चंडीगढ़: पंजाब में इस साल फसल के सीजन में 10 लाख हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि में पराली जलाई गई, क्योंकि किसानों को अपनी अगली फसल बोने से पहले लाखों टन धान की पराली को नष्ट करना था.
गेहूं के भूसे की तरह धान के अवशेष को चारे के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें सिलिका की मात्रा अधिक होती है. और चूंकि धान की कटाई के बाद किसानों के पास गेहूं की बुवाई के लिए अपने खेत तैयार करने के लिए 25 दिन से भी कम का समय बचता है, इसलिए वे इस अवशेष को जला देने का सहारा लेते हैं.
हर साल अक्टूबर-नवंबर में फसल कटने के दौरान लगभग 2 करोड़ मीट्रिक टन धान की पराली का उत्पादन होता है. 2020 में पंजाब में धान की खेती के तहत कुल रकबा 31.49 लाख हेक्टेयर था.
इस सीजन में 15 नवंबर तक पराली जलाने की कुल 67,165 घटनाएं सामने आई हैं जबकि पिछले साल इसी अवधि में यह आंकड़ा लगभग 74,000 था. पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव क्रुनेश गर्ग ने बताया, ‘इस सीजन (10 नवंबर तक) में पराली जलाने वाला कुल क्षेत्र पिछले साल के 15.44 लाख हेक्टेयर से घटकर 10.34 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है.’
भारत और पंजाब की सरकारों ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान खेत में पराली जलाने की घटनाओं पर काबू पाने के लिए करोड़ों खर्च किए हैं, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद मामूली सफलता ही मिल पाई है. दिप्रिंट आपको यहां इसकी वजह बता रहा है.
धान की पराली के प्रबंधन के लिए अपनाए जाने वाले तमाम तरीकों को मोटे तौर पर एक्स-सीटू और इन-सीटू में बांटा जा सकता है. एक्स-सीटू उपाय खेत के बाहर पुआल के उपयोग से संबंधित होते हैं, जबकि इन-सीटू तरीकों से खेत में पुआल का निपटान करना शामिल है.
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1- एक्स-सीटू: बॉयोमास पावर प्लांट
बिजली उत्पादन में धान की पराली का उपयोग करने के उद्देश्य से पंजाब ने 2005 में बॉयोमास बिजली संयंत्र स्थापित करना शुरू किया. लेकिन 16 वर्षों में ऐसे केवल 11 संयंत्र ही स्थापित किए जा सके हैं ये मात्र 100 मेगावाट बिजली का उत्पादन करते हैं और सालभर में बमुश्किल 10 लाख टन धान की पराली का इस्तेमाल कर पाते हैं.
पंजाब एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी (पेडा) के सीईओ नवजोत सिंह रंधावा ने कहा, ‘बॉयोमास बिजली संयंत्र महंगी बिजली का उत्पादन कर रहे हैं जिसे वितरण कंपनियां खरीदने के लिए तैयार नहीं हैं. इसलिए, अधिक परियोजनाएं लगाने में किसी तरह की रुचि नहीं दिखाई जा रही है. पिछले साल, हमने केंद्र को पत्र लिखकर ऐसी परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए 5 करोड़ रुपये प्रति मेगावाट की दर से व्यवहार्यता अंतर फंड देने को कहा था. लेकिन इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है.’
बॉयोमास पावर प्लांट्स एसोसिएशन, पंजाब के प्रमुख पवनप्रीत सिंह ने कहा, ‘हरित ऊर्जा के उत्पादन की प्रक्रिया हमेशा अधिक महंगी होती है. धान के भूसे के मामले में खरीद, परिवहन और भंडारण पर अतिरिक्त लागत आती है. सबसे प्रभावी समाधान अधिक बिजली संयंत्रों की स्थापना करना है, लेकिन सरकार का पूरा प्रयास धान की पराली के प्रबंधन के लिए किसानों को मशीनरी बेचने पर रहा है. सरकार को खेतों में पराली जलाने की घटनाओं को कम करने में बॉयोमास बिजली संयंत्र स्थापित करने के प्रभाव का आकलन करने के लिए एक अध्ययन करना चाहिए.’
ईंटें/गुटके
धान के पुआल से ईंटें और लकड़ी गुटके भी तैयार किए जाते हैं, जिसका उपयोग औद्योगिक बॉयलरों और ईंट-भट्ठों में ईंधन के रूप में किया जा सकता है.
पंजाब में धान की पराली से ईंटे बनाने वाले दो प्लांट हैं. संयुक्त रूप से उनकी उत्पादन क्षमता 124 टन प्रतिदिन (टीपीडी) है और उनमें केवल 44,000 मीट्रिक टन धान की पराली इस्तेमाल होती है.
पंजाब स्टेट काउंसिल फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वरिष्ठ इंजीनियर प्रितपाल सिंह ने कहा, ‘धान की पुआल से ईंटें-गुटके बनाने की इकाइयों को स्थापित करने की काफी गुंजाइश है. लेकिन फसल की कटाई के बाद 20 दिनों की छोटी-सी अवधि में खेतों से पुआल की खरीद एक बड़ी चुनौती है. सीधे तौर पर पुआल की तुलना में गुटकों का भंडारण आसान है और उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है.’
पेडा और पंजाब स्टेट पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (पीएसपीसीएल) ने दो 100 टीपीडी पैडी स्ट्रॉ पेलेटाइजेशन टॉरफाइड प्लांट यानी धान की पराली से गुटके बनाने वाले प्लांट के लिए टेंडर जारी किए हैं. पीएसपीसीएल के अतिरिक्त मुख्य सचिव और अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक ए. वेणुप्रसाद ने कहा, ‘इन्हें हमारे बठिंडा और रोपड़ स्थित थर्मल प्लांट में स्थापित किया जाना है और उत्पादित गुटकों को कोयले के साथ जलाने के लिए उपयोग किया जाएगा.’
कंप्रेस्ड गैस और इथेनॉल
गर्ग ने कहा कि पंजाब 229.35 टीपीडी की कुल क्षमता के साथ 22 कम्प्रेस्ड बॉयोमास गैस परियोजनाएं स्थापित कर रहा है, जिसमें 8 लाख मीट्रिक टन पुआल की खपत होगी. इनमें से पहला अगले महीने चालू होने की संभावना है, जबकि दो और निर्माणाधीन हैं.
एचपीसीएल बठिंडा में प्रतिदिन 100 किलोलीटर इथेनॉल का उत्पादन करने की क्षमता के साथ दूसरी पीढ़ी का बॉयोएथेनॉल संयंत्र भी स्थापित कर रहा है, लेकिन इसका निर्माण निर्धारित समय से पीछे चल रहा है. इस परियोजना में लगभग 2 लाख टन धान की पराली का उपयोग किया जाना है.
औद्योगिक बॉयलर
अगस्त में पंजाब सरकार ने धान के पुआल से चलने वाले बॉयलर स्थापित करने के लिए 25 करोड़ रुपये के वित्तीय प्रोत्साहन की घोषणा की थी, जिसकी सीमा 50 लाख रुपये प्रति यूनिट थी. नए बॉयलर में ईंधन के तौर पर धान के पुआल का उपयोग करना आवश्यक है.
पंजाब में 4,000 बॉयलर में से केवल छह अभी ईंधन के तौर पर धान के भूसे का उपयोग करते हैं, जिसमें सालाना करीब 5 लाख टन की खपत होती है.
चीमा बॉयलर्स के मार्केटिंग हेड तेजिंदर सिंह का कहना है, ‘कई और उद्योग धान की पराली को ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे क्योंकि लंबे समय में यह सस्ता साबित होता है. लेकिन शुरुआत में सरकार को इन इकाइयों की मदद करनी चाहिए. 50 लाख का प्रोत्साहन बेहद कम है.’
उन्होंने कहा, ‘धान का पुआल ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने की आरंभिक लागत अधिक होती है क्योंकि इसमें बॉयलरों के डिजाइन में बदलाव और पुआल की गांठों के साल भर भंडारण की जरूरत पड़ती है. साथ ही, संग्रह करके रखे गए धान के पुआल में आग लगने की आशंका भी बनी रहती है, क्योंकि यह जरा-सी भी चूक होने पर आग पकड़ लेता है.’
अगर सभी एक्स-सीटू उपायों को साथ जोड़ लें तो इससे संसाधित होने वाली धान की पराली की कुल मात्रा 15 लाख टन से थोड़ी-बहुत ज्यादा होती है—जो पंजाब में उत्पन्न होने वाली पराली का महज 0.3 प्रतिशत है.
पंजाब राज्य किसान आयोग के सदस्य सचिव बी.एस. सिद्धू कहते हैं कि बड़े पैमाने पर एक्स-सीटू उपायों को अपनाने के लिए लाखों टन पराली का संग्रह, परिवहन और भंडारण संभव नहीं है. उन्होंने कहा, ‘10 लाख टन धान के भूसे के भंडारण के लिए लगभग 2,500 हेक्टेयर की जरूरत होगी. साथ ही, पराली को हटाने से पौधों में आवश्यक पोषक तत्वों और मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की कमी होती है. केवल खेतों के अंदर प्रबंधन के उपाय यानी इन-सीटू तरीके ही टिकाऊ, लाभदायक और व्यावहारिक हैं.’
2-इन-सीटू
सबसे आम इन-सीटू तरीका है पुआल को काटना और इसे खेत में फैलाना या विशेष उपकरणों की मदद से इसे मिट्टी में नीचे दबाना. एक और तरीका यह है कि इसे जैव रासायनिक उपायों से संसाधित किया जाए, ताकि जहां हैं वहीं पर डिकंपोज हो जाए.
कृषि मशीनरी
सरकार का मुख्य फोकस धान की पराली के प्रबंधन के लिए जरूरी मशीनें किसानों को रियायती दरों पर बेचने पर रहा है.
भारत सरकार पूरी सब्सिडी राशि देती है और 2018 में योजना शुरू होने के बाद से पंजाब ने 1,100 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. किसी किसान को व्यक्तिगत स्तर पर फसल अवशेष प्रबंधन (सीआरएम) मशीन लेने पर कुल लागत पर 50 प्रतिशत की सब्सिडी मिलती है, जबकि किसी ग्राम सहकारी समिति या किसानों के समूह को 80 प्रतिशत सब्सिडी मिलती है.
पंजाब में संयुक्त निदेशक, कृषि जगदीश सिंह कहते हैं, ‘अब तक किसानों को 86,000 से अधिक सीआरएम मशीनें बेची जा चुकी हैं. अनुमानित तौर पर इन मशीनों से एक करोड़ टन धान की भूसी और 14 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के प्रबंधन की सुविधा मिलनी चाहिए.’
लेकिन ये मशीनें खरीदना किसानों की पहली पसंद नहीं है. सिद्धू ने कहा, ‘सब्सिडी के बावजूद सीआरएम मशीनरी महंगी हैं. मिट्टी की गुणवत्ता और कौन सी फसल (गेहूं या सब्जियां) बोई जानी है, इसके आधार पर 1,800 रुपये से 3,400 रुपये प्रति एकड़ अतिरिक्त लागत आती है. ऐसे में सब्सिडी के साथ किसानों को नकद प्रोत्साहन देना आवश्यक है.’
कई चरणों की होती है प्रक्रिया
किसान आमतौर पर धान के खेत की कटाई के लिए कंबाइन हार्वेस्टर का उपयोग करते हैं, जिसे वे किराए पर लेते हैं. कंबाइन में नीचे का कुछ भूसा और अवशेष मिट्टी में ही छूट जाते हैं. इसी पराली को अगली फसल के लिए खेत तैयार करते समय जला दिया जाता है—इस प्रक्रिया में एक ही चरण होता है.
इसके विपरीत, यदि यह अवशेष जलाया नहीं जाना है तो सीआरएम मशीनों के उपयोग के साथ कई चरणों की प्रक्रिया अपनाने की जरूरत पड़ती है. प्रति किसान इन मशीनों की कीमत औसतन 1.5 से 2 लाख रुपये है. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू), लुधियाना में प्रिंसिपल एक्सटेंशन साइंटिस्ट डॉ. महेश नारंग कहते हैं, ‘सबसे पहले एक सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस) को कंबाइन से जोड़ा जाता है. कटाई के दौरान एसएमएस से धान कटता है और सूखा भूसा खेत में अलग हो जाता है. एसएमएस से बाकी पराली संसाधित नहीं हो पाती है. एक एसएमएस की कीमत 1.10 लाख रुपये होती है.’
नारंग ने बताया, ‘गेहूं की बुवाई हैपी सीडर या सुपर सीडर का उपयोग करके की जाती है, जो दोनों धान के भूसे को इसके आगे प्रॉसेस करते हैं. एक हैपी सीडर की कीमत 1.6 से 1.7 लाख रुपये है जबकि सुपर सीडर की कीमत 2 लाख रुपये 2.4 लाख रुपये के बीच होती है.
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अतिरिक्त लागत
किसानों ने कहा कि सरकार की तरफ से बेची जाने वाली सीआरएम मशीनें महंगी हैं. दो एसएमएस मशीनें खरीदने वाले अजनाला के एक किसान सुक्खा सिंह ने कहा, ‘बाजार में एक एसएमएस 35,000 रुपये में उपलब्ध है. लेकिन मैंने 50 प्रतिशत सब्सिडी के बाद 55,000 रुपये का भुगतान किया.’
सिद्धू ने कहा, ‘सब्सिडी पर बेची जाने वाली मशीनें अधिक महंगी हैं क्योंकि ये केंद्र सरकार आपूर्तिकर्ताओं से सीमित संख्या में खरीदती हैं और वे बिक्री के बाद बेहतर सेवाएं देने का दावा करते हैं.’
लागत की इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने कस्टम हायरिंग सेंटर (सीएचसी) या कृषि मशीनरी बैंक शुरू किए, जो ये मशीनें किराये पर देते हैं. लेकिन यह कदम भी बहुत कम सफल रहा है.
सिद्धू ने कहा, ‘ऐसा इसलिए क्योंकि सीआरएम मशीनरी का उपयोग केवल धान की कटाई के मौसम के दौरान किया जाता है, जो दो महीने तक चलता है. सीएचसी चलाने वालों के लिए केवल इन मशीनों को रखना फायदेमंद व्यवसाय नहीं है.’
किसानों ने यह भी बताया कि डीजल के ऊंची दामों के कारण इस सीजन में एसएमएस का भी व्यापक रूप से इस्तेमाल नहीं किया गया. वेरका, अमृतसर के एक किसान अमरीक सिंह ने कहा, ‘एक कंबाइन में एसएमएस जोड़े जाने से डीजल की खपत दोगुनी हो जाती है. एक कंबाइन को किराये पर लेने की लागत 1,200 रुपये प्रति एकड़ है और एक एसएमएस के साथ यह बढ़कर 1,500 रुपये हो जाती है.’
नकद प्रोत्साहन ठप पड़ा
2019 में सुप्रीम कोर्ट ने किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए प्रोत्साहित करने संबंधी दिशा-निर्देश किए थे. इसके बाद पंजाब ने धान की पराली नहीं जलाने वाले छोटे और सीमांत किसानों को प्रति एकड़ 2,500 रुपये देने का फैसला किया.
इसके तहत 2019 में 31,000 किसानों को 20 करोड़ रुपये बांटे गए, लेकिन उसके बाद से अब तक कोई भुगतान नहीं किया गया है. पंजाब के कृषि विकास अधिकारी जयदीप सिंह ने बताया, ‘उसके बाद कोई भुगतान नहीं किया गया क्योंकि इसके लिए कोई बजट नहीं था. इस साल, हमें 40 करोड़ रुपये दिए गए हैं, लेकिन इसे अभी तक बांटा नहीं गया है.’
पंजाब के वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल ने कहा, ‘राज्यों में पहले से ही नकदी की भारी कमी है. केंद्र सरकार को धान की पराली नहीं जलाने वाले किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में प्रोत्साहन राशि जोड़नी चाहिए.’
बॉयोकेमिकल पहल
धान की पराली को खेतों में ही गलाकर खत्म करने के लिए जैव रसायन का इस्तेमाल करने के प्रयास भी जारी हैं.
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) की तरफ से विकसित अपनी तरह का पहला फंगल कॉकटेल डिकंपोजर और पीएयू में तैयार इसी तरह के एक उत्पाद का पिछले साल परीक्षण किया गया था ताकि यह पता लगाया जा सके कि ये कितने उपयुक्त हैं.
पीएयू में माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. जी.एस. कोचर ने बताया कि किसी भी डिकंपोजर ने अपेक्षित नतीजे नहीं दिए. उन्होंने बताया, ‘धान का अवशेष गलने में लगने वाला समय लगभग उतना ही था जितना कि इस को अपने आप खत्म होने में लगता. इसलिए हमने दोनों में से किसी की भी सिफारिश नहीं की.’ साथ ही जोड़ा कि पीएयू बेहतर डिकंपोजर विकसित करने पर काम कर रहा था.
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