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Monday, 23 December, 2024
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अटॉर्नी जनरल ने की देशद्रोह कानून को बनाए रखने की मांग, कहा- दुरुपयोग रोकने के लिए SC जारी करे गाइडलाइन

भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ देशद्रोह कानून  के खिलाफ दायर याचिकाओं की सुनवाई कर रही है. अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने इसके दुरुपयोग के उदाहरण के रूप में महाराष्ट्र में राणा दंपत्ति की गिरफ्तारी का हवाला दिया.

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नई दिल्ली: भारत के महान्यायवादी (अटॉर्नी जनरल) के.के. वेणुगोपाल ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट को सलाह दी कि वह केदारनाथ मामले में अपने 1962 के उस फैसले की पुनर्समीक्षा न करें, जिसमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए, जो देशद्रोह की सजा देता है, की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया था.

लेकिन वेणुगोपाल ने माना कि इस कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए शीर्ष अदालत की ओर से दिशा-निर्देशों की आवश्यकता है. इस तरह के दुरुपयोग के एक उदाहरण के रूप में, उन्होंने पिछले महीने सांसद नवनीत कौर राणा और उनके विधायक पति रवि राणा की गिरफ्तारी का हवाला दिया – इस मामले में इस दंपत्ति ने पहले महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे के आवास के बाहर हनुमान चालीसा का पाठ करने की योजना बनाई थी और फिर उसे रद्द कर दिया था.

वेणुगोपाल ने कहा,‘(इस) दुरुपयोग को नियंत्रित करना होगा. इस अदालत को इस बारे में दिशा-निर्देश निर्धारित करने चाहिए. माय लॉर्ड्स, ने देखा है कि इस देश में क्या हो रहा है? हाल ही में, किसी को सिर्फ इस बात के लिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि वे हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहते थे. हालांकि उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया है. लेकिन ये ऐसे उदाहरण हैं जिन पर योर लार्डशिप को विचार करना चाहिए और धारा 124ए के मामलों में लागू होने वाले दिशा-निर्देशों को निर्धारित करना चाहिए.’

उन्होंने कहा कि अदालत को यह निर्दिष्ट करना चाहिए कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के तहत किस बात की अनुमति है, और किसकी नहीं है जिसे राजद्रोह के तहत शामिल किया जा सकता है.

वेणुगोपाल ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एनवी रमना की अगुवाई वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ- जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत और हेमा कोहली शामिल थे – के समक्ष अपनी दलीलें दीं. इस पीठ ने आईपीसी की धारा 124 ए की वैधता पर सवाल उठाने वाली याचिकाओं के एक बैच को अपने अधिकार में ले लिया है. वेणुगोपाल इस मामले में अपनी व्यक्तिगत क्षमता में पेश हो रहे हैं, और केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं.

हालांकि, याचिकाकर्ताओं ने अपनी दलीलों में इस मामले को एक बड़ी पीठ को सौंपने की मांग की थी  – चूंकि केदारनाथ मामले का फैसला पांच – न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया था – मगर उनके वकील ने गुरुवार को तर्क दिया कि ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है और तीन-न्यायाधीशों की पीठ भी इस मुद्दे को सुनने के लिए सक्षम है.

इस बीच, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जो भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, ने इन याचिकाओं पर आधिकारिक प्रतिक्रिया दर्ज करने के लिए और समय मांगा. मेहता ने कहा कि उन्हें अभी सक्षम अधिकारियों के जवाब का इंतजार है.

पीठ मेहता की मांग को समायोजित करने के लिए तो सहमत हो गई, लेकिन इसने उन्हें ज्यादा मोहलत नहीं देने का फैसला किया. सीजेआई रमना ने सुनवाई के दौरान केंद्र के रुख पर नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा, ‘लगभग 10 महीने पहले नोटिस जारी किए गए थे; कुछ मामलों में तो नोटिस बहुत पहले जारी कर दिए गए थे .‘

पीठ ने मेहता को सोमवार तक अपना जवाब दाखिल करने की अनुमति दी और याचिकाकर्ताओं की सुनवाई के लिए 10 मई की तारीख तय की.  इसने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ताओं को पहले अपने तर्क से पीठ को संतुष्ट करना होगा कि क्यों इन याचिकाओं को एक सात-न्यायाधीशों की पीठ को भेजे जाने की आवश्यकता नहीं है, और कैसे तीन न्यायाधीशों की वर्तमान संरचना धारा 124ए के मुद्दे की संवैधानिक वैधता पर उनकी सुनवाई के लिए सक्षम है.

अदालत ने याचिकाकर्ताओं और केंद्र दोनों को इस सीमित मुद्दे पर शनिवार सुबह तक लिखित में अपना पक्ष रखने को कहा.


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केदारनाथ मामले का फैसला काफी ‘अधिकारपूर्ण था‘, प्रिवी काउंसिल के खतरनाक‘  फैसले को किया था खारिज 

वेणुगोपाल ने अदालत के कहने पर अपनी प्रारंभिक दलीलें पेश कीं. उन्होंने कहा कि 1962 के केदारनाथ मामले का फैसला (केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य) एक अधिकारपूर्ण घोषणा थी जो देशद्रोह पर बने कानून के पूरे इतिहास का पता लगाती है. इसने ब्रिटिश प्रिवी काउंसिल के उस फैसले को खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि सरकार के खिलाफ किसी भी भाषण, चाहे वह हिंसक प्रवृत्ति का न हो, पर धारा 124 ए लागू होगी.

वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट से पहले वाले भारत के संघीय न्यायालय का हवाला देते हुए तर्क दिया, ‘यह बेहद खतरनाक था क्योंकि आप किसी सरकार की आलोचना भी नहीं कर सकते थे. लेकिन केदार नाथ मामले के फैसले ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया और संघीय न्यायालय के फैसले का विकल्प चुना जिसका अनुच्छेद 374 (2) के अनुसार सभी अदालतों पर बाध्यकारी प्रभाव पड़ा. यह अनुच्छेद कहता है कि संघीय न्यायालय के फैसले को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के रूप में माना जाएगा.‘

फेडरल कोर्ट के फैसले में, जो प्रिवी काउंसिल के फैसले से पहले दिया गया था, यह माना गया था कि किसी भी रूप में दिया गया भाषण – विरोध प्रदर्शन में या सड़क पर या रैली में – पर धारा 124 ए को तभी लागू किया जा सकेगा जब यह हिंसा को उकसाए या जिसका परिणाम सार्वजनिक अव्यवस्था के रूप में हो.

इसके वर्तमान प्रयोग के बारे में बोलते हुए, वेणुगोपाल ने कहा कि राज्य धार्मिक संघर्ष और अन्य घटनाओं के लिए – भले ही इसके परिणामस्वरुप सार्वजनिक अव्यवस्था न हो – इसका उपयोग करके इस कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. उन्होंने अदालत से पूछा,‘ऐसे मामलों में अदालत के सामने यह सवाल उठता है कि क्या कोई क़ानून, जो अपने मूल रूप में वैध है, लेकिन जिसका दुरुपयोग और दुष्प्रयोग किया जाता है तथा इसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले तरीके से लागू किया जाता है, तो क्या वह एक खराब कानून है?’

(इस खबर को अंंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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