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Thursday, 31 October, 2024
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ट्रांसजेंडर को OBC आरक्षण देने का इलाहाबाद हाईकोर्ट का सुझाव न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है

ट्रांसजेंडर के अधिकारों की सुरक्षा का एक बेहतर तरीका ये है कि उन्हें उनकी जाति में क्षैतिज आरक्षण दिया जाए.

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इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह फैसला इन दिनों काफी चर्चा में है, जिसमें अदालत ने उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण देने के नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है और ओबीसी आरक्षण के बिना चुनाव कराने का आदेश दिया है. कोर्ट ने कहा है कि ओबीसी को आरक्षण देने से पहले राज्य सरकार एक आयोग बनाए जो पिछड़ेपन का ज़मीनी आंकड़ा जुटाए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित ट्रिपल टेस्ट पूरा करने के बाद ही ओबीसी को निकाय चुनाव में आरक्षण दिया जा सकता है.

इस फैसले में इसके अलावा एक ऐसी बात भी है, जिस पर कम लोगों का ध्यान गया है, लेकिन जिसका सरकारी नीतियों और सामाजिक ढांचे पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि राज्य सरकार जो आयोग बनाएगी, उसे ट्रांसजेंडर (उभयलिंगी, किन्नर और कई अन्य अशोभनीय शब्द इनके लिए इस्तेमाल होते हैं) लोगों को पिछड़े वर्ग में शामिल करने पर विचार करना चाहिए.

हाई कोर्ट ने इस आदेश के जरिए एक ऐसा रास्ता खोल दिया है, जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. इससे न सिर्फ सामाजिक न्याय की संवैधानिक योजना ध्वस्त हो सकती है, बल्कि ये न्याय के नैतिक सिद्धांतों के भी खिलाफ है. संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत गठित दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन की सिफारिशों और सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा साहनी फैसले के भी ये खिलाफ होगा.

ये सही है कि ट्रांसजेंडर लोग समाज में कई तरह की वंचनाएं और भेदभाव झेलते हैं. उनका मजाक उड़ाया जाता है और उन पर शारीरिक हमले भी होते हैं. लेकिन ये वजह काफी नहीं है जिसकी वजह से तमाम जातियों के ट्रांसजेंडर को सामाजिक रूप से समान रूप से पिछड़ा माना जाए और उन्हें ओबीसी की लिस्ट में शामिल कर लिया जाए. ट्रांसजेंडर को समाज की मुख्यधारा में लाने और उन्हें अवसर प्रदान करने का सही तरीका कुछ और है, जिस पर आगे बात की जाएगी. लेकिन हर जाति के ट्रांसजेंडर को ओबीसी बना देना समाधान नहीं है. इसकी तीन प्रमुख वजहें हैं.


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सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गलत समझा गया

एक, इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिए उचित होता कि वह इस मामले में व्याख्या करने या आदेश देने से परहेज करता. हाई कोर्ट के सामने केस नगर निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण देने या न देने के बारे में था. ट्रांसजेंडर का मामला तो बस एक याचिका में उठा भर दिया गया था. ट्रांसजेंडर को नगर निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण देने पर न तो कोई कानून है और न ही कोई कोर्ट आदेश. दरअसल ऐसा करके हाई कोर्ट ने कानून बनाने जैसा काम किया है, जो संसद और विधानसभाओं का कार्यक्षेत्र है. कोर्ट का काम कानून की समीक्षा करना है. कानून बनाना नहीं.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ट्रांसजेंडर के बारे में आदेश देते समय नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी बनाम भारत सरकार मुकदमे में 2014 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला दिया है. लेकिन हाई कोर्ट ने नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी केस के फैसले को गलत तरह से पढ़ा है. इस मामले का निकाय चुनावों से कोई लेना-देना नहीं है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के मामले में आया था.

लिंगभेद, जाति और दोनों के संबंध

दो, 2014 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी समस्यामूलक है और इस कारण इसे लागू नहीं कराया जा सका है. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी इस प्रस्ताव को गलत करार दिया था. अगर इतिहास में जाएं तो पाएंगे कि संविधान निर्माताओं ने न्याय और समानता के सवालों पर विचार करते हुए विशेष अवसर के सिद्धांतों को लाया. अवसरों की समानता को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया. वंचित और पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए संविधान में तीन अनुच्छेद 340, 341 और 342 हैं, जिनके जरिए एससी,एसटी और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग या ओबीसी की पहचान की व्यवस्था की गई है. ये तमाम पिछड़ापन ऐतिहासिक हैं और समाज व्यवस्था के कारण हैं. जेंडर या शारीरिक अक्षमता या ग्रामीण इलाके का होने जैसे भेदभाव के कारणों को संविधान ने आरक्षण या अफर्मेटिव एक्शन का सामुदायिक आधार नहीं माना है.

संविधान के अनुसार आऱक्षण के लिए दो प्रमुख शर्तें हैं – पिछड़ापन और हिस्सेदारी का अभाव. संविधान का अनुच्छेद 16 (4) इस मामले में स्पष्ट है. इसके साथ अगर अनुच्छेद 340 को पढ़ें, तो पाएंगे कि जिस सामाजिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार माना गया है, उस कसौटी में सभी जातियों के ट्रांसजेंडर फिट नहीं बैठते. दरअसल सभी जातियों के ट्रांसजेंडर को एक सामाजिक वर्ग मानना ही गलत होगा क्योंकि वे एक सामाजिक वर्ग हैं ही नहीं.

एक ब्राह्मण ट्रांसजेंडर को सामाजिक पायदान पर एक दलित या पिछड़े ट्रांसजेंडर के बराबर नहीं रखा जा सकता. दोनों की सामाजिक हैसियत और सामाजिक वंचना में अंतर है. सवर्ण ट्रांसजेंडर को जाति की वह वंचना या भेदभाव नहीं झेलना पड़ता है, जैसी वंचना दलित या पिछड़े वर्ग से आने वाले ट्रांसजेंडर झेलते हैं. सवर्ण जातियों के ट्रांसजेंडर को अपनी जाति, संस्कृति, समाज में स्थान और जानपहचान का लाभ मिल सकता है. ये लाभ बाकी ट्रांसजेंडर के लिए नहीं हैं.

मिसाल के तौर पर, जब अखाड़ा परिषद को लगा कि उसे प्रगतिशील बनना चाहिए और ट्रांसजेंडर को भी महामंडलेश्वर बनाना चाहिए तो उन्होंने किसी और को नहीं, लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को ही अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया. ऐसे उदाहरण भी है कि दलित समुदाय से आने वाले ट्रांसजेंडर को जातीय उत्पीड़न झेलना पड़ता है और ऐसे मामलों में एससी-एसटी एक्ट भी लगाया गया. कई दलित ट्रांसजेंडर ने अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर बताया है कि उनके बीच जातीय भेदभाव होता है या फिर सवर्ण ट्रांसजेंडर को कई तरह के तुलनात्मक प्रिविलेज भी हैं.


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भारत में भेदभाव का आधार जाति

तीन, भारत में भेदभाव का जो ढांचा है उसकी बुनियाद जाति है. इसलिए भेदभाव उन्मूलन के किसी भी कार्यक्रम में अगर जाति के तत्व की अनदेखी की गई, तो लाभ सही लोगों तक नहीं पहुंच पाएगा.

मंडल कमीशन के सामने भी ये सवाल आया था कि सामाजिक पिछड़ापन का आधार किसे माना जाए. आयोग ने इस मामले में अपनी स्पष्ट समझ बनाई और जाति को सामाजिक पिछड़ेपन की बुनियाद माना. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि – ‘निचली जातियां सिर्फ सामाजिक तौर पर नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक रूप से भी पिछड़ी हैं. दूसरी तरफ, आगे बढ़ी हुई जातियां इन तमाम मानकों पर अगड़ी हैं.’ मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो नौ जजों की बेंच ने इंदिरा साहनी केस में जाति को पिछड़ेपन का आधार माना. जस्टिस एस. रत्नवेल पांडियन ने अपने फैसले में लिखा- “सामाजिक पिछड़ापन ही शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन का कारण बनता है. ये सब आपस में जुड़ी हुई बातें हैं. भारतीय समाज में निचले माने गए कार्यों से जुड़ा होना पिछड़ेपन का कारण है. भारत में जाति ही अक्सर सामाजिक वर्ग है या हो सकती है.”

इस मायने में देखें तो जाति उन्मूलन कार्यकर्ता रितेश ज्योति की ये बात सही जान पड़ती है कि – “एससी, एसटी और ओबीसी के ट्रांसजेंडर को ब्राह्मणवादी समाज में एक साथ जाति और लिंग भेद का सामना करना पड़ा है. 2021 में जब केंद्र सरकार ने सभी ट्रांसजेंडर को ओबीसी में शामिल करने के लिए एक कैबिनेट नोट लाया तो, दलित ट्रांस एक्टिविस्ट ग्रेस बानू ने इसी आधार पर इसका विरोध किया.

समस्या और समाधान

ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए लिए सरकार को विशेष कार्यक्रम लाने चाहिए और शिक्षा और नौकरी में उनका स्थान सुनिश्चित करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए. समस्या का आकलन करने के मामले में सही होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इसका गलत समाधान प्रस्तुत किया. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जॉन रॉल्स के न्याय के सिद्धांत और अमर्त्य सेन के न्याय के वितरण के सिद्धांत का उल्लेख किया है जो सही भी है. लेकिन अंत में आकर सुप्रीम कोर्ट ने एक वंचित समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खड़ा कर दिया. कोर्ट ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि सभी ट्रांसजेंडर को एक मानकर ओबीसी में शामिल कर देने से एससी, एसटी, ओबीसी के ट्रांसजेंडर के हित कैसे सुरक्षित रहेंगे. न ही इस बात का ध्यान रखा गया कि सभी जातियों के ट्रांसजेंडर को अगर ओबीसी में डाला गया तो ओबीसी के हितों पर पड़ने वाले असर को कैसे दूर किया जाएगा.

ट्रांसजेंडर के सशक्तिकरण का एक सुसंगत समाधान ग्रेस बानू सुझाती है. उनका सुझाव है कि विभिन्न जाति समूहों के ट्रांसजेंडर को उनकी अपनी कास्ट कटेगरी में आरक्षण दिया जाए. इसे हॉरिजेंटल या क्षैतिज आरक्षण कहते हैं. ऐसा आरक्षण शारीरिक रूप से असमर्थ (PH) लोगों को दिया जाता है. महिलाओं और रिटायर्ड सैनिकों के मामले में भी कई राज्यों में ऐसा आरक्षण है. इसमें किसी जाति या सामाजिक वर्ग को कोई नुकसान नहीं है और ट्रांसजेंडर को आरक्षण भी मिल जाएगा.

अगर ट्रांसजेंडर को ओबीसी के अंदर आरक्षण दिया गया तो ओबीसी हितों का भारी नुकसान होगा.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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