नई दिल्ली: दिप्रिंट को जानकारी मिली है कि 14 वकीलों की फाइलें, जिसमें तीन महिला वकीलों के भी नाम हैं, जिनकी सिफारिश सुप्रीम कोर्ट ने पांच अलग-अलग उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के लिए की थी, केंद्र सरकार ने पुनर्विचार के लिए वापस भेज दी हैं.
ये सिफारिशें एक साल से अधिक समय से केंद्र सरकार के पास लंबित पड़ी थीं और कुछ को तो करीब 24 महीने हो गए थे.
सरकारी सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि 14 में से दो नाम दूसरी मरतबा वापस किए गए हैं. इसका मतलब है कि कॉलीजियम के दोहराने के बावजूद कानून मंत्रालय ने दो नामों को स्वीकार करने से मना कर दिया.
सूत्रों के अनुसार, 14 में से पांच नाम कलकत्ता हाई कोर्ट के लिए थे और उनकी नियुक्ति का प्रस्ताव सरकार के पास, जुलाई 2019 में भेजा गया था.
इस बीच, चार सिफारिशें दिल्ली हाई कोर्ट के लिए थीं. वो अगस्त 2020 में केंद्र को भेजे गए छह नामों की एक सूची का हिस्सा थीं और इनमें से सरकार ने दो वकीलों की अधिसूचना जारी कर दी थी.
दो नाम जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के लिए थे, जिसने दोनों का नाम मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए अपने प्रस्ताव में सुझाया था. शीर्ष न्यायालय की कॉलीजियम ने एक नाम को अक्टूबर 2019 में मंजूरी दे दी थी, जबकि दूसरे को इस साल मार्च में प्रेषित किया गया, जब नियुक्ति निकाय को एडवोकेट की कानूनी प्रैक्टिस के बारे में, उसके द्वारा मांगी गई अतिरिक्त जानकारी मिल गई थी.
लौटाई गई फाइलों में दो नाम कर्नाटक हाई कोर्ट के लिए थे, जिनमें से एक को दूसरी बार लौटाया गया है. इस उम्मीदवार की सिफारिश पहली बार अक्टूबर 2019 में की गई थी और इस साल मार्च में उसका नाम फिर से भेजा गया था.
इसी तरह, सरकार ने एक बार फिर केरल हाई कोर्ट के लिए सुझाए गए एक वकील के नाम पर पुनर्विचार की मांग की है. शीर्ष अदालत की कॉलीजियम ने मार्च 2019 में उसकी नियुक्ति की सिफारिश की थी और मार्च 2021 में केंद्र की पिछली आपत्तियों को खारिज करते हुए फिर से अपने फैसले को दोहराया था.
सिफारिशों को दूसरी मरतबा वापस भेजने के फैसले से उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों को लेकर न्यायपालिका और कार्यकारिणी के बीच फिर से विवाद छिड़ सकता है, क्योंकि उसमें मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) में निर्धारित प्रावधानों की उपेक्षा की गई है- न्यायिक नियुक्तियों की वो नियम पुस्तिका, जिसका कॉलीजियम और केंद्र दोनों पालन करते हैं.
एमओपी के अनुसार अगर कॉलीजियम किसी सिफारिश को दोहराती है, तो वो सरकार के लिए बाध्यकारी हो जाती है.
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उच्च न्यायालयों में रिक्तियों का गंभीर संकट
ये घटनाक्रम ऐसे समय हुआ है, जब सरकार ने इस साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट से वादा किया था कि छह महीने से अधिक समय से लंबित फाइलों पर तीन महीने के भीतर वो कॉलीजियम को अपने फैसले से अवगत करा देगी.
इससे पहले शीर्ष अदालत को अवगत कराया गया था कि उच्च न्यायालय रिक्तियों के गंभीर संकट से जूझ रहे हैं और उनमें से कुछ स्वीकृत संख्या के 50 प्रतिशत पर काम कर रहे हैं.
पूर्व सीजेआई एसए बोबड़े की अगुवाई वाली एक बेंच ने उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार के लिए एक समय सीमा निर्धारित की थी.
बेंच ने तब ज़ोर देकर कहा था, ‘प्रक्रिया में तत्परता इसलिए जरूरी है कि समय रहते न्याय किए जाने का कार्य सुगम बनाया जा सके’.
बेंच ने उच्च न्यायालयों के सामने पेश ‘संकट की स्थिति’ पर भी प्रकाश डाला था और न्यायपालिका तथा कार्यकारिणी की ओर से सहयोगपूर्ण कवायद की मांग की थी. बेंच ने खेद जताते हुए कहा था कि उच्च न्यायालयों में करीब 40 प्रतिशत जजों की कमी है.
कॉलीजियम द्वारा फिर से भेजे गए नामों पर फैसले में कहा गया था, ‘ऐसी नियुक्तियों में प्रक्रिया पूरी की जानी चाहिए और तीन-चार सप्ताह के भीतर नियुक्तियां कर दी जानी चाहिए’.
उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए संबंधित हाई कोर्ट की ओर से प्रस्तावित उम्मीदवारों की एक सूची केंद्र तथा एससी कलीजियम को भेजी जाती है, जिसके अध्यक्ष भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) होते हैं और सीजेआई के बाद शीर्ष अदालत के दो वरिष्ठ जज उसके सदस्य होते हैं.
कॉलीजियम फाइलों को अपने विचारार्थ तभी ले सकती है, जब सरकार अपने इनपुट्स के साथ उम्मीदवार से जुड़ी मुकम्मल सामग्री उसके समक्ष पेश करती है. विचार-विमर्श के बाद नामों को अंतिम अधिसूचना के लिए सरकार के पास भेज दिया जाता है. अगर सरकार फाइलों को वापस करती है तो कॉलीजियम या तो उसे फिर से भेज सकती है या प्रस्ताव को वापस ले सकती है.
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