बेगूसराय/अरवल/पटना: यादव, चंद्रवंशी, पासवान और एक ब्राह्मण पुजारी, गांव के मंदिर के बाहर एक खाट पर बैठे घंटों से खेल रहे थे लेकिन जैसे ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रस्तावित जाति जनगणना का ज़िक्र आता है, माहौल में तनाव हो जाता है. बातचीत और भाई-चारे में टूट पैदा हो जाती है. ब्राह्मण पुजारी बेढंगे तरीक़े से खेल छोड़कर चला जाता है.
एक 50 वर्षीय यादव किसान प्रदीप कुमार कहता है, ‘वो (ब्राह्मण) इतना ग़रीब है कि कल के खाने की भी कोई गारंटी नहीं है’. वो बताता है कि किस तरह जाति जनगणना नई चिंताओं को उभार सकती है, और पुरानी जातिगत रेखाओं को गहरा कर सकती है. कुमार कहते हैं, ‘लेकिन जाति व्यवस्था के आधार पर उसे लगता है कि वो हम सब से श्रेष्ठ है’.
इधर नीतीश कुमार सरकार नोडल अधिकारियों की नियुक्ति कर रही है, नियम बना रही है, और प्रदेश-व्यापी जाति जनगणना के लिए अधिसूचना जारी करने में लगी है, उधर जाति जनगणना के एक मेगा अभियान की ख़बर बिहार के हर कोने में पहुंच गई है. हर जाति समूह अब जनगणना को भावी नौकरियों और राजनीतिक शक्ति के चश्मे से देख रहा है- कुछ को फायदा होगा, कुछ को डर है कि इस दुस्साहसी अभियान में उन्हें नुक़सान उठाना होगा, जिसे बहुत से लोग मंडल 2.0 कह रहे हैं. आरक्षण कोटे की पुनर्गठना ने इस सामाजिक बेचैनी बढ़ा दी है, आरक्षण कोटे का हिसाब जाति समूहों की नई आबादी के आधार पर लगाया जाएगा. पिछली बार ये जाति जनगणना कभी 1931 में की गई थी.
जाति जनगणना की चर्चा से वो आवाज़ें भी सतह पर आ रही हैं, जिन्होंने हमेशा ख़ुद को उपेक्षित महसूस किया है, हालांकि बिहार तीन दशकों से अधिक समय तक ऐसे मुख्यमंत्रियों के शासन में रहा, जिनका ताल्लुक़ पिछड़े समुदाय से रहा है.
42 वर्षीय त्रिवेणी राम जो एक छोटे किसान है, उत्साह से कहते हैं, ‘ये बहुत लंबे समय से अपेक्षित था. आरजेडी को यादवों की पार्टी के तौर पर देखा जाता है, और जेडीयू को कुर्मियों की. जाति जनगणना बहुत ज़रूरी है. हमें पता होना चाहिए कि कहारों की संख्या कितनी है’.
लेकिन ऊंची जाति के भूमिहारों के लिए असुरक्षा की भावनाओं को छिपाना मुश्किल है, जो इसे 90 के दशक के बाद अपने वर्चस्व पर ‘राजनीतिक हमले’ की दूसरी लहर के रूप में देखते हैं.
‘बस यही कसर बची थी’, ये जवाब था बेगूसराय ज़िले के राजौरा गांव के भूमिहार 61 वर्षीय वरुण राय का.वो कहते हैं, ‘अब सरकार कुछ ख़ास जातियों का उपकार करने की योजना बनाएगी, और उन लोगों का भी जो संख्या में ज़्यादा हैं’.
एक सामाजिक थर्मामीटर
राजनीतिक विशेषज्ञ प्रस्तावित क़वायद को एक थर्मामीटर बता रहे हैं, जो सही आंकड़ों के आधार पर असमानताओं और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को ठीक करेगा.
राजनीतिक विश्लेषक और सीएसडीएस में प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, ‘ये बेचैनियां और आकांक्षाएं उन सही आंकड़ों से प्रमाणित होंगी, जो इस जनगणना में सामने आएंगे’.
वो आगे कहते हैं, ‘फिलहाल ये आंकड़े अस्पष्ट शब्दावली में छिपे हुए हैं. अगर आपको बुख़ार है तो डॉक्टर को आपके शरीर के सही तापमान का पता लगाना होता है. इसलिए आपको ठीक करने के लिए एक थर्मामीटर की ज़रूरत होती है. जाति जनगणना उसी तरह का काम करेगी’.
दि हिंदू में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, नौ सामाजिक संगठन बिहार में एक अभियान शुरू करने जा रहे हैं, ताकि जाति जनगणना को सबसे ‘तर्कसंगत ढंग’ से अंजाम दिया जा सके, जिसमें सभी स्तरों पर जनसंख्या-वार प्रतिनिधित्व और भागीदारी पर फोकस किया जा सके.
बिहार के इस प्रयोग में इस मुद्दे पर राजनीतिक विखंडन को भी ध्यान में रखा गया है. क्षेत्रीय पार्टियां इसे चाहती हैं, एक राष्ट्रीय दल की प्रदेश इकाई इसे चाहती है, लेकिन केंद्र जाति जनगणना नहीं करा सकता. बीजेपी और मोदी के लिए बिहार एक कठिन राज्य रहा है. 2014 के बाद से भारत की राजनीति हिंदी भाषी सूबों,काउ बेल्ट से उठने वाली लहरों पर सवार रही है, लेकिन पार्टी बिहार पर पूरी तरह कब्ज़ा नहीं कर पाई है, और वो दोयम दर्जे की भूमिका में ही बनी हुई है. इसलिए हो सकता है कि बीजेपी इस राज्य के लिए एक अलग तरीक़ा अपना रही हो.
आम धारणा के विपरीत, कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) नीतीश कुमार के अप्रत्याशित ऐलान के पूरे समर्थन में नहीं है, पार्टी नेता और बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने कहा है कि वो इस क़वायद का ‘आक्रामक रूप से समर्थन’ कर रहे हैं. बीजेपी दोहरी चाल चलती हुई प्रतीत हो रही है- एक बिहार के लिए और एक केंद्र में मोदी सरकार के लिए.
बिहार बीजेपी को एक संकेत दे सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर इसे कैसे किया जाए. फिलहाल वो एक प्रयोगशाला है.
सुशील मोदी कहते हैं, ‘हमने दो बार अपने प्रतिनिधियों को एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में सीएम नीतीश के साथ पीएम मोदी से मिलने के लिए भेजा. इसी तरह, झारखंड बीजेपी अध्यक्ष दीपक प्रकाश भी जाति जनगणना के लिए झारखंड के एक प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे. बीजेपी को लॉजिस्टिक्स तथा प्रक्रियाओं को लेकर कुछ समस्या थी, लेकिन वो कभी भी जाति जनगणना के खिलाफ नहीं थी’.
17 वर्ष से अधिक सत्ता से बाहर रहने के बाद, सिवाए उन लगभग 20 महीनों के जो 2015-17 के बीच नीतीश कुमार के साथ थे, लालू प्रसाद यादव की आरजेडी को मजबूरी में अपने मुख्य वोट बैंक, पिछड़ों से समझौता किए बग़ैर एक अधिक अनुकूल रुख़ अपनाना पड़ा है. उसका नया नज़रिया अब उसके बयानों में दिखने लगा है.
उन लोगों की आशंकाओं को दूर करते हुए, जिन्हें चिंता है कि जाति जनगणना से उनकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत पर बुरा असर पड़ेगा, आरजेडी नेता मनोज के झा कहते हैं, ‘किसी भी जाति समूह को कोई डर नहीं होना चाहिए. हम धार्मिक आकड़े भी जुटाते हैं लेकिन सांप्रदायिक दंगों के लिए क्या हम उस डेटा को दोषी ठहरा सकते हैं? जाति जनगणना का अर्थ जातिगत बंटवारा नहीं होता, लेकिन ये वैज्ञानिक आंकड़े एकत्र करने के लिए एक अभियान है, जिसके आधार पर सरकार तय कर सकती है कि किन जाति समूहों को अधिक तवज्जो चाहिए, और किस जाति के उप-वर्गीकरण की ज़रूरत है’.
वो आगे कहते हैं, ‘ये आंकड़े समाज में बेहतर संतुलन बनाने की ख़ातिर नीतियां बनाने में सरकार का मार्गदर्शन करेंगे’.
मंडल आयोग की सिफारिशों ने हिंदी पट्टी की राजनीति में परिवर्तनकारी तरीके से बदलाव किए हैं, और जिन राजनीतिक दलों ने उनसे फायदा उठाया था, वो अब पहले ही अपने आपको एक संभावित बदलाव की स्थिति में ला रहे हैं. इससे पहले कि बिहार की जाति जनगणना कोई बदलाव ले आए. नीतीश कुमार के जनता दल (युनाइटेड) की गठबंधन साझीदार, बीजेपी की बिहार इकाई ने मुख्यमंत्री के फैसले की हिमायत की है, लेकिन संसद में बीजेपी ने जाति जनगणना का विरोध किया है. आरजेडी भी राज्य में जाति जनगणना की मांग को लेकर आगे आगे रही है. लेकिन ये एक ऐसी कठिन राजनीतिक परिस्थिति है जो बहुत से मौजूदा सामाजिक और आर्थिक गणित को गड़बड़ा सकती है. साथ ही ये एक ऐसी चीज़ भी है जिसका कोई भी पार्टी विरोध करते हुए नहीं दिखना सहन नहीं कर सकती.
अमल की चुनौती
हालांकि मंडल के दिनों को तीन दशक हो गए हैं, लेकिन उसके बाद भारत में जो हिंसा फैली, वो सामूहिक याद से धूमिल नहीं हुई है. अगर कुछ है तो ये कि मोदी सरकार की अग्निपथ स्कीम का हालिया विरोध एक संकेत है, कि युवा लोग बड़े-बड़े सुधारों से विरक्त और सतर्क हो चुके हैं.
इस क़वायद को अंजाम देने वाली नोडल एजेंसी बिहार सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) के अनुसार, इतने विशाल, जटिल, और विवादास्पद कार्य को अंजाम देने के लिए, राज्य के पास पर्याप्त कार्यबल और मानव संसाधन हैं. इस प्रक्रिया को डिजिटल माध्यम से बिहार रूरल लाइवलीहुड्स प्रमोशन सोसाइटी- जिसे जीविका भी कहा जाता है, और स्कूल अध्यापकों, मनरेगा श्रमिकों, तथा आंगनवाड़ी स्टाफ द्वारा किया जाएगा.
जीएडी के एक अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘उन लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी, जो ग़लत जानकारी देंगे या जानकारी साझा करने से इनकार करेंगे. हमने देखा है कि मंडल आंदोलन के दौरान तब व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे यंत्र नहीं थे, लेकिन फिर भी लोग सड़कों पर उतर आए थे. हाल के दिनों में बहुत से विरोध प्रदर्शनों ने हिंसक रूप इख़्तियार किया है, इसलिए हमें ऐसे तत्वों के लिए नियम तय करने होंगे जो प्रक्रिया को बाधित करेंगे’.
मंडल 2.0?
अरवल ज़िले में सोनवर्सा टोले के एक और छोटे किसान, 55 वर्षीय फतेह पासवान का कहना था कि अगर मंडल राजनीति और लालू प्रसाद यादव ने बहुत से पिछड़े और अति-पिछड़े समूहों को एक ‘आत्म-सम्मान’ की भावना दी, तो नई जनगणना उस प्रक्रिया को और आगे ले जाएगी- मूर्त से अधिक ठोस फायदों की ओर.
इस बार, बहुत से मुसलमानों को भी उम्मीद है कि जाति जनगणना में उनकी भी गिनती की जाएगी. बेगूसराय ज़िले की राजापुरा पंचायत के वॉर्ड सदस्य अहमद हुसैन, उस ‘अल्पसंख्यक लेबल’ का ज़िक्र करते हैं, जो उनके समुदाय के लोगों में एक ‘मनोवैज्ञानिक डर’ पैदा करता है, और उम्मीद करते हैं कि जनगणना से एक बढ़ी हुई संख्या सामने आएगी, जो इस लेबल को हटा देगी.
इन ज़मीनों के मालिक भूमिहार हैं जिनका दूसरी जातियों के साथ सीधा टकराव है. 90 के दशक की अधिकतर बड़ी जातिगत लड़ाइयों का संबंध भी ज़मीन से ही था. इसलिए, जाति जनगणना जो सामाजिक-आर्थिक स्टडी लेकर आएगी, भूमिहारों को डर है कि उससे उन्हें नुक़सान होगा.
प्रस्तावित जाति जनगणना को लेकर भूमिहार सबसे अधिक मुखर हैं. बिहार में वो बीजेपी के संक्रमणकालीन मतदाता भी हैं. ओबीसी तथा अन्य वर्ग जेडी(यू), आरजेडी, एलजेपी आदि के साथ हैं. और बीजेपी ने इस जाति समूह को शांत नहीं किया है. उन्हें लगता है कि मौजूदा नेताओं में दृढ़ विश्वास और वाक-पटुता की कमी है, और यही कारण है कि पिछड़ों की प्रधानता वाली पार्टियों में उनकी भावनाएं कुचली जाती हैं.
अरवल में 5,000 की आबादी वाले एक भूमिहार-बहुल गांव अय्यारा ने, बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट दिया है. लेकिन उसकी भी अपनी आशंकाएं हैं. युवा पीढ़ी ने पटना और दिल्ली जैसे शहरों का रुख़ कर लिया है. पुरानी पीढ़ी के लोग जिनके पास ज़मीनें हैं, वो या तो खेती की ज़मीन पट्टे पर दे देते हैं या फिर पास के टोलों से निचली जाति के लोगों को काम पर रख लेते हैं. 1990 के दशक में बहुत से जातिगत संघर्षों के पीछे ज़मीन ही वजह रही है.
जहां बुज़ुर्ग लोग मंडल आंदोलन को कोस रहे थे, वहीं एक बीजेपी समर्थक 40 वर्षीय दीपक कुमार को लगता है कि इससे हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक की जगह जातिगत राजनीति ले लेगी: ‘हम जाति जनगणना के खिलाफ हैं. जाति जनगणना का मतलब होगा कि राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती रहेगी. फिलहाल, राजनीति को हिंदू-मुस्लिम नज़रिए से चलाया जाता है’.
73 वर्षीय उमेश्वर सिंह ने भी इसी तरह की भावनाएं व्यक्त कीं, ‘इस जाति-आधारित गिनती में हमें नुक़सान ही होना है, संख्या के इस खेल में हमे कोई फायदा नहीं होना है’.
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