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Sunday, 28 April, 2024
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बिलकिस बानो मामले में दोषियों को 90 दिनों तक पैरोल पर बाहर रहने की मिली अनुमति, नियमों पर उठे सवाल

गुजरात में नियम के अनुसार, 30 दिनों के लिए पैरोल पर रिहा करने और सिर्फ आकस्मिक परिस्थितियों में इसे आगे बढ़ाने की अनुमति दी जा सकती हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में राज्य के हलफनामे से पता चलता है कि दोषी कई बार इन नियमों के पार गए हैं.

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नई दिल्ली: 2002 के भयावह बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले में दोषी ठहराए गए और उम्रकैद की सजा पाने वाले 11 लोगों की समय से पहले रिहाई के संबंध में एक नया विवाद खड़ा हो गया है.

गुजरात सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश की गई आधिकारिक सूचना की एक प्रति दिप्रिंट के पास है. इसके अनुसार, 11 दोषी पैरोल या फरलो पर लंबे समय तक जेल से बाहर रहे और कुछ मामलों में तो वो 30 दिनों से ज्यादा समय तक पैरोल पर रहे. जबकि पैरोल पर इससे ज्यादा समय के लिए दोषी को बाहर रहने की इजाजत नहीं है.

गुजरात सरकार ने 11 लोगों की समय से पहले रिहाई की अनुमति देने के राज्य के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के जवाब में हलफनामा प्रस्तुत किया था.

सरकारी कागजात आगे बताते हैं कि एक आरोपी, राधेश्याम भगवानदास शाह को जिला न्यायाधीश के विरोध के बावजूद रिहा कर दिया गया था, जबकि एक अन्य दोषी मितेश चमनलाल भट्ट की ‘क्षमा याचिका’ को मंजूरी दे दी गई थी, भले ही वह पैरोल पर बाहर होने पर एक महिला की गरिमा को भंग करने के लिए पुलिस चार्जशीट का सामना कर रहा था.

गुजरात में लागू होने वाले बॉम्बे फरलो और पैरोल नियम (1959) के मुताबिक, एक दोषी को एक बार में 30 दिनों के लिए पैरोल दी जा सकती है. नियम 19 में कहा गया है कि ‘एक कैदी को 30 दिनों से ज्यादा के समय लिए उसी शर्त पर पैरोल पर रिहा किया जा सकता है, जब उसे कोई गंभीर बीमारी हो या फिर उसके माता, पिता, भाई, पति या पत्नी या बच्चे जैसे किसी नजदीकी रिश्तेदारों में से एक की मृत्यु हुई हो. इसमें प्राकृतिक आपदा के मामले में भी शामिल हैं, जैसे कि उनका घर गिरना, बाढ़ आना या फिर आग लग जाना.

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नियम इस तरह की परिस्थितियों में ही स्वीकृति प्राधिकारी द्वारा पैरोल के समय बढ़ाने की अनुमति देते हैं. लेकिन एक दोषी को उसके अंतिम पैरोल से वापिस आने के एक साल बाद तक फिर से पैरोल पर रिहा नहीं किया जा सकता है. ऐसा सिर्फ उसके किसी करीबी रिश्तेदार की मृत्यु के मामले में किया जा सकता है.

हलफनामे से पता चलता है कि असाधारण स्थितियों में 30 दिनों के पैरोल को बढ़ाने के अनिवार्य नियमों के बावजूद ये सभी 11 लोग एक बार में 90 दिनों तक पैरोल पर बाहर रहे हैं.

ऐसा सिर्फ पैरोल पर रिहा करते हुए ही नहीं किया गया है, बल्कि कई मौकों पर उन्हें 14 दिनों से ज्यादा के लिए फरलो देते हुए भी किया गया. नियमों के तहत इससे ज्यादा समय के लिए किसी भी कैदी को फरलो पर रिहा नहीं किया जा सकता है. पैरोल में किसी सजायाफ्ता कैदी को कुछ शर्तों के साथ रिहाई दी जाती है, जबकि फरलो एक दोषी को लंबे समय से सजा से गुजरने के लिए दिया जाने वाला इनाम है.

हालांकि, हलफनामे के साथ दिए गए दस्तावेज इतने लंबे समय तक पैरोल या फरलो पर इन दोषियों को रिहा करने के कारणों को स्पष्ट नहीं करते हैं.

हलफनामे में राज्य की निर्णय लेने की प्रक्रिया और विभिन्न अधिकारियों से प्राप्त इनपुट का विवरण भी शामिल है.


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90 दिनों के लिए बाहर

लगभग 14 साल की जेल की सजा के दौरान औसतन हर कैदी को 1,000 दिनों से थोड़े-बहुत ज्यादा समय के लिए पैरोल दी गई है. हालांकि इन दिनों में से आधे से ज्यादा समय के लिए पैरोल पर उन्हें 2020 और 2021 में रिहा किया गया था. उस समय सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में कोविड को फैलने से रोकने के लिए, जेलों की भीड़भाड़ को कम करने के उद्देश्य से देश भर में कई उम्रकैद के दोषियों को पैरोल पर रिहा करने के लिए कहा था.

एक आरोपी केशरभाई खिमाभाई वहोनिया के रेमिशन डॉक्यूमेंट से पता चलता है कि उसे 8 फरवरी 2010 और 10 नवंबर 2010 के बीच 90 दिनों के लिए पैरोल मिली थी. इसी तरह वह अगस्त 2019 और नवंबर 2019 के बीच 92 दिनों के लिए बाहर था. 2020 और 2021 में जब सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को कोविड के कारण जेलों की भीड़ कम करने के लिए कहा था, तब वहोनिया 491 दिनों के लिए जेल से बाहर था.

सह-आरोपी प्रदीप रमनलाल मोढिया कुल 1,041 दिनों के लिए पैरोल पर था. तीन बार वह 90-90 दिनों के लिए जेल से बाहर रहा. पहली बार अक्टूबर 2019 से जनवरी 2020 तक, फिर अप्रैल 2011 से जुलाई 2011 और उसके बाद सितंबर 2011 से दिसंबर 2011 तक. उसके रिकॉर्ड से यह भी पता चलता है कि वह तीन मौकों – जून 2010, जून 2012 और अगस्त 2013 में 14 दिनों से ज्यादा समय के लिए फरलो पर भी था.

मितेश चमनलाल भट्ट को कुल 771 दिनों की पैरोल और 234 दिनों की फरलो मिली थी. वह चार बार 90-90 दिनों के लिए पैरोल पर बाहर था. इसके अलावा सितंबर 2013 से तीसरी बार पैरोल पर बाहर आने के बाद वह तीन महीने की समय सीमा खत्म होने तक जेल में नहीं लौटा था. समय सीमा के खत्म होने के 39 दिन बाद उसने आत्मसमर्पण किया था.

भट्ट जब चौथी बार जून 2020 में पैरोल पर बाहर था, तो उस पर छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया गया था. फिर भी स्थानीय पुलिस रिपोर्ट ने उसकी ‘रेमिशन’ याचिका का समर्थन किया. रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसा भट्ट के इस आश्वासन देने के बाद किया गया जिसमें उसने कहा था कि अगर मामले की सुनवाई में उसे दोषी ठहराया गया तो वह वापस जेल चला जाएगा.

फरलो के लिए 14 दिनों की अनिवार्य समयावधि को धता बताते हुए, भट्ट को 30 दिनों से ज्यादा समय के लिए जेल से बाहर रहने की अनुमति दी गई थी.

बिपिनचंद्र कन्हैयालाल जोशी को भी तीन बार 60-60 दिन और एक बार 90 दिन के लिए पैरोल दी गई थी.

राजूभाई बाबूलाल शाह को न सिर्फ 90 दिनों के लिए तीन बार पैरोल मिली, बल्कि वह एक बार तो पैरोल का समय खत्म हो जाने के बाद 197 दिनों तक बाहर रहा था. इसके बाद ही उसने आत्मसमर्पण किया था. 2018 में, एक अन्य मौके पर शाह को 60 दिनों के लिए पैरोल मिली थी.

गोविंदभाई अखंभाई नाई, रमेशभाई रूपाभाई चंदना, राजूभाई बाबूलाल सोनी और जशवंतभाई चतुरभाई नाई को भी 90 दिनों के लिए तीन बार पैरोल दी गई थी. बकाभाई खिमाभाई वहोनिया को दो बार 60 दिन की पैरोल दी गई.

Graphic: Manisha Yadav | ThePrint

2008 में आजीवन कारावास से लेकर 2022 में क्षमादान तक

2004 में गैंगरेप और हत्या के मामले में गिरफ्तार दोषियों को 2008 में मुंबई के एक विशेष सत्र न्यायाधीश ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने उन पर लगे आरोपों और जेल की सजा को बरकरार रखा था.

जेल में 14 साल पूरे करने पर दोषी क्षमा पाने के हकदार थे और इसलिए उन सभी ने फरवरी 2021 में अपनी समय से पहले रिहाई के लिए अनुरोध किया.

तिहाड़ जेल के पूर्व प्रवक्ता और वकील सुनील गुप्ता ने दिप्रिंट को बताया कि हर राज्य में पैरोल के नियम अलग-अलग होते हैं. उन्होंने कहा, उदाहरण के लिए दिल्ली में पैरोल या फरलो के लिए आवेदन तभी किया जा सकता है जब निचली अदालत के सजा के आदेश को पहली अपील पर उच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा जाता है.

इसका मतलब यह है कि भले ही दोषी किसी उच्च न्यायालय के समक्ष फैसले को चुनौती दे रहा हो , फिर भी पैरोल या फरलो के लिए उसकी याचिका पर विचार किया जा सकता है.

गुप्ता ने कहा, ‘हालांकि हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्य समान नियमों का पालन नहीं करते हैं. उच्च न्यायालय में उसकी अपील लंबित होने के बावजूद, वे निचली अदालत द्वारा अपराधी ठहराने पर पैरोल और फरलो याचिका पर तुरंत फैसला दे देते हैं.’

बिलकिस बानो मामले में दोषियों को 2010 के बाद से पैरोल और फरलो दोनों पर रिहा होना शुरू हो गया था. यह तब हुआ जब निचली अदालत ने उन्हें अपराध के लिए दोषी ठहराया था और जब उनकी अपील उच्च न्यायालय में लंबित थी.

(इस फीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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