नई दिल्ली: दिल्ली एंटी करप्शन ब्यूरो का नियंत्रण? चेक कीजिए. कृषि भूमि की दरों में बदलाव? चेक कीजिए. जांच आयोग बिठाने की शक्ति? चेक कीजिए. राष्ट्रीय राजधानी में सिविल सर्विसेज़ का कंट्रोल? इसपर अभी फैसला होना बाक़ी है.
क़रीब दो साल होने जा रहे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अभी एक विवादास्पद पर मुद्दे पर फैसला नहीं लिया है, जो राष्ट्रीय राजधानी के प्रशासन को लेकर, दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच सत्ता के बटवारे से जुड़ा है. सवाल ये है कि दिल्ली में, जो एक केंद्र-शासित क्षेत्र (यूटी) है, ‘सेवाओं’ पर किसका नियंत्रण है.
दिल्ली में शक्तियों के बटवारे का मुद्दा बरसों से, एक सीखी बहस के केंद्र में बना हुआ है- चूंकि ये राष्ट्रीय राजधानी है इसलिए केंद्र सरकार ने, सार्वजनिक व्यवस्था जैसे कुछ विषयों पर, अधिकार अपने पास रखे हुए हैं.
अधिकार-क्षेत्र से जुड़े दूसरे बहुत से मामलों को, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया गया, न्यायपालिका ने अपने हाथ में लिया, और किसी न किसी रूप में उन्हें तय कर दिया.
मसलन, फरवरी 2019 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया, कि विशेष सरकारी वकील को नियुक्त करने का अधिकार दिल्ली सरकार के पास रहेगा, लेकिन साथ ही ये भी कहा, कि एसीबी के ऊपर अकेले केंद्र सरकार का अधिकार है.
लेकिन, सेवाओं के मामले ने इस आदेश को देने वाली बेंच को विभाजित कर दिया, और इस मामले को सुप्रीम कोर्ट की एक तीन-सदस्यीय पीठ को सौंप दिया गया.
उसके बाद से इस केस में सिर्फ तीन एक-एक लाइन के आदेश देखे गए हैं- जिन सभी में मामले को अलग-अलग तारीख़ों के लिए टाल दिया गया.
धारा 239 एए
केंद्र और दिल्ली की सरकारों के बीच, टकराव का मुख्य बिंदु धारा 239एए है, जिसे संविधान (69वें संशोधन) अधिनियम 1991, के ज़रिए प्रभाव में लाया गया था.
इस प्रावधान में एक केंद्र-शासित क्षेत्र के नाते, दिल्ली को एक विशेष दर्जा दिया गया, जिसके तहत उसकी एक विधान सभा होगी, और एक उप-राज्यपाल होगा (एलजी) होगा- जो केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होगा- जो उसका प्रशासनिक मुखिया होगा. यही वो समय भी था जब दिल्ली का नाम बदलकर, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी) दिल्ली रखा गया.
इस बीच, संविधान की धारा 239 का संबंध केंद्र-शासित क्षेत्रों के प्रशासन से है. और उसमें कहा गया है, कि प्रत्येक संघ राज्यक्षेत्र का प्रशासन राष्ट्रपति द्वारा किया जाएगा, और वह अपने द्वारा ऐसे पदाभिधान सहित, जो वह विनिर्दिष्ट करे, नियुक्त किए गए प्रशासक के माध्यम से करेगा
एक यूटी के तौर पर दिल्ली को एक विशेष दर्जा प्राप्त होने के नाते, दिल्ली के उप-राज्यपाल की प्रशासनिक शक्तियों से जुड़े क़ानूनी मसले, 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट पहुंच गए.
उसी साल, आम आदमी पार्टी (आप) एक भारी बहुत से चुनाव जीतकर, दिल्ली की सत्ता में आई थी. क्षेत्राधिकार के कुछ मुद्दों पर उप-राज्यपाल से तकरार होने के बाद, जिनमें एक मुद्दा ये भी था कि क्या दिल्ली सरकार के पास, राजधानी में तैनात केंद्रीय कर्मचारियों के खिलाफ, एसीबी जांच शुरू करने का अधिकार है- अरविंद केजरीवाल प्रशासन कोर्ट चला गया.
हाईकोर्ट के समक्ष विवाद का विषय ये था, कि दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास, दिल्ली के उप-राज्यपाल की तुलना में क्या अधिकार हैं.
4 अगस्त 2016 को, हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, धारा 239एए के बावजूद एक यूटी ही है, और धारा 239 के अनुसार, उप-राज्यपाल ही उसका प्रशासनिक प्रमुख है.
हाईकोर्ट ने इस दलील को ख़ारिज कर दिया, कि जिन मामलों में दिल्ली सरकार के पास क़ानून बनाने का अधिकार है, उनमें एलजी मंत्री परिषद की सलाह के अनुसार काम करने को बाध्य है. कोर्ट ने ये भी फैसला दिया कि ‘सेवाएं’, दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं. कोर्ट ने कहा कि सेवाएं, ‘एक ऐसा विषय हैं जिनके मामले में, उप-राज्यपाल को अपने विवेक के अनुसार कार्य करना है’.
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‘एक अलग श्रेणी’
इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपीलें दायर की गईं, जिसने कुछ मुद्दों को एक संविधान पीठ के हवाले कर दिया.
4 जुलाई 2018 को, एक पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला सुनाया, कि दिल्ली एक राज्य नहीं है, और कहा कि ‘एनसीटी दिल्ली के दर्जे की एक अलग ही श्रेणी है, और दिल्ली के उप-राज्यपाल का दर्जा, किसी प्रांत के राज्यपाल जैसा नहीं है, बल्कि एक सीमित अर्थ में, वो एक प्रशासक है जो उप-राज्यपाल के पदनाम के साथ काम कर रहा है’.
बेंच ने कहा कि चूंकि एलजी दिल्ली का प्रशासक है, इसलिए उसे सभी मामलों में, मंत्री परिषद की सहायता और सलाह पर काम करना होगा, सिवाय ज़मीन, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस के.
कोर्ट ने कहा कि दिल्ली एक राज्य नहीं है, लेकिन इस बात का हवाला दिया, कि उसका एक विशेष दर्जा है और उसकी एक विधान सभा है, और दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्तियों के दायरे में वो सब विषय होंगे, जिनपर विधान सभा को क़ानून बनाने का अधिकार है
धारा 239एए(4) में एलजी को अनुमति है, कि वो ऐसे ‘किसी भी विषय’ को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज सकता है, जहां एलजी का मंत्री परिषद के साथ मतभेद है. बेंच ने स्पष्ट किया कि इस अधिकार का इस्तेमाल, केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकता है.
बेंच ने आगे कहा, ‘उप-राज्यपाल को अपने दिमाग़ का इस्तेमाल किए बिना, एक मशीनी अंदाज़ में काम नहीं करना चाहिए, और मंत्री परिषद के हर फैसले को राष्ट्रपति के पास नहीं भेजना चाहिए’.
ACB केंद्र के साथ, और सरकारी वकील दिल्ली सरकार के पास
व्यापक सिद्धांत तय कर देने के बाद, संविधान पीठ ने कहा कि दो जजों की एक बेंच, इन सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए, अपीलों में उठाए गए व्यक्तिगत, और विशिष्ट मुद्दों की सुनाई करेगी.
उसके बाद जस्टिस एके सिकरी, और जस्टिस अशोक भान की एक बेंच ने, केंद्र और दिल्ली की सरकारों के बीच टकराव के विभिन्न मुद्दों को देखा. इन मुद्दों में सिविल सर्वेंट्स की नियुक्तियों और तबादलों के अधिकार, एसीबी का नियंत्रण, जांच आयोग की स्थापना, और कृषि भूमि के सर्कल रेट्स में बदलाव शामिल हैं.
अधिकतर बिंदुओं पर दोनों जज सहमत थे. मसलन, उन्होंने फैसला दिया कि विशेष सरकारी वकील को नियुक्त करने का अधिकार, एनसीटी सरकार के पास रहेगा. उन्होंने आगे कहा कि विशेष सरकारी वकील को नियुक्त करने में, एलजी को मंत्री परिषद की सहायता और सलाह पर काम करना है.
कृषि भूमि की न्यूनतम दरों में संशोधन के मुद्दे पर, बेंच ने कहा कि दिल्ली सरकार सर्कल दरों पर निर्णय ले सकती है. लेकिन, उन्होंने ये भी कहा कि किसी मतभेद की स्थिति में, उप-राज्यपाल मामले को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं.
बैंच ने ये भी फैसला दिया कि एसीबी पर नियंत्रण, तथा जांच आयोग बिठाने का अधिकार पूरी तरह केवल केंद्र सरकार का है.
खंडित फैसला
लेकिन, सेवाओं के मामले में बेंच ने एक खंडित फैसला सुनाया.
दिल्ली में कोई लोक सेवा आयोग नहीं है. चूंकि ये एक यूटी है इसलिए दिल्ली में तैनात किए गए सरकारी कर्मचारी, या तो अखिल भारतीय सेवाओं से होते हैं, जैसे कि भारतीय प्रशासनिक सेवा, या भारतीय पुलिस सेवा, या वो लोग जो यूटी के लिए दानिक्स या दिल्ली, अंडमान-निकोबार आईलैण्ड्स, लक्षद्वीप,दमन व दीव एवं दादरा व नगर हवेली सिविल सर्विस के ज़रिए चुने जाते हैं.
तो, केंद्र तथा दिल्ली सरकारें दोनों इसपर सहमत हो गईं, कि केंद्र तय कर सकता है कि कौन अधिकारी दिल्ली में तैनात किए जाएंगे. विवाद की जड़ अधिकारियों की ‘गतिशीलता’ थी, यानी दिल्ली के अंदर ही, एक जगह या विभाग से दूसरी जगह उनकी तैनाती.
इसलिए सवाल ये था कि क्या ऐसी तैनातियों के आदेश राष्ट्रपति (या इस मामले में उप-राज्यपाल) की ओर से जारी किए जाएं, या अधिकारियों के दिल्ली आ जाने के बाद, दिल्ली सरकार इस अधिकार का इस्तेमाल करने में सक्षम है.
जस्टिस सिकरी की राय थी, कि संयुक्त सचिव या उससे ऊंचे दर्जे के अधिकारियों के, तबादलों और तैनाती का अधिकार उप-राज्यपाल के दायरे में होना चाहिए, जबकि अन्य दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में होने चाहिएं. लेकिन, जस्टिस भान का मानना था, कि ये दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.
‘इस पर फैसला जल्द होना चाहिए’
खंडित फैसले के मद्देनज़र, इस मामले को एक तीन-सदस्यीय बेंच को सौंप दिया गया, जिसने, सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के मुताबिक़, दो सालों में केवल एक-एक पंक्ति के तीन आदेश पास किए हैं.
10 अप्रैल 2019 को जारी पहले आदेश में कहा गया, ‘अपीलकर्ता की ओर से पेश विद्वान वकील के अनुरोध पर, इस मामले को दो हफ्ते के बाद सूचिबद्ध करें’.
29 जनवरी 2020 को दिए गए दूसरे आदेश में, केंद्र सरकार के वकीलों के अनुरोध पर, मामले को दो हफ्ते के बाद लिस्ट किए जाने का निर्देश दिया गया.
केस को पिछले साल 18 फरवरी को फिर लिस्ट किया गया. इस आदेश में कहा गया, ‘अपीलकर्त्ता (दिल्ली सरकार) की ओर से पेश विद्वान वरिष्ठ वकील, श्री केवी विश्वनाथन के अनुरोध पर, इस मामले को 2020 के आने वाले होली अवकाश के बाद लिस्ट किया जाए’.
इस केस में उठाए गए मुद्दों के महत्व पर बात करते हुए, दिल्ली सरकार के स्थायी वकील राहुल मेहरा ने कहा, ‘सेवाएं एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू हैं, क्योंकि दिल्ली सरकार बेहतर तकीक़े से तभी काम कर सकती है, अगर अधिकारी ज़ाहिरी तौर पर कार्यकारी के आधीन होंगे. इसलिए, उस हद तक हर चीज़ बाधित हो जाती है, अगर वो मुख्यमंत्री या कैबिनेट को रिपोर्ट नहीं कर रहे हों’.
लेकिन, मेहरा ने इस देरी के लिए कोविड को ज़िम्मेदार ठहराया, और आगे कहा: ‘हम उम्मीद कर रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट अब इसे उठाएगा, चूंकि ये एक बहुत गंभीर मुद्दा है, और हम यही चाहते हैं कि इस विवाद को जल्द से जल्द सुलझा लिया जाए’.
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