नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंग्रेजी मुखपत्र, ऑर्गनाइजर ने इस सप्ताह अपने संपादकीय में सशस्त्र बलों के लिए केंद्र सरकार की अग्निपथ अल्पकालीन भर्ती योजना के खिलाफ बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध-प्रदर्शनों को ‘बेतुका’ बताया.
यह कहते हुए कि इस तरह का मैकेनिज्म दुनिया भर में मौजूद है, मुखपत्र ने लिखा, ‘वे (रंगरूट या ‘अग्निवीर’) इतनी कम उम्र में जो कौशल हासिल करेंगे, वह उनके लिए एक अतिरिक्त लाभ होगा. परफॉर्मेंस को देखते हुए, उनमें से 25 प्रतिशत को नियमित कर दिया जाएगा. एक दुष्प्रचार अभियान के तहत आंदोलन चलाया जा रहा है, जिससे सार्वजनिक संपत्तियों, मुख्य रूप से रेलवे को नुकसान पहुंचा है.’
बिहार, उत्तर प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में हिंसा के रूप में सामने आए इस विद्रोह ने इस सप्ताह हिंदुत्व समर्थक प्रेस का सबसे अधिक ध्यान अपनी ओर खींचा है. हालांकि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह बयान कि हर मस्जिद में शिवलिंग की तलाश करने की कोई जरूरत नहीं है और पर्यावरण के मुद्दों पर भी संपादकीय में चिंता जताई गई.
दिप्रिंट आपके लिए पिछले कुछ हफ्तों में दक्षिणपंथी प्रेस में सुर्खियां बटोरने वाली खबरों के कुछ हिस्सों को लेकर आया है.
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आलोचना लेकिन कुछ मतभेद भी
अग्निपथ योजना को लेकर ऑर्गेनाइजर ने भाजपा सरकार को जनता तक पहुंचने के लिए बेहतर संचार रणनीति के साथ आने की सलाह दी.
संपादकीय में लिखा गया, ‘ऐसा लगता है कि जब भारत वैश्विक मंच पर अपनी जगह बना रहा है तो देश को किसी न किसी बहाने गृहयुद्ध के रास्ते पर ले जाने के लिए एक ठोस प्रयास किया जा रहा है. यह एक चिंता का विषय है. हमें तथ्यों पर आधारित एक अधिक तर्कसंगत सामाजिक चर्चा की जरूरत है. हिंसक प्रदर्शनकारियों और दंगाइयों को उनकी राजनीतिक या धार्मिक संबद्धता के बावजूद सरकार को उन्हें कड़ा संदेश देना चाहिए.’
आरएसएस के छात्र संगठन, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने हिंसा की निंदा करते हुए कुछ इसी तरह के विचार रखे. हालांकि उन्होंने कहा कि प्रदर्शनकारियों को सही जानकारी लेने के बाद ही विरोध में शामिल होना चाहिए. एबीवीपी ने अपनी पत्रिका छात्रशक्ति के संपादकीय में लिखा कि प्रदर्शनकारियों के साथ बातचीत कर उनके डर को दूर किया जाना चाहिए.
संपादकीय में लिखा, ‘युवाओं की उम्मीदों को हिंसा के अवैध रास्ते पर मोड़ने के दुर्भाग्यपूर्ण प्रयासों को रोकने के लिए विभिन्न स्तरों पर सशक्त प्रयासों की आवश्यकता है.’
संपादकीय में कहा गया है कि तीन सशस्त्र बलों के निर्णयों पर कुछ राजनीतिक समूहों द्वारा की गई टिप्पणी योजना के भविष्य के उद्देश्यों को नुकसान पहुंचा सकती है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और दक्षिणपंथी समीक्षक मकरंद आर परांजपे ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने एक लेख में तर्क दिया कि भारत में हर सुधार को ‘एक विभाजित राजनीति और लोकलुभावनवाद’ की ऐसी ही बाधाओं से जूझना पड़ता है. उन्होंने यह भी दावा किया कि योजना का विरोध करने वालों में से कई को इस काम के लिए पैसे दिए गए थे.
परांजपे तर्क देते हैं कि सशस्त्र बलों को ‘रोजगार एजेंसी’ के रूप में नहीं माना जाना चाहिए. उन्होंने लिखा, ‘अब, क्या ये आगजनी करने वाले और कानून तोड़ने वाले, उन ताकतों को धमकाना और डराना चाहते हैं जो राज्य और उसके नागरिकों को ऐसे तत्वों से बचाने के लिए हैं.’
वह लिखते हैं, ‘बलों के वर्तमान बजट का एक बड़ा हिस्सा हर स्तर पर ‘नॉन-प्रोडक्टिव’ है, यह एक दुखद सच्चाई है जिसका हम सामना नहीं करना चाहते. हमारी सेना दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी स्थायी सेना है, जिसकी वर्दी में करीब 15 लाख सैनिक हैं, अगर हम इस तरह से आगे बढ़ते रहे तो जल्द ही फिट रहने और मुकाबले के लिए संघर्ष करना बंद कर देंगे.’
उन्होंने लिखा, ‘हमें उपकरण, तकनीक में निवेश करने और हथियारों, बुनियादी ढांचे आदि को अपग्रेड करने की जरूरत है. लेकिन नहीं, हमें तो स्थायी सरकारी नौकरी चाहने वाले आंदोलनकारियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए सशस्त्र बलों को भी एक विशाल रोजगार एजेंसी में बदल देना चाहिए.’
हालांकि, अग्निपथ को लेकर दक्षिणपंथी प्रेस में कुछ आलोचना के स्वर भी मिले हैं. पत्रकार हरि शंकर व्यास ने अग्निपथ और आंगनबाड़ी में भर्ती के बीच तुलना करते हुए उन्हें एक समान बताया.
व्यास ने नया इंडिया में लिखा, ‘अग्निपथ के खिलाफ युवाओं के इस विरोध के रूप में त्वरित प्रतिक्रिया क्या होगी? मानो यह सरकार द्वारा किया गया धोखा और छल है’
उन्होंने नीति की तुलना उन तीन विवादास्पद कृषि कानूनों से भी की, जिन्हें पिछले साल किसानों के एक साल के धरने के बाद निरस्त कर दिया गया था.
व्यास ने लिखा, ‘किसानों ने तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त की क्योंकि वे समझ गए थे कि उनके साथ धोखा किया जा रहा है. और यह पिछले आठ सालों में नरेंद्र मोदी के मुंह से निकली हर योजना, घोषणा, जुमला पर लागू होता है. अच्छे दिन का वादा महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा-तनाव-असुरक्षा-चिंता की पटरी पर जलकर राख हो गया है.’
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काबुल गुरुद्वारा हमला
काबुल के एक गुरुद्वारे में रविवार को हुए आतंकवादी हमले के बारे में दैनिक जागरण में अपनी राय देते हुए भारतीय जनता पार्टी के पूर्व सांसद बलबीर पुंज ने कहा कि अफगानिस्तान सिख और हिंदू-मुक्त होने के कगार पर है.
उन्होंने लिखा, ‘हमले की रिपोर्ट करते हुए, (भारतीय) मीडिया ने कहा कि अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की संख्या कम हो रही है, लेकिन किसी ने भी इसके लिए जिम्मेदार विचारधाराओं पर चर्चा करने की हिम्मत नहीं की’
उन्होंने लिखा, ‘पुरातात्विक खुदाई से यह साफ हो गया कि वर्तमान अफगानिस्तान भारतीय सांस्कृतिक विरासत का एक हिस्सा था. 12वीं शताब्दी तक, आज का अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर हिंदू धर्म-बौद्ध और शैव धर्म के प्रमुख केंद्र थे.
पुंज ने अपने लेख में कहा कि अफगानिस्तान में हिंदू और सिखों पर हमला कोई नई घटना नहीं थी.
पुंज ने लिखा, ‘चाहे वह हामिद करजई की सरकार हो या अशरफ गनी की, सिखों और हिंदुओं को निशाना बनाया जाता रहा है. 1980 के दशक तक अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की संख्या लगभग 7 लाख थी. आज इनकी संख्या को उंगलियों पर गिना जा सकता है.’
काशी, मथुरा हमेशा हिंदू समाज के एजेंडे में: विहिप
अभी एक महीने से भी कम समय पहले आरएसएस के सरसंघचालक (प्रमुख) मोहन भागवत ने दोहराया था कि संगठन किसी अन्य मंदिर आंदोलनों के पक्ष में नहीं है. विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने ऑर्गनाइज़र के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि काशी और मथुरा हिंदू समाज के एजेंडे में थे और रहेंगे.
वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद परिसर फिलहाल कानूनी विवाद का विषय है. कुछ हिंदू महिलाओं ने एक याचिका दायर कर मस्जिद परिसर के भीतर मां श्रृंगार गौरी स्थल पर साल भर पूजा करने की मांग की है. हिंदू समूहों का दावा है कि मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद हिंदू भगवान कृष्ण की जन्मभूमि है.
ऑर्गनाइज़र के साथ अपने इंटरव्यू में कुमार ने दावा किया कि इस महीने की शुरुआत में नागपुर में एक आरएसएस प्रशिक्षण शिविर के समापन समारोह के दौरान दिए गए भागवत के बयान का गलत अर्थ निकाला गया था.
उन्होंने कहा, ‘मेरी समझ यह है कि सरसंघचालक जी ने कभी नहीं कहा कि आरएसएस को काशी या मथुरा में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह बताते हैं, ‘उन्होंने कहा, आंदोलन करना आरएसएस का काम नहीं है. हम एक मानव-निर्मित संगठन है. एक अपवाद के रूप में – एक बार के अपवाद के रूप में – हमने राम जन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने का फैसला किया था. (अब जब यह खत्म हो गया है) हम अपने काम पर वापस जाएंगे’ उनके अनुसार भागवत जी ने बस इतना ही कहा था, जिसका गलत अर्थ निकाला गया.
दक्षिणपंथी हिंदी पत्रकार अनंत विजय ने भागवत के बयानों की हिंदुओं को सशक्त बनाने के आह्वान के रूप में व्याख्या की.
हिंदी अखबार दैनिक जागरण में प्रकाशित एक लेख में विजय ने लिखा, ‘जो लोग मोहन भागवत के बयान का विश्लेषण यह साबित करने के लिए करते हैं कि आरएसएस ने मुसलमानों पर अपना रुख बदल दिया है, उन्हें उनकी टिप्पणियों को उचित संदर्भ में देखना चाहिए. उन्होंने न तो अपना रुख बदला है और न ही मुस्लिम समुदाय को खुश करने के लिए ऐसा कहा है.
उन्होंने लिखा, आरएसएस ने हमेशा माना है कि भारतीय मुसलमान देश का अभिन्न अंग थे.
उन्होंने लिखा, ‘आरएसएस ने हमेशा माना है कि भारतीय मुसलमान इसी धरती से हैं. वे आक्रमणकारियों की कैटेगरी के नहीं हैं और उम्मीद करते हैं कि भारतीय मुसलमान भी खुद को आक्रमणकारियों के साथ नहीं जोड़ेंगे’
पर्यावरण के लिए चिंता
इस महीने की शुरुआत में आरएसएस के ऑर्गेनाइजर और हिंदी मुखपत्र पांचजन्य द्वारा आयोजित एक पर्यावरण सम्मेलन में पर्यावरण के लिए बढ़ते वैश्विक खतरे और विकास के विचार पर गहन चर्चा हुई.
संघ के वरिष्ठ प्रचारक गोपाल आर्य ने सम्मेलन में चर्चा करते हुए पर्यावरण के लिए खतरनाक चीजों के विकल्प तलाशने की जरूरत पर बल दिया.
आर्य ने कहा, ‘वैश्विक पर्यावरण के मसले का समाधान मनुष्य के इर्द-गिर्द घूमता है. हमें विकास को लेकर अपनी धारणा बदलने की जरूरत है. क्या हमारी विकास की रणनीतियां, दुनिया को बचाने के बारे में सोचती हैं? हमें इस पर भी विचार करना होगा.’
उन्होंने कहा, ‘आज हमें अपने जीवन जीने के तरीके को बदलना होगा. भारत में प्रति मिनट दस लाख प्लास्टिक की बोतलें बनाई जाती हैं. इसके विरोध की नहीं, बल्कि इसके लिए एक विकल्प की जरूरत है, एक समाधान की जरूरत है’
वह आगे कहते हैं, ‘हमें इसके बारे में चिंता करनी होगी. मुझे अपने घर, अपने आस-पास के वातावरण को ठीक करने की चिंता करनी होगी.’
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