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Tuesday, 24 December, 2024
होमदेश‘रेत समाधि’ को बुकर पुरस्कार भारतीय भाषाओं की समृद्ध परम्परा को सम्मान : अशोक माहेश्वरी

‘रेत समाधि’ को बुकर पुरस्कार भारतीय भाषाओं की समृद्ध परम्परा को सम्मान : अशोक माहेश्वरी

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नयी दिल्ली, 29 मई (भाषा) हिन्दी की मशहूर उपन्यासकार और कवयित्री गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद को इस साल के बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। अमेरिका में पढ़ाने वाली और प्रसिद्ध अनुवादक डेजी रॉकवेल ने इस उपन्यास का ‘टूम ऑफ सैंड’ के नाम से अंग्रेजी में अनुवाद किया। इस पुरस्कार को हिन्दी साहित्य की दृष्टि से काफी अहम माना जा रहा है।

गीतांजलि श्री की पुस्तक ‘रेत समाधि’ के प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी से ‘‘भाषा के पांच सवाल’’ और उनके जवाब :

सवाल : गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार मिलना हिन्दी साहित्य के लिए कितना महत्वपूर्ण है ?

जवाब : मेरी राय में ‘रेत समाधि’ हिंदी उपन्यास की प्रचलित परम्परा से काफी हटकर है। यह अपने प्रयोगों से उस परम्परा में काफी कुछ जोड़ता है, उसका विस्तार करता है और इसमें अलग नवीनता है। हिन्दी साहित्य में पहले से अच्छी रचनाएं रही हैं लेकिन इस पुस्तक के बाद अब हिन्दी की तरफ दुनिया का ध्यान गया है। यह हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं की समृद्ध कथा-परम्परा का सम्मान है। बुकर पुरस्कार के बहाने हमारे श्रेष्ठ साहित्य की ओर दुनिया का ध्यान नए सिरे से गया है।

सवाल : यह बुकर पुरस्कार ‘रेत समाधि’ पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद को दिया गया है। ऐसे में इससे हिन्दी किताबों के अनुवाद को कितना प्रोत्साहन मिलेगा ?

जवाब : बुकर इंटरनेशनल द्वारा यह पुरस्कार किसी पुस्तक के अंग्रेजी अनुवाद को दिया जाता है जिसका प्रकाशन ब्रिटेन में हुआ हो। गीतांजलि श्री की पुस्तक को मिला यह सम्मान दक्षिण एशिया की किसी भाषा को मिला पहला पुरस्कार है। ऐसे में यह पुरस्कार सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं के लिये महत्वपूर्ण उपलब्धि है। अब अनेक लेखकों की कृतियों पर देश-दुनिया का ध्यान जा रहा है।

मुझे लगता है कि हिन्दी क्षेत्र बड़े और बड़बोलों का क्षेत्र नहीं रहा है। साहित्य एवं सामाजिक दृष्टि से भी देखें तो पारंपरिक तौर पर हिन्दी साहित्य में आत्म-प्रचार की बात नहीं रही। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे, लेकिन उन्होंने अपनी भाषा और परिवेश को ध्यान में रखकर ही काम किया।

प्रारंभ से ही हिन्दी साहित्य के दूसरी भाषाओं में अनुवाद पर जोर नहीं दिया गया, लेकिन दुनिया के समक्ष हिन्दी की विषयवस्तु एवं रचनाओं को पहुंचाने के लिये अब अनुवाद का रास्ता खुलेगा।

सवाल : फारसी, हिब्रू, स्पैनिश और फ्रेंच जैसी भाषाओं की पुस्तकों का दुनिया की विभिन्न भाषाओं में बहुतायत में अनुवाद उपलब्ध है, लेकिन हिन्दी के साथ ऐसी स्थिति नही है। इस पर आप क्या कहेंगे?

जवाब : यह सही है कि दुनिया में अनेक ऐसी भाषाएं हैं जिनके लेखकों की रचनाओं का दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुआ है और अभी भी हो रहा है। हिन्दी के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। गीतांजलि श्री को बुकर पुरस्कार मिलने के बाद हमारे पास अवसर है कि अपने लेखकों, रचनाओं को दुनिया के समक्ष ले जाएं। हमारे विश्वविद्यालयों में दुनिया की कई भाषाएं पढ़ायी जाती हैं, ऐसे में शैक्षणिक संस्थाओं के स्तर पर भी भारतीय भाषाओं एवं उनकी रचनाओं को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है।

सवाल : क्या आप समझते हैं कि देश में हिन्दी से जुड़ी संस्थाओं और सरकारी विभागों द्वारा हिन्दी साहित्य को प्रोत्साहित करने में योगदान पर्याप्त रहा है ?

जवाब : मेरा मानना है कि हिन्दी की संस्थाओं को हिन्दी भाषा के प्रोत्साहन के लिये जितना काम करना चाहिए था, उस दिशा में उन्होंने काम नहीं किया। प्रारंभ में देवनागरी एवं उससे जुड़े विषयों में कुछ काम हुआ, लेकिन बाद में इनका इस्तेमाल व्यक्तिगत लाभ के लिये किया जाने लगा और इन संस्थाओं को दिवालिया बना दिया गया। सरकार ने हिन्दी को बढ़ावा देने के लिये पैसा दिया, राजभाषा विभागों का गठन किया गया लेकिन इनसे जुड़े लोग निजी स्वार्थ में लग गए और कुछ लोग कुंठा का शिकाए हो गए। हिन्दी आज जहां तक पहुंची है, अपने दम पर, लेखकों की कृतियों एवं जनता के सहयोग से हुआ है।

सवाल : ‘रेत समाधि’ को इस महत्वपूर्ण पुरस्कार मिलने के बाद आप नयी पीढ़ी, पाठकों आदि को क्या कहना चाहेंगे ?

जवाब : मैं हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों, समीक्षकों और विश्लेषकों से यह कहना चाहता हूं कि हमें ऐसी कृतियों पर गौर करना चाहिए, उनके बारे में बातें करनी चाहिए और उनकी विशिष्टताओं को सामने लाना चाहिए जो लीक से हट कर हों। दरअसल, हमारे समाज में लेखक प्राय: संकोची होते हैं। अपने लेखन के बारे में खुद कहने से बचते हैं। दूसरी तरफ, एक पाठक और समीक्षक के रूप में हम अपने लेखकों के महत्व और योगदान के बारे में प्रायः तभी विचार करते हैं जब वे हमारे बीच नहीं रहते। लेखकों को भी अपनी कृत्तियों पर बात करने को लेकर संकोच नहीं करना चाहिए।

भाषा दीपक वैभव

वैभव

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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