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Saturday, 4 May, 2024
होमदेशब्राह्मण, जाति-विरोधी, गोरक्षक- एक लेखिका जो हिंदुत्व और अंबेडकर के बीच है फंसी

ब्राह्मण, जाति-विरोधी, गोरक्षक- एक लेखिका जो हिंदुत्व और अंबेडकर के बीच है फंसी

यामिनी नारायणन की पुस्तक मदर काउ, मदर इंडिया में कहा गया है कि हिंसा डेयरी में अंतर्निहित होता है और वध दूध उत्पादन उद्योग का एक अनिवार्य हिस्सा है.

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नई दिल्ली: गायों के अधिकारों और जाति-विरोधी आंदोलन के बारे में आमतौर पर एक साथ बात नहीं की जाती हैं.

अपने किताब की लॉन्च इवेंट में और नई किताब मदर काउ, मदर इंडिया: ए मल्टीस्पीशीज पॉलिटिक्स ऑफ डेयरी इन इंडिया की लेखिका यामिनी नारायणन ने पूछा, “एक भारतीय ब्राह्मण के रूप में आप डेयरी क्षेत्र में कैसे हस्तक्षेप करते हैं?” इस पुस्तक को लिखने से पशु-अधिकार शोधकर्ता को अपनी जाति के बारे में भी बहुत सी बातें पता चली. ऐसे भारत में जहां गाय संरक्षणवाद को एक हिंदू राष्ट्रवादी परियोजना के रूप में प्रचारित किया जाता है- जो मुसलमानों, ईसाइयों और दलितों के खिलाफ जाती है, लेखिक ने कहा, “चीज़ों को लेकर लगातार व्यंग्यपूर्ण होने के कारण मुझे संघर्ष का सामना करना पड़ा.”

लेकिन जब गाय की पूजा करना राजनीतिक रूप से चरम पर है और इसको लेकर सतर्कता बढ़ रही है, तब भी इस जानवर के लिए सब कुछ ठीक नहीं है. नारायणन ने कहा, क्रूरता जारी है क्योंकि लोगों ने चतुराई से गायों के साथ चल रहे दुर्व्यवहार और निचली जाति समूहों के उत्पीड़न को एक साथ जोड़ दिया है.


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शाकाहारी निर्दोष नहीं

डेयरी उद्योग और गाय के उपभोक्ताकरण पर बात करते हुए, यह पुस्तक कई सामाजिक-सांस्कृतिक दोष रेखाओं पर प्रकाश डालती है. शाकाहारी भोजन करने वाले मांसाहारी की तुलना में निर्दोष नहीं है, और तथाकथित श्वेत क्रांति ऑक्सीटोसिन के दुरुपयोग और बछड़ों को दूध देने से इनकार करने के बाद, इससे जुड़ी बहुत सारी बातें छिपाई भी गई है. नारायणन ने कहा, जानवर को पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है और केवल अच्छे नस्ल वाले गाय को ही पवित्र माना जाता है – जो कि एक अन्य प्रकार की ‘जाति व्यवस्था’ को उजागर करती है. डेयरी उद्योग में भैंसों का प्रतिनिधित्व बहुत अधिक है और आश्चर्य की बात यह है कि गोहत्या के खिलाफ इसके आसपास कोई राजनीतिक आक्रोश नहीं है.

नारायणन के एथ्नोग्राफिक कार्य से पता चलता है कि डेयरी में हिंसा किस प्रकार सम्मिलित होती है और हत्या दूध उत्पादन उद्योग का एक अनिवार्य हिस्सा है. जिस दूध का हम उपभोग करते हैं, वह अक्सर थैलियों, पैकेटों और डिब्बों में असेंबली लाइन से आते हैं जहां गाय को हाइपरलैक्टेट किया जाता है. जहां बछड़े को मां से अलग कर दिया जाता है और दूध से वंचित कर दिया जाता है. यदि वह नर है, तो उसे अक्सर भूख से मार दिया जाता है और बछड़े के मांस को बेचने के लिए बाजारों में भेज दिया जाता है.

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लेकिन भारत में पूरी डेयरी प्रक्रिया को एक भावुक रंग दे दिया गया है, जिसमें इन जानवरों को मां के रूप में दिखाया गया है जो स्वेच्छा से हमें ये उपहार दे रही हैं.

नारायणन, जो ऑस्ट्रेलिया के डीकिन विश्वविद्यालय में भी पढ़ाते हैं, ने कहा, “आप जितने ज्यादा पवित्र हैं, उतने ही ज्यादा असुरक्षित हैं.”

उन्होंने यह भी कहा कि भारत में पशु अधिकार आंदोलन को जिस तरह से देखा जाता है, उसमें सम्मान और गंभीरता की कमी है. इसे मोटे तौर पर एक कुलीन, निरर्थक, “छिपे हुए” आंदोलन के रूप में माना जाता है जैसा कि जल्लीकट्टू और तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शनों ने दिखाया है.

इस बीच, चमड़ा उद्योग लगभग पूरी तरह से दलितों और मुसलमानों पर निर्भर है, जो सारा कठिन काम करते हैं – चमड़ी और टैनिंग का काम, जिस पर सामग्री का उत्पादन निर्भर करता है. लोकप्रिय राजनीतिक पौराणिक कथाओं में, गोमांस को इस्लाम से और डेयरी को हिंदू धर्म से जोड़ा गया है. प्रवचन का ढांचा, गाय माता, भारत माता कहती है, हिंदू नागरिक-बच्चे और माता-गौ-राष्ट्र के बीच का बंधन है.

पशु अधिकार

जाति-विरोधी प्रकाशक नवायन द्वारा प्रकाशित पुस्तक में व्यापक आह्वान अंतर्संबंध के लिए और एक साथ काम करने के लिए असमान आंदोलनों के लिए था.

उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि पशु आंदोलन और जाति-विरोधी आंदोलन शायद एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. और हमें इस राजनीति को समझने की जरूरत है.”

और यही वह जगह है जहां हमारी कुछ प्रथाओं की गहरी जांच होती है.

फेडरेशन ऑफ इंडियन एनिमल प्रोटेक्शन ऑर्गेनाइजेशन के सीईओ भारती रामचंद्रन ने पूछा, “हम खाद्य सुरक्षा, आजीविका सुरक्षा, संपत्ति सुरक्षा को कैसे देखते हैं? हम इन्हें कैसे देखें और इन्हें अपने पशु अधिकारों का हिस्सा कैसे बनाएं?”

इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं था. वास्तव में, पशु सक्रियता स्वयं सीमित होकर उभरी है और वह लड़ाई लड़ने में असमर्थ है जो उसे लड़नी चाहिए. जानवरों और एलजीबीटीक्यूआईए+ अधिकारों के वकील-सह-कार्यकर्ता आलोक हिसारवाला गुप्ता ने कहा, “पशु अधिकार आंदोलन गौरक्षकों के साथ गुप्त रूप से जुड़ा हुआ है.” उन्होंने गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों की पीट-पीट कर की जाने वाली हत्याओं पर कार्यकर्ताओं की चुप्पी की ओर इशारा किया.

पुस्तक का असामान्य आधार और स्थिति – गोरक्षा, हिंसा की पूछताछ और अंबेडकरवादी राजनीति के बीच थी, जिसने आभासी कार्यक्रम में कई प्रतिभागियों को आकर्षित किया.

एक दर्शक सदस्य तारा ने कहा, “इस किताब ने वास्तव में मुझे भारत में कई चीजों के अंतर्संबंध को समझने में मदद की है. विशेष रूप से जब मैं इस बारे में सोचती हूं कि जानवरों के अधिकारों को कई मायनों में मानव अधिकारों के साथ कैसे जोड़ा गया है.”

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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