नई दिल्ली: गुजरात सरकार ने 2002 के गुजरात दंगों के बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में सोमवार को 11 दोषियों को रिहा कर दिया. आजीवन कारावास की सजा काट रहे सभी दोषियों को राज्य सरकार के पैनल द्वारा सजा में छूट के लिए उनके आवेदन को मंजूरी देने के बाद रिहा किया गया है.
आजीवन कारावास की सजा काट रहे दोषियों को कम से कम चौदह साल की सजा काटने के बाद माफी दी जा सकती है और रिहा किया जा सकता है. रिमिशन का अर्थ है ‘आरोपों में बदलाव किए बिना सजा को कम करना’. मसलन, अगर तीन साल के कठोर कारावास की सजा को कम करके एक साल के कठोर कारावास में बदल दिया जाए तो यह छूट होगी.
जैसे ही बिलकिस बानो मामले के दोषियों को रिहा किया गया, गोधरा जेल के बाहर रिश्तेदारों के मिठाई और चरण-स्पर्श (आशीर्वाद के लिए उनके पैर छूते हुए) के साथ उनका अभिवादन करते नजर आए.
मार्च 2002 में गोधरा दंगों के दौरान गुजरात के रंधिकपुर गांव में भीड़ ने बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था और अभियोजन पक्ष के अनुसार, उसकी तीन साल की बेटी सालेहा सहित उसके परिवार के चौदह सदस्यों की हत्या कर दी गई थी. उस समय बानो 19 साल की थी और पांच महीने की गर्भवती थी.
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मामले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने की थी. 2008 में मुंबई की एक निचली अदालत ने ग्यारह आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. मई 2017 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे बरकरार रखा था. अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को बानो को 50 लाख रुपये का मुआवजा, नौकरी और आवास देने का भी निर्देश दिया था.
इन सबके बाद राज्य सरकार ने 11 दोषियों को रिहा कर दिया. उनके इस कदम की व्यापक आलोचना हो रही है. आलोचकों ने बताया है कि दोषी गुजरात सरकार की 2014 की नई नीति के तहत सजा में छूट के पात्र नहीं थे, बल्कि 1992 की पुरानी नीति के तहत उन्हें रिहा किया गया है.
कांग्रेस ने सोमवार को स्वतंत्रता दिवस के भाषण के दौरान ‘नारी शक्ति’ का जिक्र करने के कुछ घंटों के भीतर दोषियों की रिहाई पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी हमला किया. कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेरा ने कथित तौर पर कहा है कि यह निर्णय ‘भाजपा सरकार की मानसिकता को सामने लाता है.’
दरअसल यहां विवाद की जड़ गुजरात सरकार की रिमिशन पोलिसी है, जिसके तहत दोषियों को छूट दी गई है और रिहा कर दिया गया है.
गुजरात सरकार की पुरानी छूट नीति क्या कहती है और यह नई नीति से कैसे अलग है? इस मामले के दोषियों को पुरानी नीति के तहत रिहा क्यों किया गया? दिप्रिंट इसकी जानकारी सामने रख रहा है.
नीति क्या कहती है?
गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णयों के अनुसार, 9 जुलाई 1992 को जारी किया गया गुजरात सरकार का एक सर्कुलर, 18 दिसंबर 1978 को और उसके बाद 14 साल की जेल की सजा काट चुके आजीवन दोषियों की जल्द रिहाई से संबंधित है. इस तरह के मामलों को छूट के लिए विचार करने के लिए इस सर्कुलर का इस्तेमाल किया जा सकता है. सर्कुलर ने दोषियों की समय से पहले रिहाई के लिए इन कार्यवाही को शुरू करने के लिए इसे जेल महानिरीक्षक का कर्तव्य बना दिया.
इसमें कहा गया है कि आईजीपी को आजीवन दोषियों के लिए 13 साल की कैद पूरी होने के बाद प्रक्रिया शुरू करने की जरूरत है, ताकि जब तक वे 14 साल की अपनी सजा पूरी कर लें, तब तक प्रक्रिया पूरी हो चुकी हो या चल रही हो.
उच्च न्यायालय ने समझाया, ‘तथ्य यह है कि सर्कुलर में प्रावधान है कि प्रक्रिया 13 साल पूरे होने पर शुरू होगी. राज्य नहीं चाहता कि कोई भी दोषी 14 साल पूरे करने के बाद जेल में बना रहे, अगर प्राधिकरण इस नतीजे पर पहुंचता है कि उसे रिहा किया जाना है.
दिप्रिंट ने 1992 की पोलिसी को पढ़ा है. उसमें यह भी कहा गया है कि छूट की प्रक्रिया शुरू करने के लिए महानिरीक्षक को संबंधित जिला पुलिस अधिकारी, जिला मजिस्ट्रेट, जेल के अध्यक्ष और सलाहकार बोर्ड समिति की राय लेनी होगी. इन सभी की राय मिलने के बाद महानिरीक्षक को सरकार के पास प्रस्ताव जमा कराना होगा.
नई नीति के मुताबिक, आजीवन दोषियों को छूट देने से पहले राज्य सरकार सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट, महानिरीक्षक की रिपोर्ट और जेल में दोषी के व्यवहार पर विचार करेगी.
हालांकि, यह सर्कुलर सिर्फ दो पेजों का दस्तावेज़ है और इसमें उन कारकों और अपवादों का उल्लेख नहीं किया गया है जिन्हें छूट के लिए एक दोषी याचिका पर विचार करते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए.
2012 में पारित एक ऐतिहासिक फैसले में अदालत ने कहा था कि राज्य द्वारा छूट को स्वतः संज्ञान- – जैसा कि 1992 की नीति में है – से नहीं दिया जा सकता है और इसके लिए दोषी को स्वयं या उसकी ओर से किसी के जरिए इसके लिए पहल करने की जरूरत है.
अदालत ने यह भी साफ किया कि कैदी के पास ‘चौदह साल या बीस साल की कैद पूरी होने पर रिहाई का कोई इंडिफीजिबल अधिकार नहीं है.’ अदालत ने जोर देकर कहा कि ‘आजीवन कारावास की सजा पाए एक दोषी के अपने जीवन के अंत तक हिरासत में रहना पड़ सकता है, जो उपयुक्त सरकार द्वारा दी गई किसी भी छूट के अधीन है.’
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों और स्पष्टीकरणों को शामिल करने के लिए गुजरात सरकार की 1992 की नीति को बदलने की जरूरत थी. 23 जनवरी 2014 को जारी की गई नई पोलिसी वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करती है. नई नीति साफ तौर से सरकार को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा जांच किए गए अपराध के लिए दोषी ठहराए गए कैदियों और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के साथ हत्या के लिए दोषी ठहराए गए कैदियों को छूट या समयपूर्व रिहाई देने से रोकती है.
इसलिए बिलकिस बानो मामले के दोषियों की याचिका पर नई नीति के तहत विचार किया जाता तो राज्य सरकार उन्हें रिहा नहीं कर पाती.
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पुरानी नीति को क्यों माना जाता है?
इस मामले के दोषियों में से एक, राधेश्याम भगवानदास शाह उर्फ लाला वकील ने इस साल मार्च में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें गुजरात सरकार को समय से पहले रिहाई के लिए उनकी याचिका पर विचार करने का निर्देश देने की मांग की गई थी. उन्होंने बताया था कि इस साल 1 अप्रैल तक, दोषी पहले ही 15 साल और चार महीने जेल में बिता चुके हैं.
जवाब में गुजरात सरकार ने अदालत से कहा था कि चूंकि इस मामले में सुनवाई महाराष्ट्र में हुई है, इसलिए समय से पहले रिहाई के लिए उसकी याचिका महाराष्ट्र सरकार के समक्ष दायर करने की जानी होगी. हालांकि इस साल 13 मई को पारित एक फैसले में जस्टिस अजय रस्तोगी और विक्रम नाथ की सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने फैसला सुनाया कि चूंकि इस मामले में अपराध गुजरात में किया गया था और ट्रायल गुजरात में हुआ था तो गुजरात सरकार को दोषियों की अर्जी पर विचार करना होगा.
2004 में बानो की एक याचिका पर मुकदमा गुजरात से मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसे और उसके परिवार के सदस्यों को धमकी दी जा रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी बताया कि उनके आवेदन पर राज्य सरकार की 1992 की नीति के तहत राज्य की छूट और कैदियों की समय से पहले रिहाई पर विचार किया जाएगा. अदालत ने बताया कि जिस समय दोष साबित हुआ था, उसी समय की प्रचलित नीति के आधार पर समय से पहले रिहाई पर विचार किया जाना चाहिए.
जनवरी 2008 में मुंबई की एक विशेष सीबीआई अदालत ने शाह को दस अन्य लोगों के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. जिस समय यह फैसला आया था, उस समय 1992 की रिमिशन नीति प्रभावी थी.
इसके बाद गुजरात सरकार ने उस समय की रिमिशन नीति के अनुसार, दो महीने के अंदर समय से पहले रिहाई के लिए शाह के याचिका पर विचार करने का निर्देश दिया.
रिमिशन पर क्या कहता है कानून
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 433 सरकारों को आजीवन कारावास की सजा को 14 साल के कारावास में बदलने की अनुमति देती है. दूसरे शब्दों में यह पोलिसी केंद्र और राज्य सरकारों को किसी व्यक्ति की सजा को कम करने की पावर देती है.
सीआरपीसी की धारा 433 ए पावर ऑफ रिमिशन पर प्रतिबंध लगाती है. इसमें कहा गया है कि जहां किसी व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा दी गई है – एक ऐसे अपराध के लिए जिसके लिए कानून संभावित सजा के रूप में मौत की सजा की भी अनुमति देता है – तो ऐसे व्यक्ति को तब तक जेल से रिहा नहीं किया जाएगा जब तक कि उसने कम से कम 14 साल जेल की सजा न काट ली हो. राज्य सरकारों ने सीआरपीसी की धारा 432 के तहत शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए सेंटेंस रिव्यू बोर्ड का गठन किया.
यह पावर ऑफ रिमिशन राष्ट्रपति और राज्यपाल को मिलने वाली दोषियों को राहत देने की संवैधानिक शक्तियों से भिन्न है. संविधान के अनुच्छेद 72 और 161 भारत के राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों को कुछ मामलों में क्षमादान देने या सजा निलंबित करने, हटाने या कम करने का अधिकार देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि जब सीआरपीसी की धारा 433 के तहत कार्रवाई की जाती है, तो राष्ट्रपति या राज्यपाल की मंजूरी की जरूरत नहीं होती है. हालांकि अगर अनुच्छेद 72 और 161 के तहत कोई कार्रवाई की जाती है, तो राष्ट्रपति या राज्यपाल की मंजूरी जरूरी है, भले ही दोनों मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह से बंधे हों.
2000 में पारित एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने छूट पर विचार करने के लिए पांच आधार निर्धारित किए थे: क्या यह एक व्यक्ति द्वारा किया गया ऐसा अपराध है जो समाज को प्रभावित नहीं करता है, क्या भविष्य में अपराध के दोहराए जाने की संभावना है, क्या अपराधी ने अपराध करने की क्षमता खो दी है, क्या दोषी को जेल में रखने का कोई उद्देश्य पूरा हो रहा है और दोषी के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति.
(भद्रा सिन्हा के इनपुट्स के साथ)
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