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Saturday, 21 December, 2024
होमदेशपब्लिक जगहों पर बैन, पर निजी इस्तेमाल के लिए नियम अलग: 'ड्राई स्टेट' गुजरात में कभी शराब की कमी नहीं रही

पब्लिक जगहों पर बैन, पर निजी इस्तेमाल के लिए नियम अलग: ‘ड्राई स्टेट’ गुजरात में कभी शराब की कमी नहीं रही

गुजरात में शराबबंदी ने लोगों की पीने की आदतों को तो नहीं बदला. लेकिन अगर कुछ बदला तो वो यह कि लोग कैसे और क्या पीते हैं. अवैध शराब का सबसे ज्यादा खामियाजा गरीब तबके के लोगों को भुगतना पड़ा है.

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अहमदाबाद: बड़ौदा में ‘अवैध’ शराब की एक जहरीली खेप ने 125 लोगों की जान ले ली थी. अहमदाबाद में मरने वालों की संख्या 150 से ज्यादा थी. बोटाद जिले और अहमदाबाद की धंधुका नगरपालिका में अपनी जान से हाथ धोने वालों में 42 ग्रामीण थे. पहली घटना 1989 में, दूसरी 2009 में और तीसरी घटना पिछले हफ्ते की है.

घटनाएं किस दशक की हैं, अगर इस पर ध्यान न दे तों ये सभी गुजरात की उसी पुरानी कहानी को कहती नजर आती हैं कि शराबबंदी लोगों को शराब पीने से नहीं रोक पाई है. हां, इसके चलते शराब बनाने और उसके व्यापार से जुड़ी एक अवैध इंडस्ट्री को जरूर जन्म दे दिया है, जो कथित तौर पर पुलिस और राजनेताओं की सह पर पनप रही हैं.

यह एक ऐसा राज है जिसे सब जानते हैं: अमीर हो या गरीब, ऊंची जाति से हो या न हो, गुजरात में शराब तक सब की पहुंच है.

मार्च में गुजरात विधानसभा में एक लिखित उत्तर में राज्य सरकार ने बताया कि सिर्फ पिछले दो सालों में अधिकारियों ने 235 करोड़ रुपये की शराब जब्त की है. इसमें भारतीय निर्मित विदेशी शराब (IMFL) की एक करोड़ बोतलें, देशी शराब की 19 लाख बोतलें और बीयर की 12 लाख बोतलें शामिल हैं.

पिछले हफ्ते शराब से हुई मौतों के सिलसिले में गुजरात पुलिस ने कम से कम 15 गिरफ्तारियां की और कई जगह छापे मारे. वहीं इस बार पुलिस पर भी चाबुक चला है. बोटाद और अहमदाबाद ग्रामीण के जिला पुलिस अधीक्षकों (डीएसपी) का तबादला कर दिया गया और कम से कम छह पुलिस अधिकारियों को कथित तौर पर ड्यूटी में लापरवाही बरतने के आरोप में निलंबित कर दिया गया.

विशेषज्ञों का मानना है कि दशकों से ऐसा होता आ रहा है, शराबबंदी हमेशा से अपने मकसद में विफल रही है. गरीब और हशिए के लोगों के साथ तथाकथित ‘अवैध शराब से होने वाली त्रासदियों’ को रोकने में तो खासकर.

अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ के एक मानद प्रोफेसर और समाजशास्त्री विद्युत जोशी ने दिप्रिंट को बताया, ‘सामाजिक रूप से गुजरात का व्यापारी वर्ग संयम और शाकाहारी खाने के मूल्यों को मानता है. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के जरिए मजदूर वर्ग और आदिवासी समुदायों को भी इन मूल्यों को बनाए रखना था.’

हालांकि सार्वजनिक स्थानों और सामाजिक समारोह में शराब वर्जित है, लेकिन निजी इस्तेमाल को लेकर अक्सर नियम अलग हो जाते हैं. जोशी ने कहा, ‘यही कारण है कि अगर वे पी रहे हैं, तो भी वे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करेंगे कि वे पीते हैं.’

अमीर लोग अवैध रूप से शराब खरीदने के लिए तस्करी की गई IMFL की तरफ जाते हैं या फिर ‘हेल्थ परमिट’ लेकर वह आराम से शराब खरीद सकते हैं. लेकिन गरीबों को सस्ती शराब के लिए पेशेवर बुटलेगर्स यानी शराब के अवैध व्यापारियों पर निर्भर रहना पड़ता है.

जनजातीय समुदाय – 2011 की जनगणना के अनुसार आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा – कभी प्राकृतिक अवयवों के साथ अपेक्षाकृत सुरक्षित घरेलू शराब बनाया करता था. हालांकि उनका शराब बनाने का यह काम उस समय धीमा पड़ गया जब अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबंध लगाया. और फिर शराबबंदी के बाद और यह और भी कमजोर हो गया. जोशी ने आगे कहा, लेकिन बदले में जिसने इसकी जगह ली वह यकीनन और भी हानिकारक है.

कैसे बदल गई गुजरात के ‘पीने की संस्कृति’

अधिकांश लोगों का मानना यही है कि गुजरात में शराबबंदी की जड़ें महात्मा गांधी के ‘संयम’ समर्पित मूल्यों के साथ जुड़ी हैं.

जोशी के मुताबिक, शराब की बिक्री पर पहला प्रतिबंध अंग्रेजों की ओर से 1880 के दशक में आया था. उस समय मौजूदा गुजरात के बड़े इलाके बॉम्बे प्रेसीडेंसी के अधीन थे.

जोशी ने कहा, ‘(गुजरात के लोगों का) घर में शराब बनाने का एक पैटर्न था. आदिवासी महुआ बनाया करते थे. तट पर लोग ताड़ी और स्थानीय लोग अनाज और फलों से शराब बनाया करते थे.’ लेकिन अंग्रेजों ने शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया और कहा कि सिर्फ सरकारी एजेंट, ‘आम तौर पर पारसी’ ही विक्रेता के रूप में कार्य कर सकते हैं.

स्वतंत्रता के बाद जब मोरारजी देसाई बॉम्बे राज्य के मुख्यमंत्री बने, जिसमें आधुनिक महाराष्ट्र और गुजरात का अधिकांश भाग शामिल था, नियमों को और भी कड़ा कर दिया गया. 1960 में जब गुजरात अपने आप में एक राज्य बना, तो उसने शराबबंदी कानून को बरकरार रखा.

शराबबंदी ने लोगों की पीने की आदतों को तो नहीं बदला. लेकिन अगर इसने कुछ बदला तो वो यह कि लोग कैसे और क्या पीते हैं.

घरेलू शराब के लिए गन्ने के घोल को फर्मेंटेड किया जाता है और फिर उससे शराब बनाई जाती है. इस तरह से शराब बनाने वाले उद्योग संगठित हैं और नियमों को ताक पर रख, गैर-कानूनी तरीके से संचालित किए जा रहे हैं. स्थानीय पुलिस कथित तौर पर उनके साथ मिले होते है. इसके अलावा कई बार देशी शराब के असर को तेज करने और उसमें ‘किक’ जोड़ने के लिए मिथाइल अल्कोहल के साथ मिलावट की जाती है. लेकिन कई बार ये छोटी सी खुराक काफी जहरीली हो जाती है. पिछले सप्ताह इतने लोगों की मौत और बाकी घटनाएं इसी तरह से बनाई गई ‘अवैध शराब से होने वाली त्रासदियों’ से जुड़ी हुई हैं.

जोशी ने कहा, ‘ अवैध तरीके से बनी शराब का सेवन करने वाले दिहाड़ी मजदूरों के साथ अपने शोध के दौरान, मैंने पाया कि उनके शरीर जल्दी कमजोर जाते हैं. स्प्रिट उनके अंगों को बहुत जल्दी प्रभावित करती है. हालांकि उनके लिए यह आराम पाने और किसी न किसी रूप में कैलोरी हासिल करने का एक सस्ता, सुलभ तरीका है.’

कांग्रेस विधायक जिग्नेश मेवानी ने मामले में कथित लापरवाही के लिए राज्य की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार पर निशाना साधते हुए दावा किया कि गुजरात में शराब उद्योग 1,500 करोड़ रुपये से अधिक का है और विभिन्न अधिकारियों की मिलीभगत से चल रहा है.

दिप्रिंट से बात करते हुए, मेवानी ने कहा, ‘राज्य में शराब के अवैध व्यापार से स्थानीय नेताओं से लेकर कांस्टेबल और गांधीनगर में सत्ता में बैठे लोगों तक, सभी का किसी न किसी तरह का जुड़ाव है और पैसे कमा रहा है. जब भी जहरीली शराब के सेवन से त्रासदी होती है, तो हमेशा गरीब ही इस जहर का शिकार होते हैं.’

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर घनश्याम शाह ने कहा कि कार्रवाई में आमतौर पर सप्लाई चैन से जुड़े सिर्फ गरीब लोग पकड़े जाते हैं.

राज्य सरकार ने कहा है कि वह इस मामले में जरूरी कार्रवाई कर रही है. मीडिया को दिए गए एक बयान में गुजरात के गृह मंत्री हर्ष संघवी ने बताया, ‘मोस्ट वांटेड बूटलेगर्स’ को पकड़ लिया गया है और जल्द ही चार्जशीट दायर की जाएगी. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने रासायनिक मिलावट के मुद्दे और उनकी अधिक प्रभावी ढंग से निगरानी कैसे की जाए, इस पर एक उच्च स्तरीय बैठक की है.

दिप्रिंट ने फोन और मैसेज के जरिए राज्य भाजपा प्रमुख सी.आर. पाटिल से संपर्क करने की कोशिश की. लेकिन उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. टिप्पणी मिलने पर इस लेख को अपडेट कर दिया जाएगा.


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‘सेहत’ के लिए पीना जायज

गुजरात में अमीर लोग सिर्फ चोरी-छिपे शराब खरीदें, हमेशा ऐसा नहीं होता है.

शराब खरीदने की इजाजत मिल सकती है अगर आपके पास इसके लिए ‘चिकित्सा आधार’ हों. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अब तक कथित स्वास्थ्य लाभ के लिए शराब खरीदने के लिए 50,000 परमिट दिए जा चुके हैं.

2018 तक, ऐसा परमिट लेना बाकी चीजों के मुकाबले आसान और सस्ता था. लेकिन उसके बाद से हेल्थ परमिट प्रोसेसिंग फीस 1,000 रुपये से बढ़ाकर 2,000 रुपये कर दी गई. इसके अलावा निजी डॉक्टरों के बजाय सरकारी डाक्टरों से सर्टिफिकेट को मान्य बना दिया गया.

अहमदाबाद के एक 50 वर्षीय व्यापारी के पास हेल्थ परमिट है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि हेल्थ परमिट लेना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था, बशर्ते कि डॉक्टर और संबंधित अधिकारी रिश्वत लेने के खिलाफ न हों. लेकिन इन दिनों यह काफी मुश्किल हो गया है.

उन्होंने कहा, ‘सर्टिफिकेट में यह बताना जरूरी है कि मरीज को अपनी किस स्वास्थ्य संबंधी परेशानी के चलते शराब पीने की अनुमति दी गई है. इस परमिट के मिल जाने पर व्यक्ति कानूनी रूप से राज्य सरकार की दुकानों से शराब खरीद सकता है.’

मौजूदा समय में गुजरात में 66 शराब की दुकानें हैं जिन्हें इसके लिए लाइसेंस दिया गया है. इनमें से 16 अहमदाबाद के होटलों में हैं.

होटल और होम डिलीवरी

किसी होटल को शराब बेचने का लाइसेंस पाने के लिए कुछ शर्तों को पूरा करना होता है. होटल थ्री स्टार या उससे अधिक स्टार का होना चाहिए. साथ ही उसके 300 मीटर के दायरे में कोई मंदिर, स्कूल या अस्पताल न हो. होटल का राज्य पर्यटन विभाग के साथ पंजीकृत होना जरूरी है. इस सबके अलावा होटल को सभी नियमों का पालन भी करना होता है. मसलन वह किसे शराब बेच रहा है, उस ग्राहक के पास लाइसेंस है या फिर वह किसी अन्य राज्य से है.

शराब की दुकान पर काम करने वाले एक पूर्व कर्मचारी ने बताया, ‘शराब खरीदने के लिए, पर्यटक का होटल में रहना जरूरी है. अगर वह राज्य से बाहर का है तो उसे अपना टिकट और पहचान पत्र दिखाना होगा. शराब का लाइसेंस वाला एक स्टोर महीने भर में कहीं भी 75 लाख से 1.5 करोड़ रुपये की बिक्री कर सकता है.

हालांकि, जिनके पास परमिट नहीं है, उनके लिए नजदीकी बूटलेगर अगला सबसे अच्छा विकल्प है. इनमें से कुछ स्पलायर तो डोरस्टेप डिलीवरी भी देते हैं.

सूरत के एक 20 वर्षीय छात्र ने बताया, ‘शराब का मिलना बहुत मुश्किल नहीं है. हम आम तौर पर उन्हें इंपोर्टिड शराब के लिए एक दिन पहले आर्डर देते हैं और यह अगले दिन हमारे पास पहुंचा दी जाती है.’

जब भी अवैध शराब की वजह से ऐसी कोई घटना घटती है तो राज्य भर में बुटलेगर्स के लिए स्थिति कुछ समय के लिए अनिश्चित हो जाती है. अहमदाबाद में एक शराब तस्कर ने दिप्रिंट को बताया कि जब भी कोई घटना होती है, पुलिस सप्लाई रोकने के लिए महत्वपूर्ण अंतर्राज्यीय मार्गों को जाम करना शुरू कर देती है.

बूटलेगर ने कहा, ‘हम आम तौर पर हर कुछ महीनों में अपना फोन नंबर बदलते रहते हैं और अधिकांश बातचीत अब टेलीग्राम और सिग्नल (उनकी बढ़ी हुई गोपनीयता के लिए) में स्थानांतरित हो गई है.’

नियमों में ढील?

ऐसे मौके आए हैं जब गुजरात सरकार ने विदेशी पर्यटन और विशेष आयोजनों को आकर्षित करने के लिए अपने शराबबंदी कानूनों में ढील दी है.

उदाहरण के लिए, वाइब्रेंट गुजरात इन्वेस्टर्स समिट के शुभारंभ के तीन साल बाद, 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने गुजरात में सम्मेलनों और सेमिनारों के आयोजन के लिए ‘एजूकेशलन और कमर्शियल’ उद्यमों को समूह शराब परमिट की पेशकश करने वाली एक अधिसूचना पारित की. एक अन्य अधिसूचना में कुछ होटलों को मेहमानों के लिए ‘विजिटर परमिट या टूरिस्ट परमिट’ की अनुमति भी दी गई थी.

इसके अलावा, 2014 में जब राज्य वाइब्रेंट गुजरात और प्रवासी भारतीय दिवस के सातवें संस्करण की मेजबानी करने की तैयारी कर रहा था, तब सरकार ने होटल प्रबंधकों और अधिकृत शराब की दुकानों को विजिटर्स को परमिट जारी करने की अनुमति दी. उसका मतलब था कि चाहे ‘कोई व्यक्ति होटल में रुका हो या न रुका हो’ उसे शराब बेची जा सकती है. सरकार ने ऑनलाइन परमिट जारी करने की भी सुविधा प्रदान की थी.

गुजरात उच्च न्यायालय फिलहाल गुजरात निषेध अधिनियम को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं की समीक्षा कर रहा है. इस कानून का इस आधार पर विरोध किया जा रहा है कि यह विभिन्न संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. इनमें निजता का अधिकार और समानता का अधिकार भी शामिल है, क्योंकि गुजरात में केवल हेल्थ परमिट धारकों और अन्य राज्यों के पर्यटकों को पीने की अनुमति है. याचिकाकर्ताओं ने कथित तौर पर कहा है कि ‘कानून को बदलते समाज को ध्यान में रखना चाहिए.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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