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Sunday, 22 December, 2024
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बंगाल में गवर्नर के खिलाफ महिला कर्मचारी ने SC का दरवाजा खटखटाया, कहा- ‘क्या यौन शोषण उनके काम का हिस्सा है’

राजभवन की एक कर्मचारी शिकायतकर्ता ने अपनी याचिका में शीर्ष अदालत से मामले में अपने असाधारण अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करने की मांग करते हुए कहा कि राज्यपालों को दी गई छूट निरपेक्ष नहीं हो सकती.

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नई दिल्ली: पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली राजभवन की महिला कर्मचारी ने अपने मामले में कार्रवाई की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

शीर्ष अदालत से अनुच्छेद 32 के तहत मामले में अपने असाधारण अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करने की मांग करते हुए महिला ने कहा कि उसने अपनी याचिका इसलिए दायर की है क्योंकि संविधान के तहत राज्यपाल को दी गई संवैधानिक छूट के कारण उसके पास कोई उपाय नहीं बचा है. ऐसी छूट के बारे में बात करते हुए महिला ने शीर्ष अदालत से राज्यपाल के कार्यालय द्वारा प्राप्त छूट की सीमा तक दिशानिर्देश और योग्यताएं भी तय करने की मांग की है.

संविधान के अनुच्छेद 361(2) के अनुसार, राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी अदालत में कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू या जारी नहीं रखी जा सकती है. वह चाहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट यह तय करे कि यौन उत्पीड़न/छेड़छाड़ राज्यपाल द्वारा “आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन/निष्पादन का हिस्सा है या नहीं”.

याचिका में कहा गया है, “इस माननीय न्यायालय को यह तय करना होगा कि यौन उत्पीड़न और छेड़छाड़ राज्यपाल द्वारा कर्तव्यों के निर्वहन या निष्पादन का हिस्सा है या नहीं, ताकि उन्हें संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत पूर्ण छूट दी जा सके, और क्या याचिकाकर्ता जैसी पीड़ित को केवल तभी राहत दी जा सकती है जब वह आरोपी के पद छोड़ने का इंतजार करे, जो देरी तब मुकदमे के दौरान समझ से परे होगी, और पूरी प्रक्रिया केवल दिखावटी होगी, जिससे पीड़ित को कोई न्याय नहीं मिलेगा.”

पीड़िता के आरोपों के अनुसार, राज्यपाल ने उन्हें 24 अप्रैल और 2 मई को बेहतर नौकरी देने के झूठे बहाने से बुलाया था, और राजभवन परिसर में उनका यौन उत्पीड़न किया. उन्होंने कहा है कि उन्हें ड्यूटी के वक्त में बुलाया गया था.

हालांकि विशेष कार्य अधिकारी (ओएसडी) के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी, लेकिन कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मई में कार्यवाही पर रोक लगा दी थी. एफआईआर में ओएसडी पर पीड़िता को राज्यपाल के खिलाफ कथित यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराने से रोकने और दबाव डालने का आरोप लगाया गया है.

पीड़िता की याचिका में कहा गया है कि वह राज्यपाल पर आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए दी गई पूर्ण छूट के कारण और इस तथ्य से कि इस पद पर बैठे किसी व्यक्ति ने उसका यौन उत्पीड़न किया, काफी दुखी है लेकिन कानून के तहत उसके पास कोई उपाय नहीं है.

उन्होंने कहा कि संविधान में पूर्ण छूट को पूर्ण नहीं समझा जा सकता है, जिससे कि राज्यपाल ऐसे कार्य कर सकें जो अवैध हैं या संविधान के भाग III की जड़ पर प्रहार करते हैं जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित है.

उन्होंने कहा कि छूट पुलिस को जांच करने या शिकायत में अपराधी का नाम बताने से भी नहीं रोक सकती है, जिसका नाम शिकायत में विशेष रूप से है.

याचिकाकर्ता ने कहा कि राजभवन को अपनी शिकायत को उजागर करने के लिए लिखित अनुरोध करने के परिणामस्वरूप उसे और अधिक अपमानित होना पड़ा. अधिकारियों ने कार्रवाई करने से इनकार कर दिया और इसके बजाय, मीडिया में जाकर उसकी शिकायत को राजनीतिक हथियार बताकर उसकी शिकायत का मजाक उड़ाया, जबकि उसके आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए कोई सुरक्षा उपाय नहीं किए गए.

याचिका में कहा गया है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है और संवैधानिक छूट की आड़ में राज्यपाल को किसी भी तरह से “गलत तरीके से” काम करने और “लैंगिक हिंसा” करने की अनुमति नहीं है, जबकि देश के हर दूसरे नागरिक को ऐसा करने से प्रतिबंधित किया गया है. किसी भी रूप में हिंसा संविधान के तहत याचिकाकर्ता सहित हर व्यक्ति को दिए गए मौलिक अधिकारों पर आघात करती है.

झूठा करार दिया जाना और राज्यपाल द्वारा खुद को क्लीन चिट देना राज्यपाल द्वारा सत्ता का बेबुनियाद प्रयोग है, जिसके बारे में पीड़िता ने कहा कि यह संवैधानिक योजना का उल्लंघन है.

अपनी याचिका दायर करने के कारणों को बताते हुए पीड़िता ने कहा कि अनुच्छेद 361 दिए गए मामले में कार्रवाई की वैधता की जांच करने के लिए शीर्ष अदालत की शक्ति को नहीं छीनता है और आपराधिक अभियोजन के संबंध में उक्त अनुच्छेद के तहत छूट के बारे में व्याख्या की जानी चाहिए, जैसा कि सिविल इम्यूनिटी के संबंध में किया गया है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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