scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होमदेश'फोटो दिखाकर पुलिस ने नाम रटवाया है', सुरिंदर कोली के 'कबूलनामा' पर क्यों इलाहाबाद HC ने उठाया सवाल

‘फोटो दिखाकर पुलिस ने नाम रटवाया है’, सुरिंदर कोली के ‘कबूलनामा’ पर क्यों इलाहाबाद HC ने उठाया सवाल

एचसी ने कहा कि लंबी पुलिस हिरासत और मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज करने में देरी यह सुनिश्चित करने के लिए हो सकती है कि कोली "जांच एजेंसी द्वारा उसे सिखाई गई कनफैशन को याद रख सके"

Text Size:

नई दिल्ली: इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश इस बात को बिल्कुल भी नजरअंदाज नहीं कर पाए, जिस ढंग से निठारी कांड के आरोपी सुरिंदर कोली ने ‘रटे हुए अंदाज़ में’ अपने कबूलनामे को दोहरा, जिसमें अपराध के विवरण भी शामिल थे और जिसके बारे में उसका दावा है कि उसे ये सब रटवाया गया था. और अभियोजन पक्ष के प्रमुख सबूतों को “अविश्वसनीय” बताते हुए खारिज कर दिया गया.

कोली ने मजिस्ट्रेट को दिए अपने बयान में कहा, “नाम…फोटो देख कर…पुलिस ने रटवाया है.”

सोमवार को, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में कोली को 12 मामलों में और उसके नियोक्ता मनिंदर पंधेर को दो मामलों में बरी कर दिया. हालांकि, कोली 2005 में 14 वर्षीय लड़की के बलात्कार और हत्या के मामले में सलाखों के पीछे रहेगा.

एचसी ने एक महिला की हत्या और यौन उत्पीड़न से संबंधित मामले में जिसे अदालत ने ‘पीड़ित ए’ के रूप में संदर्भित किया है, कहा, “कबूलनामे में, आरोपी ने पुलिस पर यातना का आरोप लगाया है, जो साक्ष्य अधिनियम की धारा 24 के आधार पर बयान को अविश्वसनीय बनाता है.”

उपर्युक्त धारा में कहा गया है कि किसी अभियुक्त द्वारा किया गया कोई भी कबूलनामा अप्रासंगिक है, यदि अदालत को कबूलनामा प्रलोभन, धमकी या वादे के तहत दिया गया प्रतीत होता है.

1 मार्च 2007 को दर्ज किए गए अपने कबूलनामे में, कोली ने विस्तार से वर्णन किया है कि कैसे वह पीड़ितों को बहला-फुसलाकर घर में लाता है, उनके बेहोश होने के बाद उनके साथ बलात्कार करने की कोशिश करता था और फिर उन्हें मार डालता है, और उनमें से कुछ को पकाया और खा लिया जाता था. बाद के भाग में, उन्होंने उल्लेख किया कि कैसे उन्हें पीड़ितों के नाम याद रखने और उनकी पहचान करने के लिए मजबूर किया गया था.

बचाव पक्ष ने इसे यह कहते हुए चुनौती दी कि यह जबरदस्ती बयान को “ख़राब”, अविश्वसनीय और अनैच्छिक बनाती है. इसमें यह भी कहा गया है कि कोली का बयान 60 दिनों की लंबी और निर्बाध पुलिस हिरासत के बाद ही दर्ज किया गया था और इस प्रकार उसे यह सब “सिखाया” गया है.

इसमें कहा गया है कि मजिस्ट्रेट को दिए गए कोली के बयान में स्पष्ट रूप से ‘रटवाए’ गए शब्दों का इस्तेमाल किया गया है और जांच एजेंसियों पर उसे पीटने का आरोप लगाया गया है.

बचाव पक्ष ने आरोप लगाया कि कोली के नाखून तोड़ दिए गए और गुप्तांग जला दिए गए हैं और उसे धमकी दी गई कि अगर उसने कबूल नहीं किया तो उसका परिवार खतरे में पड़ जाएगा.

अपने बयान में, कोली ने दावा किया कि उसे उसके कबूलनामे के महत्वपूर्ण पहलुओं, उनके नाम, समय, हत्या के तरीके को याद करने के लिए कहा गया था. अदालत ने कहा कि 18 अलग-अलग मौकों पर, वह विवरण याद नहीं रख सका.

हाई कोर्ट ने बचाव पक्ष द्वारा दी गई दलीलों में योग्यता पाई. आदेश में कहा गया कि “आरोपी एसके (सुरिंदर कोली) का कबूलनामा अभियोजन मामले के अनुरूप बनाया गया है.”


यह भी पढ़ें: नूपुर शर्मा और जुबैर के खिलाफ ‘धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने’ वाली FIR 1 साल से ‘ठंडे बस्ते में’ है


लंबी हिरासत और यातना

कोली को पुलिस ने 29 दिसंबर 2006 को गिरफ्तार किया था, जबकि मामला जनवरी 2007 में सीबीआई को स्थानांतरित कर दिया गया था लेकिन उसका बयान 1 मार्च 2007 को दर्ज किया गया था.

अपने कबूलनामे में, उसने विस्तार से वर्णन किया है कि कैसे वह पीड़ितों को फुसलाकर घर ले जाता था, उनके बेहोश होने के बाद उनके साथ बलात्कार करने की कोशिश करता और फिर उन्हें मार डालता था, और उनमें से कुछ को पकाकर खा लिया जाता था.

हालांकि, इस बयान को अनैच्छिक माना गया क्योंकि रिकॉर्डिंग मजिस्ट्रेट ने इस कनफैशन के स्वैच्छिक होने के बारे में अपनी संतुष्टि दर्ज नहीं की थी.

इलाहाबाद एचसी पीठ ने यह बताते हुए कि कोली का बयान धारा के तहत नहीं है – उन्होंने कहा, “मजिस्ट्रेट ने केवल ‘लगता है’ शब्द का इस्तेमाल किया, जिसे सीआरपीसी की धारा 164 के संदर्भ में कनफैशन की स्वैच्छिकता के विश्वास के रूप में नहीं माना जा सकता है.”

प्रक्रिया के अनुसार, किसी आरोपी के कबूलनामे पर कार्रवाई करने से पहले उसे स्वैच्छिक दिखाया जाना चाहिए. बिना किसी ज्ञापन के स्वीकारोक्ति कि यह स्वैच्छिक है, उसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है.

हाई कोर्ट ने यह भी सवाल किया कि कोली, जिसने 29 दिसंबर को ही पुलिस के सामने अपना कबूलनामा दर्ज कराया था, जिसके बाद कथित तौर पर उसकी निशानदेही पर हड्डियां और खोपड़ियां बरामद की गईं, को दो महीने बाद ही मजिस्ट्रेट के सामने क्यों लाया गया.

एचसी ने कहा कि लंबी पुलिस हिरासत और मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज करने में देरी यह सुनिश्चित करने के लिए हो सकती है कि कोली “जांच एजेंसी द्वारा उसे सिखाई गई कनफैशन को याद रख सके और उसे रट्टा मार सके.”

यह बेहद अप्राकृतिक है और तर्क को खारिज करता है कि कोली को यह बात याद नहीं थी कि उसने शवों को किस तरीके से ठिकाने लगाया था, क्या उसने उनके साथ यौन संबंध बनाए थे या क्या उसने उनके कुछ हिस्से खाए थे. पीठ ने पीड़ितों को फंसाने के क्रम और तरीके पर गौर करते हुए कहा कि लेकिन उसे यह सब अच्छे से याद था.

पीठ ने कहा, ”यह भी आश्चर्य की बात है कि उसे पीड़ितों के नाम या प्रत्येक अपराध की तारीख याद नहीं है, लेकिन वह अपने कबूलनामे में हत्याओं के क्रम को कालानुक्रमिक रूप से बताने में सक्षम है. जो कि “लगभग असंभव” है कि इन अपराधों के दौरान कोई चीज़ उसके लिए बाधा नहीं बनी हो.”

इसके अलावा, उसके कबूलनामे के अनुसार, शवों को बाथरूम में घंटों तक रखा गया था. हालांकि, कोई खून का धब्बा नहीं मिला और यह “असंभव” है कि किसी अन्य नौकर ने कुछ भी नोटिस नहीं किया हो.

कोली का कोई पूर्व आपराधिक रिकॉर्ड या मानव मांस काटने का ज्ञान नहीं होने के बावजूद, उसके कबूलनामे में 16 “समान हत्याओं” में शवों को टुकड़े-टुकड़े करने में एक भी विफलता का उल्लेख नहीं है.

कोई कानूनी सहायता और चिकित्सा नहीं

कोली ने मजिस्ट्रेट को दिए अपने बयान में कहा, जिसमें से 2-3 फोटो ऐसी थी मतलब उसमें से मेरे को काफी टॉर्चर किया और तब जा कर के मतलब जो इन्होंने मेरे को कबूल करवाया था. अच्छा! बहुत ज्यादा टॉर्चर किया गया था मेरे को…

हालांकि, 28 फरवरी 2007 को कोली को तिहाड़ जेल अधिकारियों को सौंपने से पहले मेडिकल परीक्षण कराने के अदालत के आदेश के बावजूद, उसके बयान दर्ज होने के दिन तक कोई मेडिकल परीक्षण नहीं किया गया था, जिसे न्यायाधीशों ने ‘संदिग्ध’ कहा.

अदालत ने कहा, “अदालत के स्पष्ट आदेश के बावजूद मेडिकल जांच करने में सीबीआई की विफलता बेहद संदिग्ध है और साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 (जी) के तहत प्रतिकूल निष्कर्ष को जन्म देती है.”

इसके अलावा, जिस डॉक्टर ने राय दी थी कि कोई बाहरी चोट नहीं मिली है, उसे भी अदालत में पेश नहीं किया गया.

एचसी ने कहा, “अपना कबूलनामा लेने के लिए आरोपी को गंभीर शारीरिक यातना देने के विशिष्ट आरोप के बावजूद, उसकी मेडिकल जांच न होने से बयान अविश्वसनीय हो गए हैं.”

इसमें यह भी बताया गया है कि कैसे कोली, जिसने केवल कक्षा 7 तक पढ़ाई की थी, ने अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने अपना कबूलनामा “औपचारिक भाषा” में दर्ज करने की पेशकश की.

एचसी ने कहा, कोली को कोई कानूनी सहायता नहीं दी गई और उसे मिली एकमात्र कानूनी सहायता मजिस्ट्रेट द्वारा प्रदान की गई 5 मिनट की थी, जो उसके “अस्वीकार” के बराबर है और “आरोपी के लिए न्याय की विफलता का कारण बना.”

इसमें कहा गया है कि जब आरोपी के कबूलनामे का वीडियो टेप किया जा रहा था तो उसे कानूनी सहायता भी नहीं दी गई.

अदालत ने यह भी कहा कि सीडी को दिए गए साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी के तहत कोई प्रमाण पत्र नहीं है, जो कोली के कबूलनामे की प्रतिलेख रिकॉर्डिंग का आधार है. इसके अलावा, मेमोरी चिप, जो प्राथमिक दस्तावेज़ है, को सीआरपीसी की धारा 164(6) के तहत आवश्यक होने पर अदालत में नहीं भेजा गया था. इसमें कहा गया है कि सीडी पर आरोपी और रिकॉर्डिंग मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर भी नहीं हैं, जो कि धारा 281 के तहत अनिवार्य है.

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘बॉयज़ लॉकर रूम’ याद है? 2020 के इस मामले में सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई है, फाॅरेंसिक रिपोर्ट का इंतजार


 

share & View comments