नई दिल्ली: उत्तराखंड पुलिस ने देहरादून के एक कारोबारी को इस वजह से एक ‘गैंगस्टर’ करार दे दिया है क्योंकि वह धोखाधड़ी के छह मामलों में कथित रूप से शामिल है.
अपने खिलाफ यूपी गैंगस्टर्स एक्ट के प्रावधानों को लागू किये जाने के मामले में उत्तराखंड पुलिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख करने वाले इस व्यवसायी का कहना है कि पिछले साल नवंबर में इस ‘सख्त’ कानून के तहत दर्ज की गई एक प्राथमिकी में उन्हें चार व्यक्तियों के समूह के ‘गैंग लीडर (गिरोह के सरगना)’ के रूप में वर्णित किया गया है.
उनके विरुद्ध धोखाधड़ी के छह मामले लंबित होने के कारण यह प्राथमिकी उन्हें एक संगठित आपराधिक गिरोह का सदस्य भी मानती है.
गैंगस्टर एक्ट के तहत दर्ज की गई प्राथमिकी को रद्द करने से जुड़ी अपनी याचिका में, इस व्यवसायी ने दावा किया कि धोखाधड़ी के ये सभी मामले उसके व्यापार के भागीदारों के साथ छोटे-मोटे व्यावसायिक विवादों से संबंधित हैं और ये ‘दीवानी’ प्रकृति वाले मामले है. उन्होंने आगे कहा कि इस छह मामलों में से दो का निपटारा कर दिया गया है, जबकि एक मामला ‘सुलझाए जाने की कगार पर है.’
इस प्राथमिकी में उसके खिलाफ हरियाणा में दर्ज बलात्कार के एक मामले का भी जिक्र किया गया है. हालांकि, स्थानीय पुलिस ने इसे बंद कर दिया है और याचिकाकर्ता ने इस मामले की क्लोजर रिपोर्ट की एक प्रति भी शीर्ष अदालत के सामने प्रस्तुत की.
पिछले हफ्ते, न्यायमूर्ति सूर्यकांत के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ इस व्यवसायी के बचाव में आई और उसने उत्तराखंड पुलिस को उसे गिरफ्तार करने से रोक दिया था. अदालत ने उसके द्वारा देहरादून में चलाए जा रहे एक गर्ल्स हॉस्टल’ को गिराने के लिए यूपी गैंगस्टर एक्ट के तहत जारी नोटिस पर भी रोक लगा दी है.
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‘गैंगस्टर एक्ट लागू करने के लायक मामले नहीं’
याचिकाकर्ता के वकील ऋषि मल्होत्रा ने शीर्ष अदालत की पीठ को बताया कि इन छह प्राथमिकियों में उल्लिखित सभी आरोप शुद्ध रूप से व्यापारिक लेन-देन से संबंधित हैं मगर, पुलिस ने दीवानी विवादों को फौजदारी अपराधों में बदल दिया था.
उनका आगे कहना था कि अगर इन आरोपों को सच भी मान लिया जाए, तो भी वे यूपी गैंगस्टर्स एक्ट के तहत आरोपों लगाए जाने के लिए इस तरह के गंभीर अपराध नहीं बनते हैं. उन्होंने कहा कि प्राथमिकी की विषय वस्तु से धोखाधड़ी का पता चलता है जिसे हमेशा हल किया जा सकता है.
यूपी गैंगस्टर्स एक्ट के अनुसार, एक ‘गिरोह’ का अर्थ व्यक्तियों का एक समूह है जो या तो अकेले या सामूहिक रूप से, हिंसा द्वारा, या धमकी अथवा हिंसा के प्रदर्शन, या ज़बरदस्ती या अन्यथा ऐसे कार्य करता है जिनसे सार्वजनिक व्यवस्था को भंग होती हो या अपने या किसी अन्य व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार का अनुचित लौकिक, आर्थिक, अन्य लाभ की सामग्री प्राप्त करने के उद्देश्य से, असामाजिक गतिविधियों में लिप्त होता है. इस परिभाषा को याचिका में विशेष रूप से निकालकर उद्धृत किया गया है.
इसी तरह एक गैंगस्टर का अर्थ है ‘किसी गिरोह का सदस्य या नेता या आयोजक, और इसमें कोई भी ऐसा व्यक्ति शामिल है जो किसी गिरोह की अवैध गतिविधियों (जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है) में सहायता करता है या उसे बढ़ावा देता है, चाहे ऐसा इन गतिविधियों के किये जाने से पहले या बाद में किया गया हो अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को आश्रय देता है जो इस तरह की गतिविधियों वाले काम में शामिल है.
यूपी गैंगस्टर एक्ट की संवैधानिक वैधता को अदालत में चुनौती दिए जाने के बाद साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे बरकरार रखा गया था. लेकिन वर्तमान याचिका में उल्लेख किया गया है कि शीर्ष अदालत ने उस वक्त यह भी दोहराया था कि इस कानून का उद्देश्य और कारण इसे केवल ‘गैंगस्टरिज़्म और असामाजिक गतिविधियों’ के खिलाफ एक विशेष प्रावधान बनाने के लिए है.
लेकिन याचिकाकर्ता ने शिकायत की है कि उनके मामले में विक्रेताओं द्वारा जारी किये गए बिलों के साथ जुड़े कुछ विवादों के कारण भुगतान किये जाने में होने वाली थोड़ी सी देरी को भी ‘असामाजिक गतिविधि’ करार दिया गया है.
पहली प्राथमिकी साल 2019 में तब दर्ज की गई थी जब उसने कथित तौर पर शिकायतकर्ता को थप्पड़ मार दिया था. दूसरी जुलाई 2021 में दर्ज की गई थी जब एक बिक्री से संबंधित लेनदेन सफल नहीं हुआ था. हालांकि, उन्होंने कहा कि यह मामला सुलझने के कगार पर है.
जनवरी 2022 में दर्ज तीसरे मामले में याचिकाकर्ता पर उस विक्रेता को भुगतान न करने का आरोप लगाया गया है जिससे उसने देहरादून में स्थित एक हॉस्टल के निर्माण के लिए टाइलें खरीदी थीं. हालांकि, इस मामले में विवाद से जुड़ी राशि लगभग 23 लाख रुपये की थी, पर याचिकाकर्ता ने 12 लाख रुपये का भुगतान कर इस मामले को सुलझा लिया.
जैसा कि व्यवसायी ने अदालत में निवेदित किया, उसके खिलाफ अप्रैल 2002 में दर्ज चौथा मामला भवन निर्माण सामग्री की खरीद के लिए बकाया राशि का भुगतान न करने से संबंधित था, जिसके बाद उन्हें निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के तहत मुकदमे का सामना करना पड़ा और उन्हें बरी कर दिया गया.
इसी तरह, जहां मई 2022 में दर्ज पांचवें मामले में यह आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ता ने 2020-21 में सैनिटरी फिटिंग की खरीद के लिए बकाया 2 लाख रुपये का भुगतान नहीं किया था, वहीँ नवंबर 2022 में दायर छठे मामले में आरोप लगाया गया था कि उसने शिकायतकर्ता से लिए गए इसी राशि के कर्ज का भुगतान नहीं किया था.
अंत में, नवंबर 2022 में, याचिकाकर्ता द्वारा महसूस किये गए ‘घोर सदमे और हताशा’ के साथ उस पर एक ‘गैंगस्टर’ के होने का ठप्पा लगा दिया गया.
इस बीच, याचिकाकर्ता ने इन छह मामलों की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू कर दी थी. उनकी याचिका पर ही उत्तराखंड हाई कोर्ट ने अक्टूबर 2002 में उनके मामलों के जांच अधिकारी को बदलने का आदेश भी दिया था.
लेकिन, जब उन्होंने गैंगस्टर एक्ट को लगाए जाने को चुनौती दी, तो हाई कोर्ट ने अपनी इस टिप्पणी के बावजूद कि इस विशेष कानून के तहत कार्यवाही शुरू करने में जांच अधिकारी के इरादे दुर्भावनापूर्ण थे, व्यवसायी को कोई भी राहत देने से इनकार कर दिया था.
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(अनुवाद: रामलाल खन्ना | संपादन: अलमीना खातून)
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