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Saturday, 16 November, 2024
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ग्रामीण भारत में 64% बच्चों को डर है कि अगर अतिरिक्त सहायता नहीं मिली तो उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ सकता है: सर्वे

ये सर्वेक्षण एक दिल्ली स्थित एनजीओ द्वारा नवंबर 2020 में देश के दस सूबों के 20 पिछड़े ज़िलों में 1,725 बच्चों, 1,605 पेरेंट्स तथा 127 अध्यापकों के बीच कराया गया.

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नई दिल्ली: ग्रामीण भारत में 64% बच्चों को डर है कि उनके पाठ्यक्रम में जो अंतराल रह गए हैं, अगर उनके लिए अतिरिक्त सहायता मुहैया नहीं कराई गई, तो उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ सकता है. ये निष्कर्ष शुक्रवार को प्रकाशित एक सर्वेक्षण में निकाले गए हैं.

दिल्ली-स्थित एनजीओ चाइल्डफंड इंडिया द्वारा ये सर्वे, देश के दस सूबों के 20 पिछड़े ज़िलों में 1,725 बच्चों, 1,605 पेरेंट्स तथा 127 अध्यापकों के बीच कराया गया. ये दस सूबे हैं बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल.

आंकलन रिपोर्ट में जिसका शीर्षक है, ‘पर्सेप्शन, फियर्स, एंड रेडीनेस फॉर री-ओपनिंग ऑफ स्कूल्स ’, में पाया गया कि 84 प्रतिशत पेरेंट्स और 83 प्रतिशत बच्चे चाहते हैं कि स्कूल फिर से खुलें’.

सर्वेक्षण वाले सूबों में प्रवासी श्रमिकों का सबसे अधिक आगमन देखा गया और डॉक्युमेंट्स न होने की वजह से उनके बच्चों को स्कूलों में फिर से पंजीकरण कराने में भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा.

50 प्रतिशत से अधिक पेरेंट्स ने अपने बच्चों में नकारात्मक व्यवहार को महसूस किया और 60 प्रतिशत ने खुद अपने व्यवहार में भी बदलाव का अनुभव किया. सर्वे में कहा गया कि इस बदले हुए व्यवहार में गुस्सा, झुंझलाहट और एकाग्रता की कमी शामिल हैं.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘स्कूलों के लंबे समय तक बंद रहने से उनकी स्थिति और बिगड़ गई, चूंकि इसके नतीजे में बच्चों के पोषण स्तर में गिरावट आ गई. ऑनलाइन लर्निंग भी अपने साथ गंभीर चुनौतियां लेकर आई और बच्चों के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर काफी असर पड़ा’.

चाइल्डफंड इंडिया की वरिष्ठ शिक्षा विशेषज्ञ, एकता चंदा ने एक बयान में कहा, ‘भारत में प्रतिकूल सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति, शैक्षिक अति संवेदनशीलता को ढांप लेती है’.

उन्होंने आगे कहा, ‘भारत में, पहले से ही स्कूली शिक्षा के सार्वजनिक प्रावधान की बुनियादी सुविधाओं के अभाव की प्रष्ठभूमि में, स्कूलों का फिर से खुलना एक गंभीर चिंता का विषय है. हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बच्चों की, शैक्षणिक जरूरतों को पूरा करने के लिए यही एक विकल्प उपलब्ध है’.

उन्होंने कहा, ‘स्कूलों को फिर से खोलने से पहले, अलग-अलग हितधारकों के नज़रियों को समझना बहुत ज़रूरी है, ताकि इस प्रक्रिया में सबको साथ लेकर चला जा सके, क्योंकि स्कूलों के अस्थाई रूप से बंद होने तथा महामारी के दौरान उपलब्ध शिक्षा के ऑनलाइन मोड पर ज़्यादा जोर की वजह से, ये समूह सबसे ज़्यादा प्रभावित था’.


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सुझाव

रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि केंद्र तथा राज्य सरकारें दोनों, वित्तीय आवंटन करें ताकि बच्चों को ‘महामारी से उत्पन्न भावनात्मक झटकों से उबरने में सहायता मिल सके’.

‘आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र और राज्य सरकारें, वित्तीय आवंटन करें जिसे कोविड-19 पुनर्वास पैकेज की सूरत में, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को उपलब्ध कराया जाए जिससे कि बच्चों के लिए सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा पाठ मुहैया कराए जा सकें, ताकि उन्हें महामारी से उत्पन्न भावनात्मक झटकों से उबरने में सहायता मिल सके’. साथ ही उन बच्चों के लिए स्पेशल ट्रेनिंग और ब्रिज क्लासेज़ कराई जाएं, जो ऑनलाइन क्लासेज़ नियमित रूप से नहीं कर पाए हैं’.

इसी महीने यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में पता चला कि महामारी के कारण 15 लाख स्कूलों के बंद होने और उसके नतीजे में 2020 के लॉकडाउन ने देशभर के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में पंजीकृत 24.7 करोड़ बच्चों को प्रभावित किया था.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(देबलीना डे द्वारा संपादित)


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