नई दिल्ली: बिना विवाह के साथ रहने के विकल्प का मतलब यह नहीं है कि विवाहित लोग अपनी शादी के रहते लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए स्वतंत्र हैं, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह एक व्यक्ति की रिट याचिका को खारिज करते हुए यह बात कही जो चाहता था कि उसके लिव-इन पार्टनर को उसके माता-पिता की हिरासत से रिहा किया जाए.
न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और बी.वी.एल.एन. चक्रवर्ती की खंडपीठ एक व्यक्ति की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने दावा किया था कि उसकी साथी, जो कानून की नजर में बालिग है, को उसके माता-पिता ने अवैध रूप से कैद किया हुआ था.
बंदी प्रत्यक्षीकरण किसी को अवैध तरीके से नजरबंद या कैद किए जाने के मामले में कानूनी रूप से उपलब्ध एक हथियार है. जिसके तहत अदालत निर्देश देती है कि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को उनके सामने लाया जाए.
याचिका को खारिज करते हुए, अदालत ने कहा कि वह याचिकाकर्ता के अनुरोध को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं है क्योंकि वह अभी भी शादीशुदा है और ऐसा आदेश “वैध कानूनी ढांचे का उल्लंघन” होगा.
अदालत ने अपने आदेश में कहा, “बिना विवाह के साथ रहने के अधिकार को बालिग होने पर विवाह के बिना रहने के अधिकार के रूप में समझा जाना चाहिए. वे एक-दूसरे से शादी करने के लिए बाध्य नहीं हैं. लेकिन, इसका मतलब विवाह जारी रहने के दौरान, विवाहेत्तर, दूसरों के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहना नहीं है.”
अदालत ने याचिकाकर्ता के इस दावे में भी कोई दम नहीं पाया कि “यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी के मौलिक अधिकार के उल्लंघन का मामला है, या उसके पार्टनर के पिता, जो मामले में प्रतिवादी है, द्वारा किसी अवैध कैद करने का मामला है”.
अदालत ने याचिका खारिज करते हुए कहा, “अदालत में किसी व्यक्ति को पेश करने के लिए हैबियस कॉर्पस या बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट को नियमित तरीके से या रूटीन के तौर पर जारी नहीं किया जा सकता है. इसके लिए उचित आधार दिखाए जाने की जरूरत होती है. हालांकि यह अधिकार का रिट है, लेकिन यह निश्चित रूप से रिट नहीं है,”
यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक समान फैसला सुनाया है, जिसमें विवाहित व्यक्तियों के एक और समूह पर जुर्माना लगाया गया है, जिन्होंने लिव-इन रिलेशनशिप के लिए पुलिस सुरक्षा मांगी थी. उस अदालत ने भी इसे कानूनी ढांचे का “उल्लंघन” करने के प्रयास के रूप में देखा.
‘लीगल फ्रेमवर्क से बाहर’
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में अपने साथी के साथ रहने के अपने संवैधानिक अधिकार का हवाला दिया था. उन्होंने यह भी दावा किया कि इस साल 27 जुलाई को, उनके साथी के पिता और लगभग 20 लोग कुछ मौखिक दुर्व्यवहार के बाद उसे जबरन ले गए थे.
उन्होंने आरोप लगाया कि उसके साथी को उसके माता-पिता ने अवैध रूप से हिरासत में रखा है. याचिकाकर्ता ने यह भी दावा किया था कि उसने तलाक के लिए अर्जी दी है.
हालांकि, अदालत ने उनकी दलीलों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता का अभी तक तलाक नहीं हुआ है और कानून द्वारा मान्यता प्राप्त विवाह में रहते हुए, कोई भी लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए सुरक्षा का दावा नहीं कर सकता है.
अदालत ने अपने रुख का समर्थन करने के लिए किरण रावत और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2020 के फैसले पर भरोसा किया. उस मामले में, याचिकाकर्ता, जो लिव-इन रिलेशनशिप में थे, ने दावा किया कि उन्हें स्थानीय पुलिस द्वारा परेशान किया जा रहा था और अदालत से सुरक्षा की मांग की.
हालांकि, इलाहाबाद HC ने इस आधार पर हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था कि जोड़े की शादी नहीं हुई थी.
“वर्तमान मामले में, जैसा कि रिट याचिका में खुलासा किया गया है, याचिकाकर्ता पहले से ही एक अन्य महिला से विवाहित है. विवाह अस्तित्व में है…रिट याचिका दायर करना हमें याचिकाकर्ता के अवैध कार्य पर इस न्यायालय की मुहर और हस्ताक्षर करने के लिए अपनाई गई एक युक्ति प्रतीत होती है, जो उसकी शादी के वैध कानूनी ढांचे का उल्लंघन करती है,” आंध्र हाईकोर्ट ने कहा पिछले सप्ताह इसके आदेश में यह भी कहा गया था कि वह रिट को लागू करने और अपने साथी को “ऐसे बेबुनियाद आरोपों पर और कानूनी ढांचे से बाहर” जनता के सामने “बेनकाब” करने के लिए इच्छुक नहीं है.
(अक्षत जैन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के छात्र हैं और दिप्रिंट में इंटर्न हैं)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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