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Friday, 1 November, 2024
होमदेशभारतीय किसानों के लिए बिहार ने उम्मीद जगाई है लेकिन सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी इसे देख पा रहे हैं

भारतीय किसानों के लिए बिहार ने उम्मीद जगाई है लेकिन सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी इसे देख पा रहे हैं

बिहार के कई हिस्सों में बदलाव की ऐसी कहानियां दिखती हैं लेकिन राज्य के नेता उनसे बेखबर हैं या शायद जाति-बहुल चुनावों के आगे इसे असंगत पाते हैं.

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पटना/हसनपुर: क्या आप यह कल्पना कर सकते हैं कि कोई किसान सिर्फ खेती के बलबूते हर महीने 2 लाख रुपये बचा रहा होगा? या एक ऐसा अनाज बैंक शुरू करना जो कंपनी का टर्नओवर केवल आठ वर्षों में 70 करोड़ रुपये तक पहुंचा दे, जिसके लिए विदेशी निवेशक तक कतार में हों?

ये बिहार के सुदूर गांवों तक सिमटीं वास्तविक कहानियां हैं. कृषि सुधार भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में आए जिक्र को छोड़कर राज्य में चुनावी मुद्दा न हों लेकिन बिहार इसकी एक झलक जरूर दिखाता है कि ये सुधार कैसे किसानों के जीवन को बदल सकते हैं.

सितंबर में केंद्र को किसानों को व्यापारियों के चंगुल से मुक्त करके उन्हें अपनी उपज मनचाही जगह बेचने की अनुमति देने और कांट्रैक्ट खेती को अपनाने संबंधी तीन कानूनों पर संसद की मंजूरी मिल गई थी. इसे लेकर बिहार में कोई खास सुगबुगाहट नहीं हुई क्योंकि राज्य पहले ही 2006 में कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियम को रद्द कर चुका है जिससे किसानों को सीधे निजी हाथों में बिक्री का अधिकार मिला है.

चौदह साल बाद भी इस कदम के वांछित नतीजे तो नज़र नहीं आए लेकिन अगर कोई गांवों का दौरा करे तो कहीं-कहीं इसका असर साफ देख सकता है.


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41,000 किसानों के लिए अनाज बैंक

एर्गोस एग्री-सप्लाई चेन के सीईओ और निदेशक किशोर कुमार झा से मिलिए. झा बेंगलुरू में एक बैंकर थे पर उन्होंने ‘अनाज बैंक’ बनाने के लिए 2012 में इस कंपनी की शुरुआत की, जो किसानों को अपना अनाज इसके गोदामों में रखने और उसके बदले में बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों (एनबीएफसी) से उधार लेने में सक्षम बनाती है. एर्गोस उनके लिए बेहतर सौदे की व्यवस्था करती है फिर भी वे अपनी शर्तों पर अनाज बेचने का फैसला कर सकते हैं.

आठ वर्षों में एर्गोस ने पांच जिलों में 70 गोदाम बनाए हैं, जिनमें कुल 50,000 मीट्रिक टन अनाज भंडारण की क्षमता है और 41,000 किसान इससे जुड़े हैं. सभी किसानों को अपना अनाज गोदाम लाना होता है, जहां इसे प्रति माह 10 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से रखा जाता है और फिर वे अच्छे सौदे के लिए एर्गोस के ऑफर की प्रतीक्षा करते हैं.

किशोर झा ने दिप्रिंट को बताया, ‘सरकार द्वारा 2006 में एपीएमसी खत्म किए जाने के कारण मैंने और प्रवीण कुमार (एर्गोस के सह-संस्थापक) ने यह अनाज बैंक बनाने के बारे में सोचा. हमें लाइसेंस की जरूरत के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी.’

उन्होंने कहा, ‘हम किसानों को ‘आपका अनाज, आपकी कीमत, आपके समय पर’ की पेशकश करते हैं. इसके कारण किसानों की आय 30-35 प्रतिशत तक बढ़ गई है.’

एर्गोस का कारोबार आज 70 करोड़ रुपये का हो चुका है और इसने हाल ही में तीन विदेशी निवेशकों से 80 करोड़ रुपये की इक्विटी जुटाई है. कंपनी ने अब तक स्थानीय कॉलेजों से पढ़ाई करने वाले 150 स्नातकों को अपने यहां नियुक्त किया है.

झा ने कहा, ‘हमारे गोदामों में अनाज की खरीद-बिक्री होती है. वे इलेक्ट्रॉनिक रूप से विलय कर रहे हैं. मिलर्स और स्थानीय खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों हमसे खरीद-फरोख्त में खुश हैं… हमारी योजना अगले दो वर्षों में 400-500 और गोदाम बनाने की है.’


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ग्राम प्रधान ने प्रौद्योगिकी के बूते अपना भाग्य बदला

एर्गोस ने पटना के उत्तर-पश्चिम में लगभग 140 किलोमीटर दूर हसनपुर के नयानगर गांव में जिस एक गोदाम को किराये पर लिया उसे ग्राम प्रधान सुधांशु कुमार ने बनवाया था. उन्होंने सफलता की एक अलग कहानी लिखी कि कैसे आधुनिक तकनीक और मार्केटिंग की मदद से खेती को लाभदायक बनाया जा सकता है.

सेंट पॉल स्कूल, दार्जिलिंग के पूर्व छात्र और दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर सुशील कुमार ने 1990 में खेती के लिए गांव लौटने का फैसला किया. उनके पिता ने यह सोचकर उन्हें जमीन का ‘सबसे खराब’ हिस्सा, आम का एक बगीचा दे दिया कि बेटा किसान बनने की धुन छोड़ देगा. एक सीजन में इस बगीचे से लगभग 20,000-25,000 रुपये की आय होती थी. कुमार ने पूसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की मदद ली और पहले ही साल में उन्हें बाग से 1.35 लाख रुपये की आय हुई. पिछले साल इसने 13 लाख रुपये की कमाई कराई.

1997-98 में उन्हें अपनी लीची के बाग से उपज के लिए 85,000 रुपये मिले थे. अब यहां होने वाली उपज 22-23 लाख रुपये में बिकती है.

कुमार ने अपने बागवानी उत्पाद बेचने के लिए रिलायंस फ्रेश और बिग बास्केट के साथ करार कर लिया है. उन्होंने इस साल 14 टन लीची विमान से दिल्ली भेजी क्योंकि कोविड-19 के कारण ज्यादातर ग्राहक होम डिलीवरी चाहते थे.

सुधांशु कुमार ने बताया, ‘हम हमेशा कर्ज के बोझ से दबे रहते थे.’ आज उनका सालाना कारोबार 60-80 लाख रुपये है और बचत लगभग 24 लाख रुपये प्रतिवर्ष है.

कुमार ने कहा, ‘2006 में एपीएमसी अधिनियम निरस्त किए जाने से पहले तक कोई कंपनी मेरे पास नहीं आती थी. अब हालात बदल रहे हैं लेकिन बाजार को लोगों के और करीब लाने, जो अभी नहीं हो पाया है, के लिए सरकार को आगे भी कुछ कदम उठाने की जरूरत है. कुमार ने अपने बाग में इनोवेटिव उपकरणों और तकनीक के उपयोग के लिए 2010 में प्रतिष्ठित जगजीवन राम किसान पुरस्कार हासिल किया था.

केंद्र के कृषि सुधारों की सराहना करते हुए कुमार ने याद दिलाया कि कुछ समय पहले एक व्यापारी मक्के की फसल के 32 लाख रुपये लेकर ‘गायब’ हो गया था. उन्होंने कहा, ‘अब कांट्रैक्ट फार्मिंग के कारण ये सब बंद हो जाएगा.’


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परिवर्तन दिख रहा लेकिन राजनेताओं को नहीं

बिहार के प्रमुख सचिव, कृषि श्रवण कुमार, जिन्होंने 1990 के दशक की शुरुआत में जिला कलेक्टर के तौर पर सुधांशु को माइक्रो-इरिगेशन में मदद दी थी, ने दिप्रिंट को बताया कि बिहार में कृषि अर्थव्यवस्था परिवर्तन के दौर में है, अधिक से अधिक किसान आधुनिक तकनीक का उपयोग कर रहे हैं और खुद को सीधे बाजार के साथ जोड़ रहे हैं.

श्रवण कुमार ने बताया, ‘मुख्यमंत्री (नीतीश कुमार) किसानों की जरूरतों के प्रति बेहद सजग हैं. उनके निर्देश पर हमने अब किसानों की मदद के लिए एक मार्केटिंग विभाग भी बनाया है.’

कोई पूरे राज्य में घूमे तो परिवर्तन दिखाई देता है. इल्मासनगर में नयानगर से लगभग 40 किमी दक्षिण में एक कोल्ड स्टोरेज सुविधा निर्माणाधीन है. समस्तीपुर में ऐसे आधा दर्जन केंद्र दिखाई देते हैं.

इल्मासनगर का एक किसान डबलू हर बार 250 रुपये प्रति सीजन के हिसाब से अपने आलू कोल्ड स्टोरेज में रखता है. डबलू ने कहा, ‘कभी-कभी आलू कोल्ड स्टोरेज में भी सड़ जाता है. मुझे लगता है कि वे इसे बड़े व्यापारियों की उपज से बदल देते हैं. फिर भी बेहतर यही है कि उन्हें कोल्ड स्टोरेज में ही रखा जाए और सस्ते में बेचने के बजाये बेहतर कीमत की प्रतीक्षा की जाए.’

बिहार के कई हिस्सों में बदलाव की ऐसी कहानियां दिखती हैं लेकिन राज्य के नेता उनसे बेखबर हैं या शायद जाति-बहुल चुनावों के आगे इसे असंगत पाते हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो प्रतिबंधात्मक एपीएमसी अधिनियम को रद्द करने, पूंजीगत सब्सिडी और अन्य प्रोत्साहनों के माध्यम से ये बदलाव लाने का श्रेय ले सकते थे लेकिन वह अपने इस योगदान का जिक्र नहीं करते हैं.

लेकिन उनके गठबंधन सहयोगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र के कृषि सुधारों को दर्शाया है. और बिहार के ग्रामीण इलाकों में बदलाव के ये संकेत, भले ही छोटे-मोटे और कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित हैं, कृषि सुधारों से देशभर के किसानों के लिए उम्मीद जरूर जगाते हैं.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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