नई दिल्ली: लोकसभा और हरियाणा विधानसभा चुनाव में करारी हार से उबरती अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) की स्थिति झारखंड में अच्छी नज़र नहीं आ रही है. झारखंड विधानसभा चुनाव को लेकर यहां की राजनीति में रमी ‘आप’ ने अपने उम्मीदवारों को बिना पैसे और स्टार पावर के छोड़ दिया है.
रांची विधानसभा से ‘आप’ प्रत्याशी राजन कुमार सिंह ने कहा कि वो अपने कार्यकर्ताओं के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं. दिल्ली से पार्टी के बड़े नेता क्यों नहीं आ रहे इसकी जानकारी उन्हें नहीं है. राजन ने कहा, ‘हो सकता है कि दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव में वहां का नेतृत्व व्यस्त हो.’
झारखंड में विधानसभा की 81 सीटें हैं. जिन पर पांच चरणों में चुनाव होने हैं. नक्सल प्रभावित इस राज्य में 30 नवंबर को यानी कल पहले चरण के वोट पड़ेंगे और 23 दिसंबर को नतीजे घोषित होंगे.
झारखंड में पार्टी की स्थिति पर ‘आप’ के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष जयशंकर चौधरी ने कहा, ‘हमें दिल्ली से अभी तक किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं मिली है. पहले फ़ेज़ की वोटिंग शनिवार को है. लेकिन, अभी तक कोई स्टार कैंपेनर नहीं आया.’
पिछले पांच साल से रघुबर दास के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (एजेएसयू) की सरकार है. हालांकि, इस बार एजेएसयू अलग चुनाव लड़ रही है. इसके अलावा कांग्रेस और पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) जैसी पार्टियां मैदान में हैं.
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आरटीआई एक्टिविस्ट से ‘आप’ के उम्मीदवार बने एक नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘प्रचार के लिए केजरीवाल के आने की तो बात भी नहीं हुई. हां, दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया और राज्यसभा सांसद संजय सिंह जैसे पार्टी के बड़े नेताओं के आने की चर्चा ज़रूर थी, लेकिन पहले फ़ेज़ की वोटिंग तक तो कोई नहीं आया.’
पार्टी ने अपने उम्मीदवारों को इस हाल में तब छोड़ा है, जब भाजपा के लिए झारखंड नाक का सवाल बन गया है और कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों के लिए अस्तित्व का मामला है. भारत के नक्शे पर तेज़ी से सिमटती भाजपा के लिए इस राज्य को बचाना बेहद अहम है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इंटरनेट पर वायरल एक तस्वीर की जब जांच की गई तो पता चला कि आम चुनाव के पहले भाजपा जहां 71 प्रतिशत राज्यों में थी वहीं अब 40 प्रतिशत राज्यों में रह गई है.
महाराष्ट्र में भाजपा पहले नंबर की पार्टी होने के बावजूद सरकार नहीं बना सकी. लेकिन, हरियाणा में दुष्यंत चौटाला के साथ हाथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब रही. वहीं, महाराष्ट्र में 1984 में भाजपा का दामन थामने वाली शिवसेना ने इसके बजाए कांग्रेस और एनसीपी के साथ जाने का फै़सला किया.
ऐसे में पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के लिए झारखंड किसी नाक के सवाल से कम नहीं होगा. इसके लिए दोनों ही दिग्गज नेता कई रैलियां कर चुके हैं. वहीं, कांग्रेस ने पार्टी प्रवक्ता गौरव वल्लभ को सीएम दास के ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार बनाया है. हालांकि, ‘आप’ के लिए चुनौती बस इतनी ही नहीं है. पहले फ़ेज़ में पार्टी के पांच में से दो उम्मीदवारों का नामांकन भी ख़ारिज कर दिया गया है.
पार्टी के एक नेता ने कहा कि डाल्टनगंज के प्रत्याशी अभय सिंह चेरो का नामांकन केवल इसीलिए रद्द कर दिया गया क्योंकि उनसे एक कॉलम में शून्य भरना छूट गया था. उनके आदिवासी, एनआईटी भोपाल और सामाजिक कार्यकर्ता की पृष्ठभूमि का हवाला देकर कहा जा रहा है कि विरोधियों ने डर से उनका नामांकन रद्द करवा दिया. वहीं, नामांकन रद्द करवाने के लिए गढ़वा की प्रत्याशी उमा देवी के वकील पर ग़लत फॉर्म भरवाकर देने का आरोप है.
ऐसे में समझा जा सकता है कि उम्मीदवारों को ना सिर्फ पैसे और स्टार पावर बल्कि अनुभव की कमी की भी मार झेलनी पड़ रही है. हालांकि, सूबे में ‘आप’ के अध्यक्ष चौधरी को ऐसा लगता है कि अभी तक जो 30 उम्मीदवार मैदान में हैं उनमें से रांची, टुंडी, धनबाद, जमशेदपुर पश्चिम, सिंदरी, गिरिडीह जैसी सीटों पर पार्टी मजबूत स्थिति में हैं.
ऐसे में हुसैनाबाद विधानसभा सीट से ‘आप’ प्रत्याशी कन्हैया विश्वकर्मा ने कहा, ‘पैसे की मदद की बात तो छोड़ दीजिए, झंडा तक नहीं मिला.’ उन्होंने ये आरोप भी लगाया कि शराब और पैसा खुलकर बांटे जा रहे हैं. ऐसे में कई बार लोग उनसे भी पैसा मांग लेते हैं. उन्होंने कहा, ‘अब बताइये चंदा से चुनाव लड़ने वाला भला कहां से ये सब कर पाएगा.’
‘सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसायटी’ (सीएसडीएस) के पूर्व निदेशक एके वर्मा इसे ‘आप’ के राष्ट्रीय पार्टी बनने के ‘अधपके’ सपने के तौर पर देखते हैं. उन्होंने कहा, ‘अस्तित्व में आने के बाद से ही आप एक राष्ट्रीय पार्टी बनना चाहती है. लेकिन उसे ये समझना होगा कि ऐसा करने के लिए अन्य राज्यों में पहले ज़मीनी स्तर पर संगठन खड़ा करने की ज़रूरत होगी.’
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बिहार के बक्सर से आप के टिकट पर 2014 का आम चुनाव लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता श्वेता पाठक ने बताया कि तब भी हालात झारखंड चुनाव जैसे थे. उन्होंने कहा, ‘हमें भी किसी तरह की आर्थिक या कैंपेन से जुड़ी मदद नहीं मिली थी. तब केजरीवाल जी बनारस से मोदी जी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे थे और ज़्यादातर संसाधन और ज़ोर वहीं पर लगाया गया.’
इसके बाद से पार्टी ने कई राज्यों में अपना हाथ आजमाया है. लेकिन, 2017 में हुए पंजाब विधानसभा चुनाव की आंशिक सफलता को अपवाद मान लें तो सीएसडीएस के पूर्व निदेशक वर्मा के शब्दों में ये राष्ट्रीय पार्टी बनने की अधपके सपने सा दिखाई पड़ता है, जिसका दुष्परिणाम पार्टी उम्मीदवारों को झारखंड में झेलना पड़ सकता है.