नयी दिल्ली, छह अप्रैल (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के उस कार्यालय ज्ञापन को निरस्त कर दिया है जिसमें उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को निजी विदेश यात्राओं के लिए राजनीतिक मंजूरी लेने की आवश्यकता होती है। उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों के उच्च पदों को देखते हुए ऐसी शर्त ‘‘अनावश्यक’’ है।
न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की पीठ ने आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करते हुए कहा कि जब 2011 में केंद्र सरकार द्वारा शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की विदेश यात्राओं के संबंध में कुछ दिशानिर्देश जारी किए गए थे, तो इसमें ‘‘निजी विदेश यात्राओं को राजनीतिक मंजूरी प्राप्त करने की आवश्यकता से दूर रखा गया’’ और इस बार भी उसी दृष्टिकोण का पालन किया जाना चाहिए था।
पीठ ने एक अप्रैल को पारित अपने आदेश में कहा, ‘‘हमारे विचार में मौजूदा कार्यालय ज्ञापन में उसी व्यवस्था का पालन किया जाना चाहिए। इसलिए, दिनांक 13 जुलाई 2021 के कार्यालय ज्ञापन के संबंध में जहां शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को विदेश की निजी यात्राओं के लिए राजनीतिक मंजूरी लेने की आवश्यकता होती है, यह अनावश्यक है। उनके पास उच्च पद हैं, विशेष रूप से इस तथ्य को देखते हुए कि 2011 के जारी दिशानिर्देशों के बाद से कुछ भी नहीं बदला है।’’
केंद्र की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने विदेश मंत्रालय के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा जारी किए गए कार्यालय ज्ञापन का बचाव किया और अदालत से कहा कि विदेश यात्रा करने वाले न्यायाधीशों से संबंधित जानकारी की आवश्यकता है ताकि किसी भी आपात स्थिति में विदेश में आवश्यक सहायता प्रदान की जा सके।
उच्च न्यायालय ने कहा कि यह रुख इस तथ्य की अनदेखी करता है कि न्यायाधीशों की यात्रा योजनाओं के बारे में जानकारी तब सामने आती है जब विदेश मंत्रालय के कांसुलर, पासपोर्ट और वीजा डिवीजन से ‘‘वीजा सपोर्ट नोट्स वर्बेल’’ जारी करने का अनुरोध किया जाता है।
अदालत ने कहा कि किसी भी मामले में न्यायाधीश समेत यदि कोई भारतीय नागरिक संकट में फंस जाता है तो भारतीय दूतावास या मिशन इस तरह की घटना की सूचना मिलने पर यथासंभव सहायता प्रदान करने के लिए बाध्य हैं। इसके बाद अदालत ने कार्यालय ज्ञापन को निरस्त कर दिया।
याचिकाकर्ता अमन वाचर ने इस शर्त को इस आधार पर चुनौती दी कि संवैधानिक अदालतों यानी उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को विदेश की निजी यात्राओं के लिए राजनीतिक मंजूरी लेने की आवश्यकता उनके निजता के अधिकार का उल्लंघन करती है और उच्च पद को भी नीचा और कमतर दिखाती है।
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