शाहजहांपुर, 28 अगस्त (भाषा) 1990 के दशक तक कालीन उद्योग को लेकर खास पहचान रखने वाले शाहजहांपुर में कालीन उद्योग खत्म होने के कगार पर है। महंगे कच्चे माल और सुविधाओं एवं प्रशिक्षण की कमी की वजह से जिले में गिनी-चुनी इकाइयां रह गई हैं।
शाहजहांपुर के इफ्तेकार उल्ला ने बताया कि कभी यहां हर गली-कूचे के घरों में कालीन बनाने वाली इकाइयां होती थीं, जिनमें पूरे परिवार के लोग काम करते थे। जिस घर में जितने अधिक लूम होते, उस परिवार का उतना ही अधिक मान-सम्मान होता था।
तारीन बहादुरगंज मोहल्ले में कालीन उद्योग का सबसे बड़ा काम हाजी नियामत उल्ला शफीउल्लाह की इकाई में होता था और आज शहर में इन्हीं के परिवार की दुकान बची है, जहां अच्छी गुणवत्ता की कालीनें उपलब्ध हैं।
शाहजहांपुर के एस एस महाविद्यालय के इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. विकास खुराना ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया कि शाहजहांपुर शहर 1647 में बसा और इसी दौरान यहां अफगानी कबीले के लोग आए और फारसी कालीन बनाने का काम करने लगे।
उन्होंने कहा कि इसी बीच 1881 में हुस्सन खान नाम के एक डकैत ने जेल में पाश्चात्य शैली की कालीन बनाने का हुनर सीख लिया और रिहा होने के बाद अपने घर पर लूम लगाकर लोगों को कालीन बनाने की कला सिखाने लगा।
डॉ. खुराना के मुताबिक, हुस्सन ने कालीन बनाने की जो परंपरा शुरू की, उसके तहत मात्र 16, 25 एवं 36 गांठ की कालीन बनती थी, जो अधिक आकर्षक होती थी और उसमें लाल और सफेद रंग का ही अधिक इस्तेमाल किया जाता था।
‘द जागरफर’ किताब में भी इसका जिक्र किया गया है। किताब के मुताबिक, 1990 में 14 साल तक के बच्चे कालीन उद्योग में काम करते थे और उन्हें पांच रुपये प्रतिदिन का मेहनताना मिलता था।
किताब के अनुसार, शाहजहांपुर में कालीन की 500 बड़ी और 2,500 छोटी इकाइयां थीं। वर्ष 1921 में यहां से विदेश में कालीन का निर्यात होता था।
लंबे समय से कालीन उद्योग से जुड़े प्रदीप पांडे ने बताया कि कोविड-19 महामारी के दौरान कालीन उद्योग काफी प्रभावित हुआ और कच्चा माल महंगा होने के कारण कारीगरों के लिए कालीन बनाना व्यवहारिक नहीं रह गया।
जिला उद्योग केंद्र के उपायुक्त अनुराग यादव ने कहा कि अगर जिले के बेरोजगार लोग कालीन उद्योग में प्रशिक्षण लेना चाहें तो वह शासन से पत्राचार करके कालीन उद्योग के प्रशिक्षण के लिए भी एक इकाई की व्यवस्था करवाएंगे।
भाषा
सं राजेंद्र
अर्पणा पारुल
पारुल
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