नई दिल्ली: गुजरात हाईकोर्ट में एक वरिष्ठ वकील के वर्चुअल सुनवाई के दौरान बीयर के मग से पीने की घटना ने बार और बेंच के कई सदस्यों के बीच इस बहस को जन्म दे दिया है कि क्या वर्चुअल कोर्ट की सुनवाई जारी रहनी चाहिए या नहीं.
कुछ लोगों का कहना है कि ऐसी सुनवाई कोविड-19 महामारी के दौरान एक ज़रूरत के तौर पर शुरू हुई थी लेकिन अब इसे “लग्ज़री” के तौर पर लिया जा रहा है. वहीं, कुछ लोग इसके फायदों की ओर इशारा करते हैं, जैसे कि कोर्ट को ज़्यादा सुलभ बनाना, और इस पर सख्त प्रोटोकॉल बनाए जाने की बात करते हैं.
दिप्रिंट ने कई वकीलों, बार एसोसिएशन के सदस्यों, वरिष्ठ अधिवक्ताओं और सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के पूर्व जजों से इस विषय पर राय ली.
बहस तब शुरू हुई जब पिछले महीने सोशल मीडिया पर एक क्लिप वायरल हुई जिसमें वरिष्ठ अधिवक्ता भास्कर टन्ना कोर्ट की पोशाक में, एक बीयर मग से आराम से पीते हुए और 26 जून को वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए कोर्ट की सुनवाई में शामिल होते दिखाई दिए.
इस पर संज्ञान लेते हुए गुजरात हाईकोर्ट की दो जजों की बेंच — जस्टिस ए.एस. सुपेहिया और आर.टी. वच्छानी — ने 1 जुलाई को टन्ना के “अपमानजनक व्यवहार” पर अवमानना की कार्यवाही शुरू की. अदालत ने कहा कि इस तरह का व्यवहार न्यायिक प्रणाली की गरिमा को ठेस पहुंचाता है और इसे नज़रअंदाज़ करना संस्थागत प्राधिकार के पतन का कारण बन सकता है.
इसके बाद वकील ने कोर्ट से माफी मांगते हुए कहा, “यह जानबूझकर नहीं किया गया था. मैं माफ़ी मांगता हूं. मुझे इस क्लिप के वायरल होने और कोर्ट के आदेश के बारे में बाद में पता चला. मैं बिना शर्त माफ़ी मांगता हूं और जो भी सज़ा कोर्ट उचित समझे, उसे स्वीकार करूंगा.”
माफी के बाद कोर्ट ने उसी दिन कहा कि वे अगली सुनवाई की तारीख पर लिखित में अपना पक्ष रख सकते हैं. तब तक उन्हें वर्चुअल रूप से पेश होने से रोका जाएगा.
बेंच ने आगे कहा कि एक वरिष्ठ वकील का ऐसा व्यवहार बार के युवा सदस्यों को प्रभावित कर सकता है और उनके ‘सीनियर’ दर्जे पर पुनर्विचार की ज़रूरत हो सकती है.
टन्ना की घटना अकेली नहीं थी जिसे अनुचित माना गया. इससे पहले एक और क्लिप वायरल हुई थी जिसमें एक अज्ञात याचिकाकर्ता शौचालय सीट पर बैठे हुए वर्चुअल सुनवाई में शामिल होते दिखे. यह सुनवाई 20 जून को गुजरात हाईकोर्ट के एक जज के सामने हुई थी. यह क्लिप भी वर्चुअल सुनवाई में उचित व्यवहार की ज़रूरत को उजागर करती है.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी. लोकुर ने कहा कि वर्चुअल सुनवाई जारी रहनी चाहिए लेकिन वकीलों और पक्षकारों के लिए एक प्रोटोकॉल तैयार किया जाना चाहिए.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “जब तक कोई प्रोटोकॉल तैयार नहीं होता, ऐसे अजीबोगरीब मामले सामने आते रहेंगे. और जब ऐसा हो, तो कोर्ट एडमिन को ऐसे लोगों को लॉगआउट कर देना चाहिए.”
“पूरा सिस्टम सिर्फ एक गलती की वजह से नहीं बंद किया जा सकता”
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “हम सिर्फ एक गलती के लिए पूरी व्यवस्था को नहीं छोड़ सकते. वर्चुअल सुनवाई से न्याय प्रक्रिया आसान होती है और उन लोगों को मदद मिलती है जो अपने वकील को एक जगह से दूसरी जगह नहीं ले जा सकते. यह उन वादकारियों के लिए भी फायदेमंद है जो अदालत के पास नहीं रहते या जिनकी परिस्थितियां आने की इजाज़त नहीं देतीं.”
जस्टिस शाकधर, जो मद्रास और दिल्ली हाई कोर्ट की सूचना और प्रौद्योगिकी समिति के अध्यक्ष भी रहे हैं, का मानना था कि ऐसी सुनवाई को पूरी तरह से बंद कर देना ठीक नहीं होगा.
उन्होंने कहा, “खासकर तब, जब अदालतों ने बुनियादी ढांचे में इतना पैसा लगाया है, तो यह एक ग़लत कदम होगा. इसके अलावा, भविष्य ऑनलाइन माध्यम से विवादों के समाधान में है, इसलिए अगर हम इसे पूरी तरह से हटा देंगे, तो यह पीछे जाने जैसा होगा.”
अनुचित घटनाओं के बारे में उन्होंने कहा: “इनमें से कई घटनाएं अनजाने में हुई हो सकती हैं, लेकिन इन्हें वर्चुअल सुनवाई को खत्म करने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। और अगर ये जानबूझकर की गई हों या बदनाम करने के मकसद से हों, तो उनसे निपटने के तरीके हैं, जैसे कि अवमानना की कार्रवाई शुरू करना.”
आगे का रास्ता बताते हुए उन्होंने सुझाव दिया कि ऑनलाइन सुनवाई के लिए एक प्रोटोकॉल होना चाहिए जिसे सार्वजनिक डोमेन में नियमित रूप से प्रचारित किया जाए, ताकि वकील उससे भलीभांति परिचित हों.
उन्होंने कहा, “मौजूदा प्रोटोकॉल को बड़े पैमाने पर प्रचारित किया जाना चाहिए—उन्हें छापकर वितरित करना या अदालतों में लगाना चाहिए. जब सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट्स से वर्चुअल सुनवाई के नियम बनाने को कहा था, तो मैं उस समिति का हिस्सा था. मुझे पूरा विश्वास है कि गुजरात हाई कोर्ट का भी अपना एक प्रोटोकॉल होगा.”
“ज़रूरत लग्ज़री बन गई”
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) के अध्यक्ष विकास सिंह का मानना था कि “ऑनलाइन सुनवाई महामारी के दौरान एक ज़रूरत के तौर पर शुरू की गई थी, लेकिन अब इसे एक शौक या सुविधा के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है.”
ज़रूरत के आधार पर इस सुविधा को सीमित किए जाने की वकालत करते हुए सिंह ने दिप्रिंट से कहा कि यह सुविधा केवल ज़रूरतमंद लोगों को ही मिलनी चाहिए.
उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि इसका दुरुपयोग हो रहा है और अदालत की कार्यवाही को हल्के में लिया जा रहा है. कोई भी अदालती कार्यवाही बहुत गंभीर होती है और उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. इस तरह की घटनाएं पूरी प्रक्रिया की विश्वसनीयता को प्रभावित कर रही हैं.”
वकील जवाहर लाल ने भी मर्यादा की कमी की निंदा की. उन्होंने कहा, “एक वकील के तौर पर आपसे यह उम्मीद की जाती है कि आप मर्यादा का पालन करें. यह सिर्फ़ जज को सम्मान देने की बात नहीं है, बल्कि पूरी न्यायिक प्रणाली को सम्मान देने की बात है. अगर आप सिस्टम का सम्मान नहीं कर रहे हैं, तो आप खुद को नीचा दिखा रहे हैं, क्योंकि आप उसी सिस्टम का हिस्सा हैं.”
‘नियमन की जरूरत’
कई वकीलों ने सख्त आचार संहिता लागू करने की मांग की है.
सीनियर एडवोकेट जयना कोठारी, जो सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च की सह-संस्थापक भी हैं, ने दिप्रिंट से कहा कि वर्चुअल सुनवाई ज़रूर जारी रहनी चाहिए क्योंकि “यह वकीलों और वादकारियों के लिए अदालत को अधिक सुलभ बनाती है.”
उन्होंने ऑनलाइन सुनवाई के दौरान अनुशासनहीन व्यवहार पर कहा, “ऐसी गाइडलाइंस हो सकती हैं जो वकीलों के लिए ऑनलाइन पेश होने की आचार संहिता तय करें.”
इसी तरह की राय रखते हुए सीनियर एडवोकेट शशांक गर्ग ने कहा: “वर्चुअल सुनवाई का उद्देश्य न्याय तक पहुंच है, और यह केवल वकीलों को लाभ पहुंचाने के लिए नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए भी है कि देश के सबसे दूरदराज इलाकों में रहने वाले वादकारी भी यह जान सकें कि उनके मामले में क्या हो रहा है, बिना सफर किए या सिर्फ अपने वकील की बातों पर भरोसा किए बिना.”
उन्होंने कहा कि देश के 70 प्रतिशत से अधिक वकील बमुश्किल गुज़ारा कर पाते हैं, और उनके लिए वर्चुअल सुनवाई “एक वरदान है जिससे वे अपना काम बढ़ा सकते हैं.” उन्होंने कहा. लेकिन इस तकनीक का जिम्मेदारी से उपयोग किया जाना चाहिए.
जब उनसे उन मामलों के बारे में पूछा गया जहां क्लाइंट या वकील मर्यादा का पालन नहीं करते, तो गर्ग ने कहा: “हमने कुछ ऐसी घटनाएं देखी हैं जो सामान्य से लेकर अस्वीकार्य तक हैं, लेकिन अदालत को जो कार्रवाई करनी चाहिए वो वैसी होनी चाहिए जैसे ये कार्य किसी फिजिकल कोर्ट हियरिंग में हुआ हो.”
उन्होंने कहा कि वकील अदालत के अधिकारी होते हैं और “यह हम सभी की सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि हमारे व्यवहार से संस्था की गरिमा को ठेस न पहुंचे.”
“वर्चुअल सुनवाई एक विशेष सुविधा है और अगर कोई वकील अनुचित व्यवहार का दोषी पाया जाता है तो उससे यह सुविधा वापस ली जा सकती है, लेकिन इससे वर्चुअल सुनवाई की संपूर्ण अवधारणा और प्रभावशीलता पर असर नहीं पड़ना चाहिए.”
एडवोकेट नंदन आनंद ने भी कहा कि ऐसी सुनवाई जारी रहनी चाहिए और यह कानूनी व न्यायिक कार्य में एआई टूल्स की भूमिका का उदाहरण है—जो बदलते समय और तकनीकी विकास के साथ चलने के लिए जरूरी है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “किसी भी कानूनी कार्यवाही में तीन पक्ष होते हैं: अदालतें, वकील और वादकारी. वर्चुअल सुनवाई वकीलों, क्लाइंट्स और अदालतों तीनों के लिए न्याय प्रणाली के सुचारू संचालन में एक बेहतरीन साधन है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: पंजाब और हरियाणा में डंकी एजेंटों की तलाश जारी, एफआईआर, छापेमारी, डूबे पैसों की मांग