बाल विवाहों को ‘रोकने और कम करने में’ निवारक का काम कर सके.
कोर्ट ने पीसीएमए की ख़ामियों पर अपने विचार तब व्यक्त किए, जब उसने भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (रेप) के अपवाद 2 की व्याख्या की. इस अपवाद के तहत, किसी व्यक्ति पर बलात्कार का मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता, अगर उसने 15-18 वर्ष की किसी ऐसी लड़की से यौन संबंध बनाए हैं जो उसकी पत्नी है. बलात्कार क़ानून पर 2017 के फैसले में कहा गया कि अब 18 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना अपराध माना जाएगा.
पीसीएमए पर कोर्ट ने कहा था: ‘दिलचस्प बात ये है, कि इस तथ्य के बावजूद कि बाल विवाह केवल अमान्य किए जाने योग्य है, संसद ने बाल विवाह को एक अपराध बना दिया है और बाल विवाह का समझौता करने के लिए सज़ा का प्रावधान किया है’.
‘अमान्य (Void)’ विवाह की शर्तें
‘अमान्य’ विवाह का मतलब होता है एक ऐसी शादी, जो हुई ही नहीं है, यानी शादी शुरू से ही क़ानून की निगाह में वैध नहीं है.
पीसीएमए में वो शर्तें दी गई हैं जिनमें कोई शादी अमान्य हो सकती है. ये शर्तें हैं- जब किसी नाबालिग़ बच्चे को फुसलाकर उसे उसके क़ानूनी अभिभावक की देखरेख से लेकर, बल पूर्वक, मजबूरन, या छल से किसी स्थान से ले जाया जाता है या शादी के उद्देश्य से बेंचा जाता है.
लेकिन, पीसीएमए के तहत किसी नाबालिग से शादी अपने आप में अमान्य नहीं है. इसमें समझौते के किसी भी पक्ष को विवाह को अमान्य क़रार देने का विकल्प दिया गया है, जो शादी के समय बच्चा/बच्ची था.
फिलहाल ये उस व्यक्ति के बालिग़ होने के दो साल के अंदर किया जा सकता है. चूंकि मौजूदा क़ानून के तहत लड़की की शादी की उम्र 18 साल है, इसलिए 21 साल की उम्र होने पर वो शादी को रद्द करने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकती है. लड़के के लिए, जिसकी शादी की क़ानूनी उम्र 21 साल है, 23 वर्ष अंतिम सीमा है जिसके भीतर वो शादी रद्द करा सकता है.
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रद्द करने की समय सीमा बढ़ी
हालिया संशोधन में इस समय सीमा को दो साल से बढ़ाकर पांच साल किए जाने के प्रस्ताव से, लड़के और लड़कियां दोनों के पास शादी को रद्द करने की याचिका दायर करने के लिए 23 वर्ष तक का समय होगा.
लेकिन, 2017 में कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ‘पीसीएमए के तहत विवाह को रद्द करने के लिए दायर किए गए मुक़दमों की संख्या बेहद कम है.’
इसी कारण से कोर्ट ने सभी राज्यों को, कर्नाटक द्वारा अपनाए गए रास्ते पर चलने की सलाह दी थी, जिसने इस प्रथा को कम करने के लिए, बाल विवाह को अमान्य कर दिया है.
पीसीएमए के प्रावधानों पर एक विस्तृत चर्चा में, एससी ने 2017 के अपने फैसले में कहा था, कि ‘भारतीय संघ ने किसी न किसी तरह से बाल विवाह को वैध क़रार देने की कोशिश की है, और उसे अमान्य या रद्द घोषित कराए जाने का ज़िम्मा ‘बालिका वधू; या ‘बाल दूल्हा’ पर रख दिया गया है.
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PCMA की शुरुआत
फैसले में पीसीएम की जड़ों तक पहुंचने की कोशिश की गई, और कहा गया कि कन्या की शादी की न्यूनतम आयु 1929 में तय की गई, जब ‘बाल विवाह प्रतिबन्ध अधिनियम,1929 बनाकर उसे 14 वर्ष रखा गया था. 1940 में इसे बढ़ाकर 15 वर्ष किया गया, और फिर 1978 में 18 वर्ष कर दिया गया.
2006 में पीसीएमए के वजूद में आने के साथ ही, ‘बाल विवाह प्रतिबन्ध अधिनियम को निरस्त कर दिया गया, और भारत में बाल विवाह को अपराध बना दिया गया. इससे पहले 2004 में बच्चों के राष्ट्रीय चार्टर की अधिसूचना जारी की गई थी. राष्ट्रीय चार्टर के बाद अप्रैल 2013 में बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति लाई गई, जिसमें खुले तौर पर स्वीकार किया गया, कि 18 वर्ष से कम उम्र का हर व्यक्ति एक ‘बच्चा’ है.
राष्ट्रीय नीति में किए जाने कार्यों की सूची लंबी थी, जिसके नतीजे में 2016 में नेशनल प्लान ऑफ एक्ट फॉर चिल्ड्रन लाया गया, जिसमें नवजात मौतों का एक कारण लड़कियों की कम उम्र में शादी को माना गया.
बाल विवाह पर ‘मिले-जुले भाव’
क़ानून के उद्देश्य का विश्लेषण करने पर, कोर्ट ने 2017 के अपने फैसले में प्रकाश डाला कि ‘उपरोक्त ये स्पष्ट है कि संसद दरअसल बाल विवाहों के पक्ष में नहीं है, लेकिन इस बारे में उसके भाव मिले-जुले हैं.
फिर उसने भारतीय संघ को सलाह दी कि पीसीएम के प्रभावी कार्यान्वयन पर एक विचारपूर्ण निर्णय ले, और ‘बाल विवाह को सक्रिय रूप से प्रतिबंधित करे’, जो कोर्ट की निगाह में एक बाल कन्या के साथ यौन संबंधों को प्रोत्साहित करता है.
दिप्रिंट से बात करते हुए जस्टिस गुप्ता ने, जो बलात्कार क़ानून पर 2017 का फैसला देने वाले दो जजों में से एक थे, कहा: ‘क़ानून सामाजिक बदलाव नहीं ला सकता. अगर पीसीएमए अपने मौजूदा स्वरूप में बाल विवाह को बंद नहीं कर सका, तो संशोधन के बाद भी ये शायद एक व्यावहारिक विकल्प नहीं होगा. इस मामले में क़ानून के डर ने काम नहीं किया है. ज़्यादा तवज्जो ये सुनिश्चित करने पर होनी चाहिए थी, कि पहले 18 वर्ष की उम्र में विवाह का क़ानून काम करने लगे, और उसके बाद फिर शायद उसे बढ़ाकर 21 साल किया जाए’.
पूर्व जज ने आगे कहा कि महिलाओं की शादी की उम्र बढ़ा देने से, उनको भगा ले जाने की घटनाओं में इज़ाफा हो सकता है.
कोर्ट ने 2017 के अपने फैसले में कहा था, ‘कल्याण स्कीमें और आकर्षक नारे जागरूकता अभियानों के लिए बहुत अच्छे हैं, लेकिन उनके साथ केंद्रित कार्यान्वयन कार्यक्रम होने चाहिएं, अन्य सकारात्मक और उपचारी कार्य होने चाहिएं, जिससे कि पेंडुलम बाल कन्या के पक्ष में झुक जाए, जो फिर एक बेहतर भविष्य की कामना कर सकती है.’
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