नई दिल्ली: पहली नजर में सफेद पॉलिथीन में लिपटा मांस और शरीर के अंदर के अंगों के अवशेष किसी जानवर के लग रहे थे. लेकिन जब नजदीक से जांच की गई तो पता चला कि यह लाश किसी इंसान की है.
राष्ट्रीय राजधानी के रोहिणी जिले में कचरे डालने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे खाली जमीन के टुकड़े पर यह शव, ‘टाइटैनिक 100 पर्सेंट कॉटन’ ट्रेडमार्क वाले खून से लथपथ सफेद बनियान से ढका हुआ मिला था. आज एक साल बाद भी पीड़ित की पहचान एक रहस्य बनी हुई है.
पहली एफआईआर के मुताबिक, शव के बारे में सिर्फ इतना पता चल पाया कि उसकी पीठ के बाईं ओर एक काला तिल था और उसके शरीर के बालों को देखते हुए माना जा सकता है कि वह 20 से 40 की उम्र का कोई शख्स था. उसे अज्ञात शव (यूआईडीबी) के रूप में टैग किया गया है. उसके नाम, चेहरे, जीवन और उसकी मृत्यु तक की घटनाओं के कॉलम में अभी भी एक बड़ा खाली स्थान है.
इसी तरह करीब नौ महीने पहले, पूर्वी दिल्ली में झाड़ियों के बीच एक लावारिश लाश बरामद हुई थी. मृतक युवक करीब 25 साल का था. उसके बारे में और कुछ नहीं पता है, सिवाय इसके कि उसकी मौत किसी बाहरी चोट के लगने से हुई थी. शुरुआत में पुलिस को लगा कि यह दुर्घटनावश हुई मौत का मामला है. लेकिन ऑटोप्सी रिपोर्ट में कहा गया कि ‘चोट जानबूझकर पहुंचाई गई थी, जिसकी वजह से युवक की मौत हुई.’ यह मामला अभी तक अनसुलझा बना हुआ है.
दिप्रिंट द्वारा एक्सेस किए गए दिल्ली पुलिस के डेटा से पता चलता है कि इस साल दिल्ली में 30 नवंबर तक 465 हत्याएं दर्ज की गईं. इनमें से 14 मामलों में पीड़ितों की पहचान नहीं हो पाई है. ये सभी 14 मामले अनसुलझे हैं.
अनसुलझे हत्या के मामलों या लंबित जांच की कुल संख्या पर डेटा उपलब्ध नहीं है. पुलिस अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि जिन मामलों में हत्या के पीड़ित व्यक्ति की पहचान नहीं हो पाती है, वे सभी मामले अनट्रेसेबल रह जाते हैं.
दिल्ली पुलिस के सूत्रों ने कहा कि इस तरह के सबसे ज्यादा मामले रोहिणी और पूर्वी जिले से सामने आए हैं. इनमें से अधिकांश का गुमशुदा व्यक्तियों की शिकायत में भी नाम नहीं होता है.
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‘शव की पहचान के बाद ही मिलते हैं अहम सुराग’
2021 के एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, हत्या के मामलों में दिल्ली पुलिस की चार्जशीट दर 95.6 प्रतिशत है. इसका मतलब है कि दर्ज किए गए 459 हत्या के मामलों में से 438 मामलों में चार्जशीट दायर की गई, जबकि अन्य 21 जांच के दायरे में रहे.
वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि अगर परिस्थितिजन्य और प्रथम दृष्टया सबूत हिंसक मौत की ओर इशारा करते हैं, तो जांच अधिकारी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आने से पहले ही भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (हत्या) के तहत मामला दर्ज कर लेते हैं. अन्य मामलों में अगर ऑटोप्सी घाव, चोट आदि के कारण अप्राकृतिक मौत की ओर इशारा करती है, तो हत्या का मामला दर्ज किया जाता है.
एक पुलिस सूत्र ने बताया, ‘हत्या के अधिकांश मामले अनसुलझे रहते हैं, क्योंकि शव की पहचान नहीं हो पाती है. ऐसा इसलिए क्योंकि शव की शिनाख्त होने के बाद ही अहम सुराग मिले पाते हैं. लगभग इन सभी मामलों में गुमशुदगी की कोई शिकायत दर्ज नहीं की जाती है.’
लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है. इसके कुछ अपवाद भी है.
पिछले महीने दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा ने एक महिला और उसके बेटे को उसके पति की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया था. उस व्यक्ति के सड़े-गले शरीर के अंग जून में पाए गए थे. उसकी पहचान का कोई सुराग नहीं था और कोई लापता होने की शिकायत भी दर्ज नहीं की गई थी.
हालांकि, पुलिस ने घर-घर पूछताछ करने के बाद मामले को दिल्ली के पांडव नगर के एक घर तक पहुंचा दिया.
अज्ञात शवों की शिनाख्त
जोनल इंटीग्रेटेड पुलिस नेटवर्क (ज़िपनेट) वेबसाइट पर हजारों अज्ञात शवों की सूची है. इन सभी की हत्या नहीं हुई है. कुछ दुर्घटना के शिकार हैं जबकि कुछ की मौत स्वाभाविक कारणों से हुई थी.
आंकड़े बताते हैं कि 2018 से 2022 तक राष्ट्रीय राजधानी में रोजाना औसतन आठ शव मिले हैं. इनमें से महज 200-400 शवों की शिनाख्त हो पाती है. यूआईडीबी (हत्या नहीं) की अधिकतम संख्या रेलवे के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों और उत्तर और मध्य दिल्ली में पाई जाती है. पुलिस सूत्रों ने कहा, ऐसा इसलिए है क्योंकि दिल्ली में बड़ी संख्या में प्रवासी आ रहे हैं, जिनमें से कईयों के पास अपनी पहचान का कोई सबूत या आईडी नहीं होती है.
पुलिस ने कहा कि जांच टीम के लिए अज्ञात शवों की हत्या के मामलों में पीड़ित की पहचान एक बड़ी सफलता होती है, क्योंकि इससे संदिग्धों और उनके मकसद के महत्वपूर्ण सुराग मिल जाते हैं.
जब भी कोई एक अज्ञात शव मिलता है, तो पुलिस अपना काम शुरू कर देती है. पहला कदम होता है क्षेत्र की घेराबंदी, फोरेंसिक टीम को बुलाना, शव को पोस्टमार्टम के लिए भेजना और तस्वीरें लेना. शारीरिक चिन्हों जैसे बर्थमार्क, कोई कट, टैटू और कपड़ों आदि का ब्योरा लेकर उसे केस फाइल में शामिल किया जाता है.
एक अन्य पुलिस सूत्र ने कहा, ‘लापता व्यक्ति की शिकायतों के लिए पुलिस थानों में एक अलार्म भेजा जाता है. अगर यह सिर्फ शरीर के अंग हैं, तो उन्हें मॉर्चुरी में संरक्षित किया जाता है. अन्य मामलों में, डीएनए को संरक्षित किया जाता है और अंतिम संस्कार 72 घंटों के बाद किया जाता है. कुछ मामलों में जब कुछ सुराग मिलने की गुंजाइश नजर आती है तो पुलिस अतिरिक्त 72 घंटे तक प्रतीक्षा कर सकती है.’ व्यक्ति के कद, वजन, त्वचा के रंग और अन्य विवरणों को नोट करके जिपनेट पर अपलोड किया जाता है. कुछ मामलों में सीसीटीवी फुटेज, संभावित चश्मदीद, आस पास के अस्पताल के रिकॉर्ड भी खंगाले जाते हैं.
संदिग्ध आत्महत्या के मामलों में एक जांच कार्यवाही शुरू की जाती है. इस प्रक्रिया में मौत के कारणों का पता लगाना शामिल है. ऐसे मामलों में जांच कब तक पूरी की जानी है, इसकी कोई समय सीमा नहीं है. जिन मामलों में आत्महत्या करने की पुष्टि हो जाती है, वहां अज्ञात शव को पहचान वाले ब्यौरे के साथ अनट्रेसेबल श्रेणी में रखकर एक क्लोजर रिपोर्ट दायर कर दी जाती है.
हत्या के मामलों में जांच लंबी चलती है. 7-8 सालों के बाद ही कोई ‘अनट्रेसेबल रिपोर्ट’ दर्ज की जाती है. लेकिन भविष्य में कभी भी सबूतों के आधार पर ऐसी फाइलों को फिर से खोला जा सकता है.
(संपादनः शिव पाण्डेय । अनुवादः संघप्रिया मौर्य)
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