नई दिल्ली: नालंदा जिले के इस्लामपुर इलाके में एक सोलह वर्षीय दिव्यांग नाबालिग ने 29 फरवरी को कपड़ों की एक दुकान से एक महिला का पर्स चुरा लिया. उसी दिन दुकान पर कपड़े खरीदने आई तीनों महिलाओं ने इस्लामपुर थाने में जाकर शिकायत दर्ज कराई. थाना प्रभारी शरद कुमार रंजन ने दिप्रिंट को बताया, ‘महिलाओं की शिकायत के बाद सीसीटीवी कैमरे से लड़के की पहचान की गई. 6 मार्च को आरोप लगा रही एक महिलाओं में से एक के पति ने उस लड़के को पकड़कर थाने में हाजिर किया. सीसीटीवी फुटेज से लड़के की पहचान सही निकली. लड़के ने थाने में कुबूल किया कि उसने पर्स भले ही चुराया हो लेकिन उसमें कुछ था नहीं. इसलिए उसने पर्स रास्तें में कहीं फेंक दिया. लड़के पर सेक्शन 379 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी. 7 मार्च से उसे किशोर न्याय बोर्ड के निर्देश पर हिरासत में रखा गया था.’
नालंदा के बिहारशरीफ का ये मामला अप्रैल महीने में स्थानीय अखबारों के मुख्य पृष्ठों पर छाया रहा है. कारण है एडिशनल चीफ ज्यूडिशियल मेजिस्ट्रेट मानवेंद्र मिश्र द्वारा दिया गया इस मामले पर आदेश. मानवेंद्र मिश्र ने इस नाबालिग लड़के को ना सिर्फ जुर्म से मुक्त किया है बल्कि सुनिश्चित भी किया कि उसके गरीब परिवार को मौजूदा सरकारी योजनाओं का लाभ मिले. मानवेंद्र मिश्र एक युवा जज हैं और पहले भी नाबालिगों से जुड़े केसों में इस तरह के फैसले सुना चुके हैं. जैसे उन्हें सुधार गृह ना भेजकर अति पिछड़ा बस्तियों में सहायता कामों में लगाना या कुछ दिन के लिए ट्रैफिक पुलिस के मदद का आदेश देना.
इस तरह के जजमेंट के पीछे का कारण बताते हुए कोर्ट के एक सहायक कर्मचारी कहते हैं, ‘कई बार नाबालिग सुधारगृहों में जाकर आपराधिक प्रवृति की विकसित कर लेते हैं. इसलिए आवेश में आकर किए गए कामों या फिर जैसा इस केस में भूख के चलते की गई चोरी के मामले में सुधारगृह भेजना, समस्या का निदान करना है.’
इस नाबालिग बच्चे के चोर बनने की पीछे की कहानी भावुक करने वाली है. लॉकडाउन के दौरान चले इस पूरे मामले की सुनवाई के बाद 17 अप्रैल को नाबालिग को अपने घर भेज दिया गया है.
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जिले के चाइल्ड प्रोटेक्शन ऑफिसर बृजेश मिश्रा ने दिप्रिंट को टेलिफोन पर हुई बातचीत में बताया, ‘गिरफ्तारी के चौबीस घंटे के भीतर लड़के को जज के सामने पेश किया गया. जज ने लड़के काउंसलिंग की तो लड़के ने चोरी की बात स्वीकारी लेकिन इसके पीछे की कहानी भी बताई. उसने बताया कि उसके पिताजी कई साल पहले गुजर गए थे. जिसके बाद उसकी मां मानसिक रूप से परेशान रहती थी. लोग उसे पागल कहते थे. उसका एक छोटा भाई भी है जिसकी जिम्मेदारी भी उसके कंधों पर है. ऐसे हालत में उसे चोरी करनी पड़ी. वो भावुक हो गया.’
नाबालिगों को कोर्ट में पेश करने के साथ ही पुलिस एसबीआर यानी कि सोशल बैकग्राउंड रिपोर्ट भी जमा करानी होती है. इस रिपोर्ट में नाबालिग के सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया. जैसे कि वो कितने भाई-बहन हैं या फिर परिवार भूमिविहीन है या नहीं, पिता की असामयिक मृत्यु, घरेलू हिंसा का शिकार या फिर असामाजिक तत्वों की संगति. इस्लामपुर पुलिस का कहना है कि नाबालिग की एसबीआर रिपोर्ट को ठीक से भरा गया था और पुलिस ने उसके घर जाकर पता भी लगाया था.
लेकिन एक रिटायर्ड जज ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि कई बार पुलिस ये रिपोर्ट खानापूर्ति की तरह ही पेश करती है और जज को नाबालिग की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पता नहीं चल पाता. ऐसे में ये पता लगाना भी मुश्किल हो जाता है कि आखिरकार नाबालिग कुंठित होकर अपराधी बनने की ओर क्यों जा रहा था.
कई बार ऐसे केसों में नाबालिग झूठ बोल देते हैं इसलिए टीम को ग्राउंड पर भेजकर सच्चाई का पता लगाना अनिवार्य हो जाता है. जब प्रशासन की एक टीम उसके गांव गई तो उसके परिवार की हालत देखकर चौंक गई. टीम के एक सदस्य ने दिप्रिंट को बताया, ‘टीम नाबालिग के घर पहुंची और प्रूफ के लिए उसकी मां की तस्वीर लेनी चाही. इतनी गरीबी थी कि मां के पास कपड़ों के नाम पर आधी फटी हुई साड़ी ही थी. उसके बाद आंगनवाड़ी वर्कर्स के माध्यम से एक नई साड़ी का इंतजाम किया गया और घर और मां की तस्वीरें खींची गईं. घर में बर्तन के नाम पर सिर्फ एक बड़ा पतीला था. फूस के घर में कोई दरवाजा तक नहीं था. राशन कार्ड बना था लेकिन आवास योजना के तहत कोई घर नहीं मिला था और ना ही विधवा पेंशन.’
जब जज के सामने वो रिपोर्ट आई तो उन्होंने अपने आदेश में ना सिर्फ बच्चे को मुक्त किया बल्कि ब्लॉक डेवल्पमेंट ऑफिसर को उसके परिवार को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत एक मकान देने, विधवा पेंशन देने, परिवार के सभी सदस्यों के राशन कार्ड बनवाने, समाज कल्याण विभाग द्वारा जारी स्कॉलरशिप मुहैया कराने और राशन उपलब्ध कराने के लिए लिखा. फिलहाल परिवार के पास 100 किलो अनाज उपलब्ध करा दिया गया है.
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साथ ही नाबालिग की कस्टडी जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के मेंबर धर्मेंद्र कुमार, सहायक अभियोजन अधिकारी राजेश पाठक और चाइल्ड प्रोटेक्शन अधिकारी भृजेश मिश्रा को सौंपी गई. अपने आदेश में जज ने लिखा कि जब तक वह 18 साल का नहीं हो जाता तब तक उसकी हर चार महीने में एक रिपोर्ट जमा करानी होगी और साथ ही उसकी समय-समय पर साइकोलॉजिस्ट से काउंसलिंग भी करानी होगी.
लेकिन सवाल ये उठता है कि जब परिवार इतनी गरीबी में था तो केंद्र सरकार की महत्वपूर्ण योजनाएं इस परिवार तक क्यों नहीं पहुंची? इस सवाल का जवाब देते हुए एक अन्य प्रशासनिक अधिकारी नाम ना छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘ग्राम प्रधान कई बार वोट ना देने की रंजिश के चलते या फिर जातिगत भेदभाव के चलते कई परिवारों तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचने देते. नाबालिग एससी जाति से होने की वजह से उसके परिवार के पास तक बहुत सारी सरकारी योजनाएं नहीं पहुंची थीं.’
यही है खबर,ज्योति जी आप समाज के हर वर्ग की खबर को जगह दे रही है दिप्रिंट में वास्तव में अच्छे पत्रकार की यही भूमिका होनी चाहिए।
Good
??bahut accha aapne lisi ki majburi ko Samja I respect u sir
I salute dil se
Judge ne bahut atcha kaam kiye.he is real hero.ek child garibi k karan chori krta h .tab yh show hota h ki ajj v hamara desh m sahi tarike s garib k pahchan nahi hota h and garib k huk ko garibo m nahi pahuchaya jata h.ess trah k ghatna sarminda krti h hamere system and society pr.