नई दिल्ली: केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच राज्य के पूर्व मुख्य सचिव अलपन बंद्योपाध्याय को लेकर छिड़े अप्रत्याशित किस्म के टकराव ने सिविल सेवाओं के राजनीतिकरण पर देशव्यापी बहस छेड़ दी है.
केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने 1987 बैच के आईएएस अधिकारी की नियुक्ति और डेपुटेशन को लेकर अपने पास अधिक अधिकार होने का दावा किया है. इससे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों के बंटवारे पर सवाल खड़े हो गए हैं, जिन दोनों के लिए ही तीनों अखिल भारतीय सेवाओं (एआईएस) के अधिकारी अपनी सेवाएं देते हैं.
सभी नौ मानकों—भर्ती किए जाने वाले अधिकारियों की संख्या निर्धारित करना, भर्ती, नियुक्ति, कैडर आवंटन, ट्रेनिंग, ट्रांसफर-पोस्टिंग, पैनल में रखना और केंद्रीय प्रतिनियुक्ति, सेवा विस्तार और अनुशासनात्मक कार्यवाही पर फैसला—के संदर्भ में केंद्र और राज्य के अधिकारों पर नजर डालें तो पता चलता है कि कम से कम आठ मानकों में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफएस) के अधिकारियों पर केंद्र को ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं.
हालांकि, इसके साथ ही विशेषज्ञों ने दिप्रिंट को बताया कि अगर नियमों को सामान्य तौर पर पढ़ें तो यह सिविल सेवाओं पर केंद्र सरकार को अधिक शक्तियां देता है, लेकिन जो परिपाटी चलती आ रही है उसमें संघीय ढांचे की भावना के अनुरूप केंद्र और राज्यों के बीच एक सहयोगात्मक और परामर्शी दृष्टिकोण सुनिश्चित किया गया है, और राज्यों को काफी हद तक डी-फैक्टो शक्तियां मिली हुई हैं.
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अखिल भारतीय सेवाएं
संविधान के अनुच्छेद 312 के तहत केंद्र और राज्यों के लिए प्रशासकों और कानून प्रवर्तकों का एक पूल बनाने के लिए आईएएस और आईपीएस का गठन आजादी के बाद हुआ था—भारतीय वन सेवा को 1966 में इन दोनों के साथ शामिल किया गया. अखिल भारतीय सेवा अधिनियम, 1951 के तहत आने वाले सभी अधिकारियों का यह साझा पूल बनाने के पीछे विचार यह था कि भारतीय संघ के एकरूपता वाले स्वरूप को मजबूती मिलेगी.
कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के पूर्व सचिव सत्यानंद मिश्रा कहते हैं, ‘एआईएस अधिकारियों की बात आती है तो केंद्र को ज्यादा शक्तियां प्राप्त हैं.’ उन्होंने साथ ही जोड़ा, ‘एआईएस के पीछे सबसे बड़ा उद्देश्य यही था कि भारत एक अत्यधिक विविधता वाला देश है, और इसलिए अधिकारियों के एक साझा, केंद्रीय भर्ती वाले पूल के जरिये इसमें एकरूपता बनाए रखना महत्वपूर्ण होगा.’
उन्होंने कहा, ‘माना जाता था कि ये जरूरी है कि किसी भी राज्य में प्रमुख कार्यकारी कार्य केंद्रीय स्तर पर भर्ती किए गए पूल के सदस्यों द्वारा अंजाम दिए जाएं.’
उन्होंने कहा कि इसी भावना के तहत किसी राज्य कैडर में एक तिहाई से अधिक ऐसे अधिकारी नहीं होते जो मूल रूप से उस राज्य के ही हों. उन्होंने कहा, ‘ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि प्रशासनिक कर्तव्यों को निभाते समय इन लोगों के अपने संपर्क, निहित स्वार्थ और क्षेत्रीय संबद्धताएं कम ही आड़े आएं, क्योंकि भारत को मूल रूप से राज्यों के संघ के रूप में कार्य करना है.’
आइए हम उन मापदंडों के बारे में जानें जो अधिकारियों पर केंद्र और राज्यों के प्रभुत्व को निर्धारित करते हैं.
नियुक्ति का अधिकार
हर साल तीनों कैडर को नियंत्रित करने वाले प्राधिकरण—डीओपीटी (आईएएस के लिए), गृह मंत्रालय (आईपीएस के लिए) और पर्यावरण मंत्रालय (आईएफएस के लिए)—इन तीनों सेवाओं की ‘कैडर समीक्षा’ करते हैं. कैडर समीक्षा में इसका आकलन किया जाता है कि प्रत्येक राज्य में प्रत्येक सेवा में कितने नए अधिकारियों की भर्ती की जानी है. यद्यपि समीक्षा में राज्यों से परामर्श लिया है—हर राज्य केंद्र को आवश्यक अधिकारियों की संख्या के बारे में अपनी जरूरत बता देता है—लेकिन अंतिम निर्णय केंद्र सरकार की तरफ से ही लिया जाता है.
केंद्र की तरफ से कैडर समीक्षा के आधार पर प्रत्येक सेवा में अधिकारियों की जरूरत पर अपेक्षित संख्या की एक सूची संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) को भेजी जाती है. यह एक संवैधानिक निकाय है जो स्वतंत्र रूप से बेहद प्रतिस्पर्धी मानी जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा (सीएसई) के माध्यम से अपेक्षित संख्या में भर्ती करता है.
अंतत: यूपीएससी द्वारा भर्ती अधिकारियों को देश के राष्ट्रपति की तरफ से नियुक्त किया जाता है, जिसके बाद भारत सरकार को उनकी नियुक्ति का प्राधिकार मिल जाता है. एआईएस अधिकारियों पर केंद्र को कई शक्तियां इस तथ्य के आधार पर मिलती हैं कि यह उनकी नियुक्ति प्राधिकारी है.
चयनित अधिकारियों को बाद में केंद्र द्वारा उनका स्टेट कैडर दिया जाता है. यद्यपि केंद्र इस पर फैसला राज्यों की जरूरत, अधिकारियों की वरीयता, परीक्षा में उनकी रैंक आदि को ध्यान में रखते हुए करता है, लेकिन कोई भी अंतिम निर्णय केंद्र सरकार पर निर्भर करता है.
एक बार कैडर आवंटित होने के बाद तीनों सेवाओं के अधिकारी अपनी ट्रेनिंग पर चले जाते हैं, जो लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (एलबीएसएनएए), सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी (एसवीपीएनपीए) और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी (आईजीएनएफए) जैसे केंद्रीय प्रशिक्षण संस्थानों (सीटीआई) में होती है.
सभी स्टेट कैडर के अधिकारियों को मिलने वाली ट्रेनिंग समान होती है, और यह सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय संस्थानों के माध्यम से ट्रेनिंग दी जाती है कि एआईएस के सभी नए अधिकारी सेवा की शुरुआत के समय से ही जमीनी स्तर पर ‘राष्ट्रीय नजरिये’ पर अमल करें.
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ट्रांसफर और पोस्टिंग—राज्यों का अधिकार
सरकारी पोर्टल ‘भारत को जानें’ पर एआईएस का संक्षिप्त ब्योर इस प्रकार है, ‘अखिल भारतीय सेवाओं की एक सबसे अनूठी खासियत ये है कि इन सेवाओं के सदस्यों की भर्ती केंद्र द्वारा की जाती है, लेकिन उनकी सेवाओं को विभिन्न स्टेट कैडर के तहत रखा जाता है, और उन पर राज्य और केंद्र दोनों के अधीन सेवाएं देने का दायित्व होता है.’
इसीलिए, केंद्र द्वारा अधिकारियों की भर्ती और ट्रेनिंग के बाद, उन्हें उनके स्टेट कैडर में भेज दिया जाता है. हालांकि, मोदी सरकार ने नए भर्ती अधिकारियों को राज्यों में भेजे जाने से पहले भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सहायक सचिवों के रूप में नियुक्त करने की परंपरा शुरू की है, राज्य स्तर पर एआईएस अधिकारियों का कैरियर वास्तव में जिला स्तर पर नियुक्ति के साथ शुरू होता है.
यहीं आकर राज्यों को इस बात का पूरा अधिकार मिलता है कि किसे किस जिले में पद दिया जाए, किसे राज्य सचिवालय में पदस्थापित किया जाए, किसे ट्रांसफर किया जाए, किसे महत्वपूर्ण पोस्टिंग दी जाए और किसे महत्वहीन पदों पर बैठाया जाए.
मिश्रा ने कहा, ‘यहां पर राज्यों के पास किसी भी अधिकारी पर विशेष अधिकार हासिल होते हैं. केंद्र राज्य सरकार को यह कभी नहीं बता सकता कि राज्य स्तर पर किस अधिकारी को कहां पोस्ट करना है. यह शत-प्रतिशत राज्यों पर निर्भर करता है.’
हालांकि, ट्रांसफर और पोस्टिंग से अधिकारियों के वेतन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिन कई बार यह अधिकारियों के लिए वास्तव में दंड के जैसा होता है, जो उनके निजी जीवन को बाधित करता है और उनके कैरियर पर भी प्रतिकूल असर डालता है, जिससे अधिकारियों को अपने पूरे कैरियर के दौरान राज्य सरकार की लाइन पर चलने के लिए एक मजबूत प्रोत्साहन मिलता है.
भारत सरकार के लिए काम करना
कोई भी अधिकारी जो किसी राज्य सरकार को नौ साल तक सेवाएं दे चुका हो, वह अपनी राज्य सरकारों के माध्यम से केंद्रीय कर्मचारी योजना के तहत निदेशक और उससे ऊपर के स्तर पर नियुक्ति के लिए केंद्र में आने की इच्छा दर्शा सकता है. फिर उनके नामों को एक समग्र ‘ऑफर लिस्ट’ में रखा जाता है जिसके माध्यम से केंद्र रिक्त पदों के लिए अधिकारियों को चुन सकता है.
केंद्र सरकार के लिए संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के स्तर पर काम करने के लिए सबसे पहले केंद्र द्वारा अधिकारी को सूचीबद्ध किया जाना अनिवार्य है. यह प्रक्रिया, जिसकी अक्सर पारदर्शिता की कमी के लिए आलोचना होती है, केवल कुछ ही आईएएस अधिकारियों को केंद्र में वरिष्ठ पदों पर पोस्टिंग के योग्य बनाती है.
हाल में रिटायर एक आईएएस अधिकारी ने कहा, ‘केंद्र 16 साल की सेवा के बाद एक अधिकारी को सूचीबद्ध करता है. लेकिन ऐसा करने में यह मूलत: सभी गैर-सूचीबद्ध अधिकारियों के राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर काम करने का प्रोत्साहन छीन लेता है. बाकी रह गए सभी अधिकारियों के लिए राज्य सरकार के प्रति वफादारी उनके कैरियर की प्रगति का एकमात्र रास्ता बन जाती है.’
अधिकारी ने कहा कि उदाहरण के तौर पर बंद्योपाध्याय को केंद्र द्वारा सूचीबद्ध नहीं किया गया था.
पैनल में सूचीबद्ध होने के बाद केंद्रीय प्रतिनियुक्ति की वास्तविक प्रक्रिया की बारी आती है. एआईएस नियमावली, 1951 के मुताबिक, किसी कैडर अधिकारी को राज्य, केंद्र और संबंधित अधिकारी के बीच परामर्श प्रक्रिया के माध्यम से केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए उपलब्ध कराया जा सकता है. यद्यपि इसमें तीनों की भागीदारी होती है, लेकिन केंद्र और राज्य के बीच विवाद की स्थिति में केंद्र की राय को तरजीह मिलती है.
सेवानिवृत्ति के बाद पोस्टिंग का वादा
यदि राज्य प्रतिकूल पोस्टिंग और तबादलों की धमकी के जरिये अधिकारियों की वफादारी हासिल कर सकते हैं, तो केंद्र सरकार सेवानिवृत्ति के बाद की पोस्टिंग के आकर्षण के साथ ऐसा कर सकती है.
आईएएस अधिकारियों के सेवा विस्तार की शक्ति विशेष रूप से केंद्र के पास निहित है. यहां तक कि अगर किसी राज्य में नियुक्त मुख्य सचिव को सेवा विस्तार दिया जाना है तो इसके लिए केंद्र सरकार की तरफ से राज्य सरकार को अनुमति मिली होनी चाहिए, जैसा कि बंद्योपाध्याय (जिन्हें मई में विस्तार मिला) के मामले में हुआ था.
यही वजह है कि केंद्र सरकार अक्सर उन अधिकारियों का सेवा विस्तार कर देती है जिन्हें वह उनकी सेवानिवृत्ति के बाद बनाए रखना चाहती है, जबकि राज्य इसके बजाये उन्हें मुख्यमंत्री कार्यालय में सलाहकार के रूप में नियुक्त करते हैं जो एआईएस नियमों के दायरे में नहीं आता. फिर से, बंद्योपाध्याय के मामले में यही हुआ है, जिन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया. (उन्होंने सेवा विस्तार नहीं लिया).
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दंड देना और ‘अनुशासित’ रखना
चूंकि निर्धारित लकीर पर न चलने के कारण एआईएस अधिकारियों का राजनीतिक उत्पीड़न होना आम बात है, इसलिए उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही संबंधी नियम बहुत सावधानी से तैयार किए गए हैं.
यदि कोई अधिकारी किसी राज्य में तैनात है, तो केवल राज्य सरकार ही उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू कर सकती है और उन्हें निलंबित भी कर सकती है. केंद्र सरकार किसी राज्य में तैनात अधिकारी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू नहीं कर सकती.
हालांकि, 2015 में केंद्र सरकार ने अखिल भारतीय सेवा नियमावली में संशोधन किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी अधिकारी केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना एक सप्ताह से अधिक समय तक निलंबित न रहे.
लेकिन यदि कोई अधिकारी केंद्र में तैनात है, तो उनके खिलाफ केंद्र सरकार की पहल पर शुरू होने वाली अनुशासनात्मक कार्यवाही में उनके कैडर राज्य का कोई दखल नहीं हो सकता. उदाहरण के तौर पर केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर आए किसी आईएएस अधिकारी को कदाचार के मामले उसके कैडर राज्य की सरकार की मंजूरी के बिना केंद्र द्वारा अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किया जा सकता है. केंद्र को किसी अधिकारी पर चार्जशीट करने से पहले यूपीएससी से परामर्श लेना होता है.
हालांकि, अधिकारियों को वास्तव में दंडित करना उन्हें मिले संवैधानिक संरक्षण के कारण मुश्किल है, और इस मामले में शक्तियां स्पष्ट तौर पर केंद्र के पास निहित हैं, वास्तव में दंडित या पुरस्कृत करना अधिकारियों को प्रभावित करने वाले कदमों जैसे ट्रांसफर, प्रभावी डिमोशन, अहम पोस्टिंग, सेवा विस्तार और सेवानिवृत्ति के बाद के असाइनमेंट के तौर पर होता है.
परंपरा बनाम नियम
अधिकारियों का कहना है कि, इस तथ्य को देखते हुए कि सभी आईएएस और आईपीएस अधिकारियों में से एक-तिहाई से भी कम को केंद्र सरकार को सेवाएं देने या इसे चुनने का विकल्प मिलता है, यह राज्य ही हैं जो उनका कैरियर ग्राफ निर्धारित करते हैं. इस तथ्य के बावजूद कि नियमों के तहत केंद्र के अधिकार हावी रहते है.
इसके अलावा, विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र में निहित शक्तियों के बावजूद परंपरा का सम्मान करते हुए ही संघीय ढांचे के मुताबिक अधिकारों के बंटवारे को सहज बना रखा गया है.
पूर्व आईएएस अधिकारी टी.आर. रघुनंदन कहते हैं, ‘उदाहरण के तौर पर केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जो नियम कहते हैं और जो प्रक्रिया परंपरागत रूप से अपनाई जाती रही है, उसमें अंतर है.’
उन्होंने कहा, ‘ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मुख्य सचिव जैसी वरिष्ठता वाले किसी अधिकारी को राज्य और उक्त अधिकारी की सहमति के बिना जबरन केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर आने के लिए कहा जाए.’
ऊपर उद्धृत अपना नाम न बताने वाले सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी ने तर्क दिया परंपरा और मानदंडों के मुताबिक राज्यों को अहम डी-फैक्टो अधिकारी मिले हुए हैं, जैसा कि बंद्योपाध्याय के मामले में नजर आता है. यदि राज्य के आचरण से केंद्र नाराज है तो परंपरा को दरकिनार कर अधिकारियों पर अपने अधिकारों का दावा कर सकता है.
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