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Sunday, 5 May, 2024
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निजी बैंक के अधिकारी भी ‘पब्लिक सर्वेंट’, कैसे कोर्ट का एक फैसला चंदा कोचर की गिरफ्तारी की वजह बना

सुप्रीम कोर्ट के फैसलें के अनुसार एक निजी बैंक के प्रबंध निदेशक और अध्यक्ष, प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट 1988 के प्रावधानों के तहत 'पब्लिक सर्वेंट' है.

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नई दिल्ली: एक स्पेशल केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) अदालत ने बुधवार को आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) और प्रबंध निदेशक (एमडी) चंदा कोचर, उनके पति दीपक कोचर और वीडियोकॉन के संस्थापक-चेयरमैन वेणुगोपाल धूत की हिरासत 29 दिसंबर तक बढ़ा दी.

तीनों को पिछले सप्ताह गिरफ्तार किया गया था और 2009 और 2011 के बीच धूत के वीडियोकॉन ग्रुप की कंपनियों को आईसीआईसीआई बैंक द्वारा दिए गए लोन में कथित धोखाधड़ी और अनियमितताओं से संबंधित एक मामले की जांच की जा रही है.

जनवरी 2019 में इस मामले में एफआईआर दर्ज करने वाली सीबीआई ने आरोप लगाया है कि कोचर ने आईसीआईसीआई बैंक को 1,730 करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाया है.

सीबीआई के अनुसार 2009 में कोचर की अध्यक्षता वाली एक समिति ने बैंक के नियमों और नीतियों के खिलाफ वीडियोकॉन इंटरनेशनल इलेक्ट्रॉनिक्स को 300 करोड़ रुपये का टर्म लोन दिया था. एजेंसी ने आरोप लगाया कि लोन मिलने के एक दिन बाद ही धूत ने 64 करोड़ रुपये दीपक की कंपनी को ट्रांसफर कर दिए थे.

सीबीआई ने आगे कहा है कि जून 2009 से अक्टूबर 2011 तक, आईसीआईसीआई बैंक ने वीडियोकॉन ग्रुप की विभिन्न कंपनियों को छह हाई वैल्यू लोन्स दिए हैं. एजेंसी ने यह भी आरोप लगाया है कि फरवरी 1996 में 5.25 करोड़ रुपये की कीमत वाले एक फ्लैट को कोचर के पारिवारिक ट्रस्ट को 2006 में केवल 11 लाख रुपये में ट्रांसफर किया गया था.

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सीबीआई ने अपनी दलील में कहा कि ‘एक लोक सेवक होने के नाते, उन्हें (चंदा कोचर) बैंक का फंड सौंपा गया था, जिसके लिए वह आईसीआईसीआई बैंक द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार इस तरह के विश्वास का पालन करने के लिए उत्तरदायी थीं.’

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत धोखाधड़ी और आपराधिक साजिश के आरोपों के साथ कोचर पर 1988 के प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट के प्रावधानों के तहत मामला दर्ज किया गया है.

हालांकि, क्या प्रिवेंशन ऑफ़ करप्शन एक्ट निजी बैंक के कर्मचारियों पर लागू होता है?

इसका जवाब 2016 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में निहित है, जिसमें कहा गया था कि एक निजी बैंक के प्रबंध निदेशक और अध्यक्ष, अधिनियम के प्रावधानों के तहत ‘पब्लिक सर्वेंट’ हैं.


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कानून क्या कहता है?

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 2 (सी) में ‘लोक सेवक’ की परिभाषा शामिल है. इस परिभाषा में कोई भी व्यक्ति शामिल है जो किसी ऐसे पद पर है जिसके आधार पर वह किसी भी सार्वजनिक कर्तव्य का पालन करने के लिए अधिकृत या आवश्यक है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2016 के फैसले में अधिनियम की धारा 2 (बी) का भी उल्लेख किया, जो ‘सार्वजनिक कर्तव्य’ को ‘एक कर्तव्य के रूप में परिभाषित करता है जिसके निर्वहन में राज्य, जनता या बड़े पैमाने पर समुदाय का हित है.’

इसके अलावा, बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 46A में कहा गया है कि प्रत्येक चेयरमैन जिसे पूर्णकालिक आधार पर नियुक्त किया जाता है, प्रबंध निदेशक, निदेशक, लेखा परीक्षक, लिक्विडेटर, प्रबंधक और बैंकिंग कंपनी के किसी अन्य कर्मचारी को लोक सेवकों से संबंधित अपराधों को सूचीबद्ध करने वाले भारतीय दंड संहिता के अध्याय IX के प्रयोजनों के लिए लोक सेवक माना जाएगा.

इनमें लोक सेवकों द्वारा कानून की अवज्ञा करने, किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाने के इरादे से और लोक सेवकों द्वारा कानून के तहत किसी भी निर्देश की अवज्ञा करने से संबंधित अपराध शामिल हैं.

2016 के फैसले ने क्या कहा?

न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति प्रफुल्ल सी. पंत की पीठ ने 2016 के अपने फैसले में कहा था कि किसी निजी बैंक के प्रबंध निदेशक/अध्यक्ष और कार्यकारी निदेशक भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम, 1988 के तहत लोक सेवक हैं.

फैसले में सीबीआई द्वारा दायर अपील को स्वीकार कर लिया गया और अधिनियम के तहत एक निजी बैंक के दो आरोपी कर्मचारियों के खिलाफ मामलों को जारी रखने की अनुमति दी गई. यह मामला ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक और कार्यकारी निदेशक के खिलाफ आरोपों से संबंधित है कि उन्होंने कथित तौर पर बैंक के पैसे को हड़पने के लिए अपने पद का दुरुपयोग किया.

अदालत ने भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम के उद्देश्यों और कारणों के बयान पर गौर किया, और कहा कि कानून का उद्देश्य भ्रष्टाचार विरोधी कानून को इसके कवरेज को व्यापक बनाकर और ‘लोक सेवक’ की परिभाषा के दायरे को व्यापक बनाना था.

इसके बाद न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि क्या भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी लाइसेंस के तहत काम कर रहे किसी निजी बैंक के चेयरमैन, प्रबंध निदेशक या कार्यकारी निदेशक पद पर रहते हुए लोक सेवा का काम करते हैं ताकि उनके ऊपर ‘लोक सेवक’ की परिभाषा को लागू हो सके.

प्रश्न का सकारात्मक जवाब देते हुए, अदालत ने कहा कि भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम पेश किए जाने के बाद, आईपीसी के चैप्टर IX में शामिल धारा 161 से 165A के तहत अपराधों को अध्याय IX से हटा दिया गया और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 से 12 के तहत संलग्न किया गया.

इसके बाद इसमें कहा गया कि चूंकि इन प्रावधानों को आईपीसी के अध्याय IX से हटाकर 1988 के कानून में शामिल किया गया है, इसलिए बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 46 ए में भी संशोधन किया जाना चाहिए था, ताकि बैंकिंग अधिकारियों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 से 12 के लिए लोक सेवक माना जा सके.

अदालत ने इसे ‘पूरी तरह से अनपेक्षित विधायी चूक’ कहा, जिसे अदालत व्याख्या की प्रक्रिया से भर सकती है.

व्याख्या के माध्यम से, अदालत ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और बैंकिंग विनियमन अधिनियम के प्रावधानों को एक साथ पढ़ा, यह तय करने के लिए कि एक निजी बैंकिंग कंपनी के अधिकारी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में परिभाषित ‘लोक सेवक’ की परिभाषा के तहत आएंगे.


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बैंकरों के खिलाफ फैसले का इस्तेमाल कैसे किया जाता है?

सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले का हवाला सीबीआई ने एक साल बाद 2017 में एनडीटीवी और उसके प्रमोटरों के कार्यालयों पर छापे मारने के अपने फैसले को सही ठहराने के लिए दिया था.

जबकि एनडीटीवी ने आईसीआईसीआई बैंक के एक निजी संस्था होने पर सीबीआई के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाए थे, सीबीआई ने 2016 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र किया था.

पिछले महीने, ‘सार्वजनिक कर्तव्य’ और ‘लोक सेवक’ की एक ही व्याख्या का उपयोग करते हुए, दिल्ली की एक अदालत ने फैसला सुनाया कि चूंकि दीवान हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेड (डीएचएफएल) सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहा था – जिसमें जमा लेना, ऋण देना और जनता को घर पहुंचाकर विभिन्न योजनाओं में सरकार की मदद करना शामिल था – इसके पूर्व सीएमडी कपिल वधावन और पूर्व निदेशक धीरज वधावन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 2 के तहत ‘लोक सेवक’ थे.

यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के नेतृत्व वाले 17 बैंकों के समूह के साथ 34,615 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी के मामले में सीबीआई द्वारा दायर आरोपपत्र में दोनों भाइयों का नाम है. यह कार्रवाई यूनियन बैंक ऑफ इंडिया (यूबीआई) द्वारा दायर एक शिकायत पर शुरू की गई थी, जो 17 सदस्यीय ऋणदाता कंसोर्टियम के नेता थे, जिसने 2010 और 2018 के बीच 42,871 करोड़ रुपये की ऋण सुविधाएं दी थीं.

(अनुवादः अलमिना/शिव पाण्डेय, संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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