scorecardresearch
Friday, 20 December, 2024
होमदेशभारत में ब्रेस्ट मिल्क की बिक्री बढ़ी- यह डेयरी प्रोडक्ट है या आयुर्वेद?

भारत में ब्रेस्ट मिल्क की बिक्री बढ़ी- यह डेयरी प्रोडक्ट है या आयुर्वेद?

बेंगलुरु और मोहाली में दो कंपनियों ने मां के दूध के उत्पादन और बिक्री के काम को तेजी से बढ़ाया है. लेकिन यह बिना एक नियामक व्यवस्था और बिना किसी नैतिक बहस के हो रहा है.

Text Size:

जरा, एक 15 मिलीलीटर की बोतल के बारे में सोचिए. आपके जहन में आई ड्रॉप की एक छोटी सी शीशी या फिर आस-पास की दुकानों में आमतौर पर मिलने वाले शैंपू के पाउच घूमने लग जाएंगे. अब हम आपसे कहें कि इस तरह की शियों और पाउच में नवजात शिशुओं के लिए बिना फ्रीजर में रखे मां का दूध भी बेचा जा रहा है! थोड़ी हैरानी तो होगी, मगर सच यही है.

भारत की चाइल्डकैअर इंडस्ट्री में एक नया प्रोडक्ट तेजी से अपनी जगह बना रहा है और इस बार उनका दावा है कि वे शिशुओं के लिए फॉर्मूला नहीं बेच रहे हैं. उनका ये ‘जादुई उत्पाद’ मां का दूध है. भले ही इसे कैसे रेगुलेट और कैटिगराइज किया जाए, इस पर कोई स्पष्ट कानून न हो और इसे लेकर उठने वाले नैतिक सवालों का कोई जवाब न हो? फिर भी इसकी बिक्री बढ़ रही है.

मुनाफे के लिए दो निजी कंपनियां पेटेंट तकनीक के साथ एक उत्पाद के तौर पर ब्रेस्ट मिल्क की प्रोसेसिंग और बिक्री करने में लगीं हैं. लेकिन इस प्रोडेक्ट से जुड़ी इंडस्ट्री और सेक्टर आज भी सरकार द्वारा गैर-नियमित है.

बेंगलुरु की कंपनी नियोलैक्टा लाइफसाइंसेस प्राइवेट लिमिटेड ने 2016 में मां का दूध बेचना शुरू किया था. कंपनी दावा करती है कि यह दूध ब्रेस्टफीड कराने वाली महिलाओं ने अपनी मर्जी से दान में दिया है. कितना अजीब है ना! कंपनी उसी दूध को पाश्चराइज करके दूसरे नवजात शिशुओं के माता-पिता को ऊंची कीमत पर बेच रही है. कंपनी पाउडर के रूप में ह्यूमन मिल्क फोर्टीफायर भी पेश कर रही है. इसे मां के दूध में मिलाया जाता है. शायद ऐसा प्रोजेक्ट दुनिया में पहली बार आया है.

मोहाली स्थित नेस्लाक बायोसाइंसेज प्राइवेट लिमिटेड, 2021 में लॉन्च हुई थी. कंपनी मदर मिल्क को वापस दूसरी माओं को ज्यादा कीमत पर बेचने से पहले उसे पाउडर में बदलने का काम करती है. कंपनी का दावा है कि उसके पास दूध की गुणवत्ता जांचने की तकनीक है और यह अस्पतालों को डोनर मिल्क बैंक स्थापित करने में मदद करता है.

दोनों कंपनियां दूध के पोषक तत्वों को बनाए रखने का दावा करती हैं और समय से पहले पैदा होने वाले बच्चों यानी प्रीमेच्योर बेबी के लिए ह्यूमन मिल्क के महत्वपूर्ण सर्विस प्रोवाइडर के रूप में खुद को स्थापित कर रही हैं.

लेकिन उनका इनोवेटिव बिजनेस मॉडल शिक्षाविदों, सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं और हाल ही में केंद्र सरकार के निशाने पर आ गया है.

कार्यकर्ताओं ने चिंता व्यक्त की है. उन्होंने गरीबों के शोषण, ग्रामीण महिलाओं को स्तनपान कराने और फिर उनके दूध को संपन्न शहरी परिवारों को बेचने के पीछे की नैतिकता पर सवाल उठाया है. कुछ डॉक्टरों का कहना है कि कंपनियां ह्यूमन मिल्क को बढ़ावा देने का दावा करती हैं, जबकि इनफेंट मिल्क सब्स्टीट्यूट एक्ट के अनुसार, वे जो उत्पाद बेच रहे हैं, वो साफतौर पर फॉर्मुला की कैटेगरी के अंदर आता है.

हालांकि, सरकारी विभागों के अंदर इस बात पर कोई सहमति नहीं है कि मानव दूध को कैसे कैटगराइज किया जाए और कौन इसे रेगुलेट करेगा. इतने कंफ्यूजन के बावजूद, नियोलैक्टा और नैस्लेक दोनों भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) से लाइसेंस पाने में सफल हो गए. जिसे इस साल क्रमशः अप्रैल और सितंबर में रद्द कर दिया गया था. नियोलैक्टा ने अपने उत्पादों को ‘आयुर्वेदिक दवाओं’ के रूप में बेचने के लिए कर्नाटक के आयुष विभाग से भी लाइसेंस प्राप्त किया हुआ था. जब टाइम्स ऑफ इंडिया में इसे लेकर एक रिपोर्ट छपी तो आयुष मंत्रालय के कान खड़े हुए और फिर उसने इस मामले में हस्तक्षेप कर सितंबर में उनका लाइसेंस रद्द कर दिया.

दिप्रिंट से बात करते हुए नियोलैक्टा ने बताया कि वो विश्व स्तर पर मान्य अनुकूलित उच्चतम नैतिक मानकों का पालन करके अपने बिजनेस को वैध तरीके से चला रहे हैं. दिप्रिंट ने नेस्लाक से भी संपर्क करने की कोशिश की थी, लेकिन प्रयास विफल रहा.

ह्युमन मिल्क के संग्रह, प्रोसेसिंग और बिक्री के विवादास्पद मुद्दे पर एक लंबी लड़ाई चलता आ रही है. सितंबर में नियोलैक्टा ने अपने आयुष लाइसेंस को रद्द करने के खिलाफ कर्नाटक हाई कोर्ट का रुख कर लिया.

कई गैर सरकारी संगठन भी मानव दूध के व्यवसायीकरण के खिलाफ हैं. वे अब इस मामले में हस्तक्षेप करने की योजना बना रहे हैं. उधर एफएसएसएआई भी नियोलैक्टा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने पर विचार कर रहा है.

नियोलैक्टा ने अभी के लिए स्टे ऑर्डर प्राप्त कर लिया है और इसकी दूध की बोतलें और पाउच बाजार में वापस आ गए हैं. नैस्लेक की वेबसाइट चल रही है और कंपनी का स्टेटस कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के साथ बना हुआ है.


यह भी पढ़ेंः कौन थी 2 साल की बच्ची, ‘रेप फिर हत्या’, दिल्ली के नाले में मिली थी लाश, 7 महीने बाद भी रहस्य बरकरार 


मांग पैदा करना

2016 में, जब नियोलैक्टा ने अपने ‘सौ प्रतिशत मानव दूध से बने उत्पादों’ के साथ भारतीय इन्फेंट फीडिंग मार्केट में प्रवेश किया, तो उसके लिए यह संभावनाओं से भरा एक क्षेत्र था, जहां अभी तक किसी कंपनी ने कदम नहीं रखा था.

दुनिया भर में जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या में सबसे आगे होने के अलावा भारत समय से पहले जन्मे बच्चों के मामले में भी अग्रणी बना हुआ है. प्रीमेच्योर बेबी- यानी, गर्भावस्था के 37 सप्ताह से पहले पैदा हुए बच्चे (गर्भावस्था लगभग 40 सप्ताह तक चलती है) होते हैं. देश में हर साल पैदा होने वाले 27 मिलियन बच्चों में से 3.5 मिलियन बच्चे प्रीमेच्योर होते हैं.

प्रीटर्म इन्फेंट बच्चों की देखभाल करने वाले डॉक्टर बताते हैं कि ज्यादातर महिलाओं के शरीर में अपने शिशुओं के लिए पर्याप्त दूध बनता हैं. कंगारू मदर केयर जैसे आसान तरीके, जहां बच्चे को मां अपने शरीर से चिपका कर बार-बार स्तनपान कराती है, काफी प्रभावी साबित हुए हैं. लेकिन जब मां का दूध उपलब्ध नहीं होता है या फिर शिशु के लिए पर्याप्त दूध नहीं उतरता तो डोनर का दूध सबसे अच्छा विकल्प बन जाता है.

लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज में नियोनेटोलॉजी विभाग की निदेशक, प्रोफेसर और प्रमुख डॉ सुषमा नांगिया ने कहा, ‘यह फॉर्मूला या दूध के अन्य विकल्पों से थोड़ा बेहतर है.’

भारत में 110 में से लगभग 90 दूध बैंक सरकारी अस्पतालों या मेडिकल कॉलेजों में हैं. बाकी 20 प्राइवेट अस्पतालों में चल रहे हैं. इन बैंकों को अपना दूध दान करने वाली महिलाओं को किसी भी तरह का कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है. तो वहीं इन बैंकों के जरिए शिशुओं के लिए दूध खरीदने वाले माता-पिता दूध की प्रोसेसिंग या जांच के लिए मामूली शुल्क का भुगतान करते हैं.

लेकिन ये डोनर मिल्क बैंक संख्या में कम हैं. डिमांड और सप्लाई के बीच खासा अंतर है. इंडियन पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित 2019 के एक पेपर ने 22 डोनर मिल्क बैंकों का सर्वे किया और पाया कि इनमें से 10 बैंक मांग और आपूर्ति के बीच के अंतर का सामना कर रहे थे.

ह्यूमन मिल्क बैंकिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एचएमबीएआई) के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. सतीश तिवारी ने कहा कि जब डोनर ह्यूमन मिल्क उपलब्ध नहीं होता है, तो अस्पतालों को कभी-कभी शिशुओं को जानवरों का दूध या फॉर्मूला दूध देना पड़ता है.

नियोलैक्टा इस अंतर को पाटने के लिए खुद को एक सर्विस प्रोवाइडर के रूप में देखता है.

नियोलैक्टा लाइफसाइंसेस के देश महाप्रबंधक सुनील कुमार कहते हैं, ‘एनआईसीयू (नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट) में लगभग 30 से 50 प्रतिशत बच्चों को डोनर ह्यूमन मिल्क की जरूरत होती है. अध्ययनों से पता चलता है कि प्रीमेच्योर बेबी की 51 प्रतिशत माओं के लैक्टोजेनेसिस में देरी हुई थी. मौजूदा 90 मिल्क बैंक पूरे देश के लिए पर्याप्त नहीं हैं.’

नियोलैक्टा के अनुमान के मुताबिक, भारत को 1,300 डोनर मिल्क बैंकों की जरूरत है. कुमार ने कहा, ‘नियोलैक्टा इस मौजूदा अंतर को पाटता है.’

हालांकि कंपनी महिलाओं से दान के रूप में मिले ब्रेस्ट मिल्क को इक्ट्ठा करती है, लेकिन यह खुद को डोनर मिल्क बैंक के रूप में वर्गीकृत नहीं करती है. यह अपने उत्पादों के लिए 17-स्टेप वैल्यू एडिशन की पेशकश करती है. इसमें ‘70 कैल्स/100 एमएल की न्यूनतम गारंटीड एनर्जी’ के साथ  पाश्चराइज ह्यूमन मिल्क के विभिन्न रूप हैं और पाउडर के रूप में मदर्स मिल्क फोर्टीफायर भी है. कुमार कहते हैं कि इन्हीं मानकों के चलते हमारे उत्पादों की कीमत बढ़ जाती है. कंपनी 15 एमएल दूध के लिए 450 रुपए और फोर्टीफायर के 5 एमएल के लिए 550 रुपए चार्ज करती है. डोनर मिल्क के लिए अंतरराष्ट्रीय दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए कंपनी का दावा है कि वह भारत में शिशुओं को बचाने के मिशन का हिस्सा है.

लेकिन नवजात शिशु की देखभाल पर काम कर रहे डॉक्टरों का कहना है कि नियोलैक्टा एक अच्छा मददगार नहीं है.

डॉक्टरों के मुताबिक, उनकी मार्केटिंग का तरीका दूध के विकल्प बेचने वाली कंपनियों के समान है. मसलन उनके विज्ञापनों का कंटेंट शिशुओं के आसपास ही होता है और वह मीडिया के जरिए इसका प्रचार करते हैं. उनके अनुसार, नियोलैक्टा अमीर , युवा जोड़ों को ध्यान में रखकर फॉर्मुला इंडस्ट्री के मॉडल की नकल कर रहा है.

डॉ अरुण गुप्ता ने कहा, ‘उन्होंने एक गैर जरूरी मांग पैदा की है. वे मां के मन में यह शक डाल रहे हैं कि उसका दूध उसके बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं है (गुणवत्ता और मात्रा के मामले में). जिस पल मां को अपने बारे में संदेह होता है, उसके शरीर में ऑक्सीटोसिन रिलीज हो जाता है. इसका मतलब है कि दूध तो है लेकिन निकल नहीं रहा है. इस तरह से वे बच्चों के लिए डोनर मिल्क की जरूरत पैदा कर रहे है.’डॉ गुप्ता, बाल रोग विशेषज्ञ और भारत के गैर-लाभकारी स्तनपान संवर्धन नेटवर्क के केंद्रीय समन्वयक हैं.

डॉ गुप्ता ने आगे कहा, माता-पिता को यह लगने लग जाता है कि बच्चे को संपूर्ण पोषण की जरूरत है और वह नियोलैक्टा के महंगे उत्पादों की ओर देखना शुरु कर देते हैं.

डॉ सतीश तिवारी उनकी बातों से सहमत हैं. उनके मुताबिक, लगभग 90 से 95 प्रतिशत महिलाओं के शरीर में डिलीवरी के बाद, पहले महीने में अपने बच्चे की जरूरत से ज्यादा दूध बनता हैं. भले ही बच्चा समय से पहले पैदा हुआ हो. वह कहते हैं, ‘यह महिलाओं का प्राकृतिक शरीर विज्ञान है. हमें ऐसी महिलाएं आसानी से मिल सकती हैं जो दूध डोनेट करने के लिए तैयार हों.’

उन्होंने ब्रेस्ट मिल्क बेचने वाली कंपनियों पर महिलाओं के लिए पक्षपातपूर्ण और गलत जानकारी फैलाने का आरोप लगाया. डॉ. तिवारी कहते हैं, ‘यहां तक कि पढ़ी-लिखी महिलाएं भी आसानी से गुमराह हो रही हैं. उनके शरीर में बच्चे के लिए पर्याप्त दूध नहीं बन पा रहा है, यह कहकर कंपनियां उन्हें आसानी से अपने झांसे में ले आती हैं.’

इनफेंट फीडिंग में नियोलैक्टा की भूमिका को सही ठहराते हुए सुनील कुमार ने दावा किया कि उनकी कंपनी ने मिल्क डोनर का परीक्षण और प्रोफाइल किया है. जिससे पता चला कि ‘भारतीय महिलाओं के दूध में सिर्फ 55 किलो कैलोरी होती है.’ जबकि एक प्रीमैच्योर बेबी को 70 किलो कैलोरी वाले दूध की जरूरत होती है.

उनका दावा है कि एक ‘यूनिक प्रोसेस’ के जरिए नियोलैक्टा पाश्चराइजेशन के दौरान मां के दूध में न्यूनतम 70 किलो कैलोरी जोड़ता है.

कुमार ने कहा, ‘अमेरिका के बाद हम एकमात्र ऐसी कंपनी हैं, जिसके पास मदर्स मिल्क फोर्टीफायर है. अमेरिका (कंपनी) के पास भी यह पाउडर के रूप में नहीं है. बच्चे की ग्रोथ और जिन बच्चों को जटिलताएं हैं, उनके लिए इसे मां के दूध में मिलाया जाता है.’

इन दावों को डॉ नांगिया ने निराधार बताया. उन्होंने तर्क देते हुए कहा कि वास्तव में,  पाश्चराइजेशन दूध में जीवित कोशिकाओं को मारता है, जिससे यह प्राकृतिक ब्रस्ट मिल्क से कमतर हो जाता है.

वह कहती हैं, ‘दूध जितना हो सके ताजा और बच्चे की मां का होना चाहिए. ये कंपनियां अलग-अलग महिलाओं के दूध को इकट्ठा कर रही हैं और इसे पाश्चराइज कर रही हैं, जो इसे किसी भी अन्य दूध की तरह बना देता है.’

डॉ. तिवारी ने बताया कि जब तक मां को एड्स, एचआईवी, हेपेटाइटिस बी जैसी बीमारियां न हों या गंभीर रूप से कुपोषित न हो, तब तक उसके दूध से बेहतर कुछ नहीं होता है.

विवाद खड़ा करना

नियोलैक्टा लाइफसाइंसेज को पहली बार नवंबर 2017 में एफएसएसएआई की तरफ से एक साल भारत में काम करने का लाइसेंस मिला था. एफएसएसएआई के डेटाबेस पर इसके आठ सूचीबद्ध उत्पादों में से चार का नाम ‘मदर मिल्क’ है. लेकिन लाइसेंस डेयरी की कैटेगरी के तहत दिया गया था. बाद में इसे 2018 में पांच साल के लिए रिन्यू किया गया.

इसी तरह, नैस्लेक को भी एक डेयरी उत्पादक कंपनी के रूप में वर्गीकृत किया गया था. लेकिन एफएसएसएआई के साथ सूचीबद्ध इसके 12 उत्पादों में से किसी में भी ‘मां के दूध’ का उल्लेख नहीं है.

कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के साथ, नियोलैक्टा एक डेयरी उत्पाद कंपनी और नैस्लेक एक रासायनिक उत्पाद निर्माता के रूप में पंजीकृत है. उन्होंने इस साल की शुरुआत में ही एफएसएसएआई का ध्यान खींचा था.

स्वास्थ्य मंत्रालय ने लोकसभा में कहा कि लेक्टेशन मैनेजमेंट केंद्रों पर राष्ट्रीय दिशानिर्देशों के अनुसार, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में डोनर ह्युमन मिल्क का इस्तेमाल व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए नहीं किया जा सकता है. फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड एक्ट 2006 मानव दूध के कमर्सियल प्रोसेसिंग या बिक्री को भी कवर नहीं करता है.

रिव्यु ऑफ इंटरनेशनल पोलिटिकल इकॉनोमी में 2020 में, ‘नर्चर कमोडिफाइड? एन इन्वेस्टिगेशन इनटू कमर्शियल ह्युमन मिल्क सप्लाई चैन’ शीर्ष से लेख प्रकाशित हुआ था. सुसान न्यूमैन और मिशल नाहमान द्वारा लिखे गए इस लेख में नियोलैक्टा के मॉडल का अध्ययन किया गया था. उन्होंने कंपनी के मालिकों और कर्मचारियों का इंटरव्यू लिया और पाया कि वैसे तो नियोलैक्टा अपने उत्पाद को सिर्फ प्रीमेच्योर बेबी के लिए प्रोजेक्ट करता है, लेकिन वह इसे समय से पैदा हुए बच्चों के माता-पिता और अस्पताल के बाहर भी बेचा रहा था.

पेपर में कहा गया है, ‘नियोलैक्टा अंतिम उपभोक्ता और मांगों की एक श्रृंखला के साथ ह्यूमन -मिल्क प्रोजेक्ट के लिए एक व्यापक बाजार विकसित कर रहा है और उसे संचालित कर रहा है.’

पेपर उन तरीकों पर भी सवाल उठाता है जिसमें नियोलैक्टा अपने मिल्क डोनर का स्तरीकरण और चित्रण करता है. मिल्क प्रोवाइडर का पहला समूह शहरी, शिक्षित, बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों या चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाली पेशेवर महिलाएं हैं. उन्हें नियोलैक्टा के सोशल मीडिया प्रचार पर चित्रित किया गया है.

लेखक ने नोट किया कि महिला डोनर का दूसरा समूह वे महिलाएं हैं जो बमुश्किल खुद का पेट भर पाती हैं. वह अकेले अपने शिशुओं के लिए पर्याप्त दूध की आपूर्ति करती हैं. इन महिलाओं को नकद और खाने के पैकेट के रूप में प्रोत्साहन की पेशकश की जाती है और उनका मेहनताना उनके द्वारा प्रदान किए जाने वाले दूध की मात्रा पर निर्भर करता है. लेख में कहा गया, ‘गरीब महिलाओं को दी जाने वाली कीमत बहुत कम है और इससे उनका शोषण बढ़ रहा है.’

पेपर नोट करता है, नियोलैक्टा एनजीओ के जरिए इन महिलाओं तक पहुंचता है, जो उन्हें विश्वास दिलाता है कि उनका दूध उनके बच्चों की जरूरत से ज्यादा है. एनजीओ उनसे ‘मिल्क डोनेशन’ करने के लिए इस आधार पर तैयार करता कि वे इसे उपहार (या दान) के रूप में दे रही हैं और ‘अपने बच्चों से परे दूसरी महिलाओं के बच्चों की मदद करना भी उनकी जिम्मेदारी बनती है.

इन कंपनियों ने डोनर मिल्क की कीमतें काफी ज्यादा रखी हुईं हैं. यह भी एक तरह का असंतुलन पैदा करता है. डॉक्टरों का कहना है कि गरीब महिलाओं से दूध इक्ट्ठा किया जाता है और उन माता-पिता को बेचा जाता है जो इसे ऊंचे दामों में खरीद सकते हैं.

लेकिन इन निष्कर्षों के बावजूद नवंबर 2021 में, आयुष विभाग, कर्नाटक ने नियोलैक्टा को अपनी नारिकशीरा (स्तन के दूध) की कैटेगरी के तहत 10 ‘आयुर्वेदिक दवाओं’ का उत्पादन करने का लाइसेंस दे दिया था.

न्यूमैन और नाहमान की रिपोर्ट को अधूरा बताते हुए कुमार कहते हैं कि उनके नेटवर्क की सभी महिला डोनर सहमति फॉर्म पर हस्ताक्षर करने के बाद अपनी मर्जी से इस काम के लिए तैयार होती हैं. सहमति फॉर्म उनकी समझ में आने वाली भाषा में होता है.

वह कहते हैं, ‘हम नियमित आधार पर (डोनर के) शिशुओं के वजन की निगरानी करते हैं. अगर उनके बच्चों का वजन कम हो जाता है, तो हम उन महिलाओं से दूध नहीं लेते हैं.’

उनका दावा है कि नियोलैक्टा के उत्पाद सिर्फ इन-पेशेंट अस्पताल सेटिंग्स में डॉक्टर के पर्चे पर उपलब्ध हैं. लेकिन मीडिया ऐसे कई उदाहरण सामने लाया हैं, जहां नियोलैक्टा के उत्पाद बिना प्रिस्क्रिप्शन के ऑनलाइन उपलब्ध थे. इस पर कुमार ने कहा कि उन्हें ‘कुछ वितरकों ने बिक्री के लिए रख दिया था.’ लेकिन अब उन्हें हटा लिया गया है.

वह कहते हैं, ‘आप अभी भी कुछ वितरकों को उन्हें बेचते पाएंगे. यह हमारे नियंत्रण से बाहर है.’


यह भी पढे़ं: बैकारेट गेम और 2 सप्ताह तक ‘सर्पेंट’ का पीछा- कैसे नेपाल के पत्रकार ने चार्ल्स शोभराज को पकड़ा


ह्यूमन मिल्क को कौन रेगुलेट करता है?

भारत में ब्रेस्ट मिल्क के संग्रह, बिक्री, प्रसंस्करण या वितरण को विनियमित करने के लिए कोई कानून नहीं है. 2017 में, स्वास्थ्य मंत्रालय ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में लेक्टेशन मैनेजमेंट के लिए दिशानिर्देश बनाए थे. हालांकि यह गाइडलाइन ह्युमन मिल्क की बिक्री पर रोक लगाती हैं, लेकिन इनका पालन करना कानूनी रूप से जरूरी नहीं है.

इनफेंट मिल्क सब्स्टिट्यूट, फीडिंग बोटल्स और इनफेंट फूड (उत्पादन, आपूर्ति और वितरण का विनियमन) अधिनियम 1992 भी प्रोसेस्ड ह्यूमन मिल्क के नियमन पर मौन है. वैसे, डॉ गुप्ता का तर्क है कि इन कंपनियों द्वारा बेचे जाने वाले उत्पाद मिल्क सब्सीट्यूट की परिभाषा में फिट बैठते हैं.

FSSAI ने लाइसेंस रद्द करते समय सभी क्षेत्रीय निदेशकों और खाद्य सुरक्षा आयुक्तों को चेतावनी दी कि वे ह्युमन मिल्क या उससे बनने वाले उत्पादों की प्रोसेसिंग करने वाली कंपनियों को लाइसेंस और पंजीकरण की अनुमति न दें.

FSSAI के पत्र में लिखा था, ‘बताया गया है कि ऐसे एफबीओ (फूड बिजनेस ऑपरेटर) ने या तो मानकीकृत खाद्य उत्पाद श्रेणियों जैसे ‘दूध’ या ‘डेयरी उत्पाद’ या फिर ‘शिशु दूध के विकल्प’ या ‘इन्फेंट फूड’ के तहत एफएसएसएआई लाइसेंस प्राप्त किया था. और विवरण का खुलासा किए बिना वह इस तरह के ह्यूमन मिल्क आधारित उत्पादों का निर्माण करने में लगे हुए थे.’

पत्र में कहा गया है कि शिशुओं से संबंधित कोई भी खाद्य पदार्थ एफएसएस (खाद्य और शिशु पोषण) विनियम 2020 के तहत निर्दिष्ट मानकों का पालन करते हुए बिक्री के लिए उपलब्ध कराया जाएगा, जो मां के दूध या मां के दूध से प्राप्त किसी भी उत्पाद को कवर नहीं करता है.

कुमार दावा करते हैं, ‘हमने साफतौर पर मदर मिल्क की एक कैटेगरी के रूप में आवेदन किया था. उन्होंने (FSSAI) हमें डेयरी के रूप में वर्गीकृत किया है.’

एफएसएसएआई के सीईओ एस गोपालकृष्णन कहते हैं, अगर एफएसएसएआई में किसी खास उत्पाद के लिए कोई कैटेगरी नहीं है, तो यह उसके नियामक दायरे में नहीं आती है.

गोपालकृष्णन ने कहा, ‘FSSAI के पास अपनी वेबसाइटों पर सभी उत्पादों के लिए मानक हैं. मानव दूध के लिए ऐसे कोई मानक नहीं हैं. अगर हमारे पास इसके लिए कोई मानक नहीं है, तो इसका मतलब है कि कोई भी इसे बाजार या स्टोर पर बेच नहीं सकता है.’

कुमार का दावा है कि कर्नाटक के आयुष विभाग ने नियोलैक्टा को लाइसेंस देने में 11 महीने का समय लिया और कर्मचारियों ने दो बार कंपनी का दौरा भी किया था. उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा, ‘फिर भी मंत्रालय ने बेवजह, गैर-जरूरी आधार पर लाइसेंस रद्द कर दिया.’

आयुष विभाग के पत्र में लिखा है, ‘’नारीशीरा’ के अंतर्गत आने वाले उत्पादों के संग्रह और बिक्री में मानवाधिकार, महिला अधिकार सहित कई नैतिक मुद्दे शामिल हैं, जो बेहद संवेदनशील हैं.’ पत्र में यह भी कहा गया कि नियोलैक्टा के उत्पाद ‘आयुर्वेदिक दवाओं’ की कैटेगरी में आने के योग्य नहीं थे और कंपनी ने नई दवाओं और क्लीनिकल ट्रायल नियमों 2019 का भी उल्लंघन किया है.

मेडिकल जर्नल ‘द लांसेट’ में कहा गया है कि ह्युमन मिल्क डोनर प्रोवाइडर कार्यक्रमों को निर्देशित करने के लिए वैश्विक नीतियां और मानक मौजूद नहीं हैं. मानव दूध को फूड, टिस्यू, दवा या नियामक उद्देश्यों के लिए संभावित वर्गीकरण के रूप में कैटेगराइज करने पर कोई सहमति नहीं है. इसी वजह से ह्युमन मिल्क बैंकों के आगे आने में बाधा आ रही है.

नियोलैक्टा इनके बिना ही काम कर रहा है.

न्यूमैन और नाहमान ने कहा, ‘नियोलैक्टा उस स्थिति का फायदा उठाता है जहां डोनर मिल्क को फूड, दवा या ह्यूमन टिश्यू के रूप में देखा जाता है. वह अपना बिजनेस चलाने के लिए जिस तरह से ह्यूमन मिल्क की मार्केटिंग और सोर्सिंग कर रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि वह नियामकों में मौजूद कमी का फायदा उठा रहा है.’

2017 में, नियोलैक्टा ने ऑस्ट्रेलिया के लिए एक्सपोर्ट लाइसेंस प्राप्त किया था. इसने यूके में एक अन्य कंपनी नियोकेयर भी खोली है.


यह भी पढ़ेंः नवंबर में महंगाई में गिरावट आई मगर कुछ बड़े राज्य इससे अछूते रहे


व्यवसायीकरण समस्या क्यों है?

अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में सिर्फ दो कंपनियां ह्युमन मिल्क और उससे बने उत्पादों को बेचती हैं.

2015 में एम्ब्रोसिया लैब्स नामक एक यूटा-बेस्ड कंपनी ने अमेरिका में कंबोडियाई महिलाओं से इक्ट्ठा किया ह्युमन मिल्क को बेचा था. जब इस बात का खुलासा हुआ तो कंबोडियाई सरकार ने स्थानीय बच्चों की पोषण संबंधी जरूरतों और शरीर के अंगों की तस्करी पर बने कानूनों का हवाला देते हुए कंपनी को ऐसा करने से रोक दिया था. बाद में यह कंपनी बंद हो गई थी.

रिसर्चर सारा स्टील और अन्य लोगों ने रॉयल सोसाइटी ऑफ मेडिसिन के जर्नल में एक पेपर में बताया कि ह्युमन मिल्क वयस्कों के बीच एक सनक के रूप में उभर रहा है. ब्रेस्ट मिल्क से बनी आइसक्रीम ब्रिटेन में बिक्री के लिए हैं और एक लॉलीपॉप कंपनी ब्रेस्ट मिल्क के स्वाद वाली मिठाई अमेरिका में बेचती है. फिटनेस को लेकर जरूरत से ज्यादा सजग रहने वाले लोग ब्रेस्ट मिल्क को एक ‘क्लीन’ सुपरफूड मानते हैं. कहा जाता है कि इसके बाकी फायदों के अलावा यह इरेक्टाइल डिसफंक्शन में सुधार लाने में मदद करता है.

डॉक्टरों का कहना है कि ह्युमन मिल्क पर मौजूदा रेगुलेटरी गैप के चलते एक बार फिर से इस बात को चर्चा में ले आया है कि – डोनर ह्यूमन मिल्क और इसका वितरण गैर-लाभकारी डोनर ह्यूमन मिल्क बैंकों के पास ही बने रहना चाहिए. वहां यह प्रीमेच्योर इंफेंट के दूध की मांगों को पूरा करता है.

डॉ नांगिया कहते हैं, ‘भले ही डोनर मिल्क बैंक मांग और आपूर्ति में आए अंतर को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं, फिर भी  व्यावसायीकरण इसका जवाब नहीं हो सकता है.’ वह आगे कहते हैं, ‘सरकार को और ज्यादा मिल्क बैंक खोलने की जरूरत है. प्राइवेट कंपनियां लोगों की मदद नहीं कर रही हैं. वे सिर्फ उन क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे हैं जहां उन्हें विकास की संभावना दिख रही है.

दुनिया भर के विशेषज्ञ इस मामले पर बहस करते रहे हैं. स्टील ने अपने 2021 के लेख में कहा था,  ‘इसके साथ कुछ मुश्किल सवाल भी जुड़े हैं. महिलाओं को रोजगार देना वास्तव में क्या उन्हें फायदे के लिए इस्तेमाल करना है, क्या हम भविष्य में इसी ओर जा रहे हैं? हम जिन महिलाओं से उनका ब्रेस्ट मिल्क ले रहे हैं क्या उनका भुगतान करने में सहज हैं, ठीक वैसे ही जैसे हम डेयरी गायों के साथ करते हैं? क्या दूध लेने का यह सिलसिला गरीबी वाले क्षेत्रों से समृद्ध क्षेत्रों की ओर जारी रहना चाहिए?’

(संपादनः हिना फ़ातिमा । अनुवादः संघप्रिया  मौर्या)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः मोदी सरकार ने अब तक COVID से निपटने में शानदार काम किया है, लेकिन तैयारी और सतर्कता अब अहम 


share & View comments