महाराष्ट्र स्थित एक गांव में दो कमरों के झोपड़ीनुमा एक छोटे-से घर में एक गोंड आदिवासी महिला अपने बेटे के लिए थाली में दाल-भात परोस रही है. थाली बेटे को देते हुए वह कहती है, ‘ऐसे ही खाना पड़ेगा, अचार नहीं है.’ और फिर अपने कंधे तक लंबे भूरे बालों पर काली डाई लगाने के लिए एक कोने की तरफ चली जाती है. इस महिला को नाम मथुरा है. हालांकि, यह बताने वाला कोई आधिकारिक दस्तावेज- आधार, पैन या वोटर कार्ड- नहीं है.
ग्रामीण उसे किसी और नाम से जानते हैं—जो नाम मथुरा को 26 मार्च 1972 की घटना के बाद अपनाने पर मजबूर होना पड़ा था. पचास साल पहले, गढ़चिरौली जिले के देसाईगंज थाने के एक कांस्टेबल ने थाना परिसर में उसके साथ बलात्कार किया था. उसका सहयोगी हेड कांस्टेबल भी इस कृत्य में उसके साथ शामिल हो गया, लेकिन वह बहुत ज्यादा नशे में था.
उस समय मथुरा की उम्र बमुश्किल 16 साल रही होगी.
बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने दोनों पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया. लेकिन 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया और उन्हें बरी कर दिया. घटना और उसके बाद पुलिसकर्मियों को बरी किए जाने पर देशव्यापी विरोध हुआ, जिसने आजाद भारत में महिला अधिकारों के लिए आंदोलन को गति दी और कानूनी सुधार का रास्ता भी खोला.
हालांकि, मथुरा को भुला दिया गया. उस समय जहां पुलिस और न्यायपालिका ने उसके साथ अन्याय किया, वहीं बाद के सालों में समाज ने भी उसे गहरी निराशा ही दी.
मथुरा हर जगह है लेकिन कहीं भी नहीं है
‘मेरा जीवन कैसा रहा है?’ मथुरा ने कटु लहजे में सवाल पूछा और फिर कहा, ‘जैसा घर दिख रहा है वैसा ही जीवन रहा है…’
उसके कच्चे घर के बाहर कुछ मुर्गियां तपती दोपहर से बचने के लिए कचरे के ढेर के आसपास मंडरा रही है. मथुरा 1,000 रुपये प्रतिमाह की विधवा पेंशन पर गुजारा करती हैं और इसके साथ ही वह जब-तब मिल जाने वाला कुछ काम भी कर लेती है.
फैसले के कुछ सालों बाद वह दूसरे गांव चली गई, उसकी शादी हुई और उसने दो बेटों की परवरिश की. 2017 में उनके पति की मृत्यु हो गई. वह कहती है, ‘मेरे पति को पता नहीं था कि मेरे साथ क्या हुआ, या शायद वह जानते थे और मेरे बेटों को यह सब बताने का कोई मतलब नहीं है.’
गुस्सा या शर्म किस वजह ने उसे चुप रहने को बाध्य किया?, इस पर अपनी अंगुलियों को घुमाती हुई वह कहती है—‘गुस्सा’. मथुरा ने कहा, ‘शर्म से ज्यादा गुस्सा आता है.’
आज, मथुरा का जिक्र केवल शोध पत्रों, न्यायिक इतिहास, नारीवादी आंदोलन पर निबंधों, प्रतियोगी परीक्षा कोर्स, यूट्यूब वीडियो और कानून की कक्षाओं में मिलता है.
लेकिन वह किसी भी आधिकारिक रिकॉर्ड में मौजूद नहीं है.
देसाईगंज थाने में इस रेप के मामले का कोई रिकॉर्ड नहीं है. इस स्टेशन की जगह कई बार बदल चुकी है. अधिकांश पुलिस कर्मियों को उक्त महिला के बारे में कोई जानकारी नहीं है. कई लोगों का कहना है कि वे तो उस घटना के बाद पैदा हुए हैं.
जब दिप्रिंट ने मथुरा की तलाश शुरू की तो नागपुर के कुछ एक्टिविस्ट- जिन्होंने उन्हें 1970 के दशक में आखिरी बार देखा था-ने कहा कि वह वर्धा चली गई होगी. लेकिन वे गलत थे.
न तो गढ़चिरौली और न ही चंद्रपुर जिला प्रशासन को उसके बारे में कोई जानकारी है. शिवाजी वार्ड के देसाईगंज कस्बे के गांव-जहां कभी मथुरा का घर था—में भी उसके बारे में कुछ पता नहीं चला. मथुरा की यादों में यह एक ग्रामीण बस्ती है, लेकिन जब दिप्रिंट ने मई में इस क्षेत्र का दौरा किया तो पाता कि यह एक बड़े बाजार, पेट्रोल पंप और अच्छी सड़कों के साथ किसी छोटे शहर की तरह लगता है. झोपड़ियां पक्के घरों से बदल गई हैं.
मथुरा इस जगह और यहां के लोगों को लानतें भेजती है. वह कहती है, ‘बहुत गंदे लोग थे.’ बहरहाल, यह वही जगह थी जहां वह घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करती थी और अपनी मालिक के भतीजे के साथ शादी करने को तैयार थी. उसके बाद जो हुआ उसने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी.
नई शुरुआत, लेकिन नहीं भरे पुराने जख्म
मथुरा अब जिस गांव को अपना घर कहती है, वो अपेक्षाकृत समृद्ध है. बड़ा बेटा (34 वर्ष) उसके साथ ही रहता है और एक दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करता है, इन लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत उनका छोटा-सा कच्चा घर पक्का हो जाएगा. प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत उन्हें एलपीजी गैस सिलेंडर मिला है, लेकिन अब इस्तेमाल नहीं हो पाता क्योंकि उनके पास उसे भराने के लिए पैसे नहीं होते. मथुरा का 28 वर्षीय छोटा बेटा हैदराबाद की एक फैक्ट्री में काम करता है और कभी-कभी कुछ पैसे घर भेज देता है.
हरे रंग के ब्लाउज के साथ चमकीले नारंगी रंग की साड़ी पहने मथुरा ने साधारण ढंग से हमारा स्वागत किया. उसका बेटा अपने पालतू कुत्ते मोती को शांत करता है जो दरवाजे पर अजनबियों की दस्तक के साथ ही भौंकने लगता है. वह हमें चाय पिलाना चाहता था लेकिन घर में दूध ही नहीं था.
दाल-भात की थाली देने के बाद वह अपने पुराने जख्मों का जिक्र करने लगती है जो आज भी भरे नहीं हैं. वह बताती है, ‘मैं एक अनाथ थी जो देसाईगंज में अपने दो भाइयों, गूंगा और गामा के साथ रहती थी.’ उसे अपने माता-पिता या जिस गांव में पली-बढ़ी है, उसका नाम याद नहीं है. मथुरा के मुताबिक, ‘मैं दूसरे लोगों के घरों में बर्तन धोती थी और निर्माण स्थलों पर काम करती थी. अगर मैं एक दिन काम नहीं करती, तो हमें रात का खाना भी नसीब नहीं होता था.’
एक इंसान जिसे वह काफी खुश होकर याद करती है और उसकी प्रशंसा करती थी, वह थी नुशी बाई. वह नुशी बाई के घर में काम करती थी. मथुरा ने कहा, ‘वो ही एक सहेली थी मेरी. वो भी मर गई. मैं गई थी. वह अच्छी महिला थी. मुझे आसरा देना चाहती थी और उसने मुझे अपने घर में रहने को कहा. और उसने अपने भतीजे अशोक के साथ मेरी शादी कराने का इंतजाम किया.’
एक दिहाड़ी मजदूर और मथुरा की तरह ही अनाथ अशोक उम्र में उससे काफी बड़ा था और नुशी के घर में ही रहता था. वह शादी के लिए राजी हो गई और नुशी के साथ रहने चली गई. मथुरा के मुताबिक, ‘मेरे भाई इतने सक्षम नहीं थे कि मेरी शादी करा पाते. लेकिन कुछ पड़ोसियों ने गामा का दिमाग खराब कर दिया.’
उसका दावा है कि उसके भाई ने ही गांव के दबाव में नुशी और अशोक के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी और आरोप लगाया था कि उन्होंने उसका अपहरण किया है.
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रेप की घटना ने पूरे भारत को झकझोरकर रख दिया
26 मार्च 1972 को रात करीब 10 बजे मथुरा, अशोक, नुशी और उनके पति लक्ष्मण को थाने बुलाया गया था. हेड कांस्टेबल तुकाराम और कांस्टेबल गणपत भी वहां मौजूद थे. उन्होंने नुशी, लक्ष्मण और अशोक को बाहर इंतजार करने को कहा. जब ये लोग चले गए तो उन्होंने दरवाजे बंद कर दिए और लाइट बंद कर दी.
कोर्ट के दस्तावेज में रिकॉर्ड है कि आगे क्या हुआ. गणपत मथुरा को मुख्य भवन के पीछे एक शौचालय में ले गया, उसके अंडरगारमेंट्स उतराए और एक मशाल जलाकर उसके अंगों को देखा. फिर उसे जमीन पर पटक दिया और उसके साथ दुष्कर्म किया.
मथुरा बताती है, ‘गणपत ने इज्जत लूटी. मुंह दबा दिया. तुकाराम ने छूकर बोला—अच्छी है.’
तब तक मथुरा के लापता होने की खबर फैल चुकी थी और ग्रामीण अंधेरे में डूबे पुलिस थाने के बाहर जमा हो गए थे. जैसे ही उन्होंने इमारत में आग लगाने की धमकी दी, तुकाराम बाहर आया और बोला कि मथुरा वहां से चली गई है. लेकिन तभी वह इमारत के पीछे से निकली और रोती हुए बताया कि उसके साथ बलात्कार हुआ है.
इसी थाने में गणपत और तुकाराम के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी. मेडिकल जांच के लिए मथुरा को 140 किलोमीटर दूर चंद्रपुर जिला मुख्यालय ले जाया गया. चार घंटे की यात्रा के बाद यह पता लगाने के लिए उसका बलात्कार हुआ है या नहीं, टू-फिंगर टेस्ट किया गया.
बलात्कार के करीब 24 घंटे बाद डॉक्टर कमल शस्त्राकर ने उसकी जांच की थी. उन्होंने टू-फिंगर टेस्ट का हवाला देते हुए दर्ज किया, ‘लड़की के निजी अंगों में कोई चोट नहीं आई है. उसका हैमन पूर्व में ही नष्ट हो जाने का पता चला है.’
आरोप साबित करने का बोझ
मामला एक सत्र न्यायालय पहुंचा लेकिन यह साबित करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष और मथुरा पर थी कि उसके साथ बलात्कार हुआ है. यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के अभाव में, न तो उसकी काउंसलिंग की गई और न ही आश्रय दिया गया. यही नहीं, उसकी पहचान को भी उजागर कर दिया गया.
चंद्रपुर सत्र अदालत के न्यायाधीश ने पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया और मथुरा को ‘यौन संबंधों की आदी’ करार देते हुए उसके ‘झूठी’ बता दिया.
एक कम उम्र आदिवासी लड़की के शामिल होने के कारण यह मामला राष्ट्रीय स्तर का था लेकिन इसे सुर्खियों में आने में थोड़ा समय लगा. नागपुर की एक सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षाविद डॉ. सीमा सखारे ने इस मामले को फॉलो किया और मराठी समाचार पत्र लोकमत में कॉलम लिखना शुरू कर दिया. इस फैसले के खिलाफ उन्होंने ही हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की थी.
अक्टूबर 1976 में हाई कोर्ट ने तुकाराम और गणपत को दोषी ठहराया, और उन्हें क्रमशः एक और पांच साल के कारावास की सजा सुनाई.
अब 88 वर्ष की हो चुकी सखारे याद करती हैं कि कैसे इस मामले और फैसले ने ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण लॉबी के बीच जाति विभाजन की रेखा खींच दी थी. वह याद करती हैं, ‘एक वंचित जाति समूह (तेली) की सामाजिक कार्यकर्ता ने पीड़िता के पक्ष में फैसला पाने में कामयाबी हासिल की थी, जिससे ऊंची जाति की लॉबी परेशान हो गई थी.’ अब इन दोनों महिलाओं के बीच कोई संपर्क नहीं है.
हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, जिसमें अपीलकर्ता एम.एन. फडके, एस.वी. देशपांडे, वी.एम. फडके और एन.एम. घाटटे थे. सितंबर 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिसवालों को दोषी ठहराने वाले फैसले को पलट दिया.
अशोक को मथुरा का ‘प्रेमी’ बताते हुए उसके साथ मथुरा के रिश्तों को लेकर सवाल उठाए गए. साखरे का कहना है कि अदालत का लहजा और भाषा शहरी उच्च-जाति के पूर्वाग्रह को दर्शाने वाला था, जो ग्रामीण समाज की वास्तविकताओं से कोसों दूर है.
लेकिन क्या अशोक वाकई उसका प्रेमी था? साखरे और मथुरा दोनों ही इस संदर्भ में किसी विशेष प्रेम संबंध से इंकार किया. यह एक व्यावहारिक कदम था, जिसे नुशी ने उठाया था क्योंकि वह एक युवा आदिवासी अनाथ को सिर पर छत देना चाहती थी.
गणपत के इस तर्क को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार लिया था कि उसके पायजामे पर वीर्य नाइटफाल का परिणाम था. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, ‘वह रात में डिस्चार्ज की बात कर रहा है. यह गलत हो सकता है, लेकिन मथुरा के अलावा किसी अन्य के साथ यौन संबंधों के कारण पायजामे पर वीर्य के दाग लगने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. इसी तरह मथुरा पर वीर्य के दागों के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है. आखिरकार, वह अशोक के साथ रह रही थी और उसके साथ प्रेम संबंध थे.’
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भूला-बिसरा अतीत
इस मामले से जुड़े लगभग सभी लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं—अशोक, उसका भाई, नुशी और गूंगा. दिप्रिंट यह पता लगाने में असमर्थ रहा कि गणपत और तुकाराम के साथ क्या हुआ.
न्याय न मिलने के बाद समाज की तरफ से घूरती निगाहों के कारण खुद को अपमानित महसूस करने वाली मथुरा काफी नाराज है. उसका कहना है, ‘सजा तो दिलानी चाहिए थी. बहुत गुस्सा आता है. मैं इतनी छोटी और कमजोर थी. उसे कैसी मारती?’
दोषियों के बरी होने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के चार लॉ प्रोफेसरों ने सुप्रीम कोर्ट को एक खुला पत्र लिखा. इसके बाद मामला संसद में गूंजने के साथ-साथ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन भी हुआ.
बहरहाल, मथुरा को कभी यह पता ही नहीं चल पाया कि उसका मामला आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 1983 के रूप में सामने आया, जिसमें सबूत का बोझ पीड़िता के बजाये आरोपी पर डाल दिया गया है. हिरासत में बलात्कार कम से कम सात साल कैद के साथ एक दंडनीय अपराध बन चुका है. ऐसे मामलों में बंद कमरे में सुनवाई की प्रक्रिया शुरू की गई है और बलात्कार पीड़िता की पहचान छिपाई जाने लगी है.
हालांकि, इन सारे बदलावों का मथुरा के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. उसका मामला फिर कभी नहीं खोला गया.
उसके अपने परिवार ने भी उसे छोड़ दिया. गामा ने नागपुर की एक फैक्ट्री में नौकरी कर ली और अपने परिवार के साथ वहीं बस गया. मथुरा ने बताया, ‘मैं दूसरे शहर चली गई और एक घरेलू सहायक के तौर पर काम करने लगी.’ यहीं पर वह अपने पति से मिली और दोनों ने घर बसाया.
सखारे मथुरा को ऐसी लड़की के तौर पर याद करती हैं जो ज्यादा नहीं बोलती थी. एक तस्वीर में कुछ कार्यकर्ता उसका हाथ ऊपर उठाए दिखते हैं, जिसमें शांत नजर आ रही इस लड़की का चेहरा गुस्से से भरा दिखता है.
मथुरा का मानना है कि आगे बढ़ने की जरूरत थी लेकिन उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था. वह कहती है, ‘जब मेरे अपने भाई ने ही मुझे निराश किया. तो फिर कौन मेरी मदद करता? मैं इस सारे असंतोष का क्या करूंगी?’ अतीत का घाव उसे आज भी सालता रहता है लेकिन वह भविष्य के बारे में सोचती है. मथुरा का कहना है, ‘मैं अपने बेटों की शादी देखना चाहता हूं, लेकिन पैसे नहीं हैं.’
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