नई दिल्ली: अंग्रेजों के जमाने में कभी ‘गैर-युद्धक’ मानी जाने वाली बिहारी रेजीमेंट आजकल हर जगह सुर्खियों में छाई हुई है.
गत 15 जून को पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी फौजियों के साथ हिंसक झड़प में 20 जवान मारे गए. इनमें ज्यादातर जवान, कमांडिंग ऑफिसर समेत, बिहार रेजीमेंट की एक इकाई 16 बिहार के थे.
यह क्षति जिसने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी गतिरोध को एक तरह से नया मोड़ दे दिया- अपेक्षाकृत नई किंतु प्रतिष्ठित बिहार रेजीमेंट के इतिहास में एक नया अध्याय है.
गलवान संघर्ष के बाद सेना की तरफ से जारी एक वीडियो में बिहार रेजीमेंट के जवानों को श्रद्धांजलि देते हुए कहा गया, ‘ये जंग के लिए जन्मे थे. ये पीछे रहने वालों में नहीं हैं बल्कि असली जांबाज हैं’.
#IndianArmy #21yearsofKargil
The Saga of #DhruvaWarriors and The Lions of #BiharRegiment.
"Born to fight.They are not the bats. They are the Batman."
"After every #Monday, there will be a #Tuesday. Bajrang Bali Ki Jai"@adgpi@MajorAkhill #NationFirst pic.twitter.com/lk8beNkLJ7— NorthernComd.IA (@NorthernComd_IA) June 20, 2020
मंगल पांडे के नेतृत्व वाली बंगाल नेटिव इन्फैंटरी की अगुवाई में 1857 में भारत की आजादी की पहली लड़ाई में हिस्सा लेने से लेकर, 1965 और 1971 की भारत-पाक जंग, करगिल युद्ध और कई उग्रवाद निरोधक (सीआई) अभियानों में हिस्सा लेने वाले बिहारीज, जिस लोकप्रिय नाम से यह रेजीमेंट ख्यात है, ने तमाम युद्धक सम्मान और अलंकरण हासिल किए हैं.
कौन हैं बिहारी?
बिहार रेजीमेंट दो समूहों से मिलकर बनी हैं जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में उत्तरी बिहारी और दक्षिणी बिहारी कहा जाता है. बटालियन में दोनों शामिल होते हैं.
उत्तर बिहारियों में ज्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों के जवान होते हैं, जबकि दक्षिण बिहारियों में अधिकतर आदिवासी, खासकर झारखंड और ओडिशा के मुंडा, संथाल, होस और उरांव आदि होते हैं.
दोनों समूहों में समान संख्या में सैनिकों को भर्ती किया जाता है. उत्तर बिहारियों का युद्धघोष ‘बजरंगबली की जय ‘ है और दक्षिण बिहारियों के लिए यह ‘बिरसा मुंडा की जय ‘ है.
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बिहार रेजीमेंट के एक शीर्ष सैन्य अफसर ने बताया कि आदिवासी जवानों में सीआई अभियानों में बेहतर प्रदर्शन की नैसर्गिक काबिलियत तमाम अन्य के मुकाबले ज्यादा होती है, खासकर जंगलों में चलने वाले अभियानों के लिहाज से.
अधिकारी, जो अपना नाम नहीं उजागर करना चाहते, ने कहा, ‘इसी तरह उत्तर बिहारियों के लिए भूमि की अहमियत और पवित्रता बहुत मायने रखती है और इसलिए उनमें मातृभूमि को लेकर अलग ही तरह का जुनून होता है, अगर उस पर जरा भी आंच आ जाए तो वह अपनी क्षमताओं और आदेशों से परे जाकर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं’.
अधिकारी ने बताया कि उत्तर बिहारी आजादी के पहले भी अपना बेहतरीन प्रदर्शन कर चुके हैं और इस रेजीमेंट का गौरवमय इतिहास रहा है.
अधिकारी ने कहा, ‘अंग्रेजों को किसानों में एक योद्धा की झलक दिखी तो उन्होंने योद्धा के रूप में किसानों की क्षमता का आकलन किया खासकर तब जब बाबू कुंवर सिंह और बिरसा मुंडा ने उनके खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया.’
उन्होंने कहा, ‘एक तरह से आप कह सकते हैं कि रेजिमेंट में दो धर्मों की बहुलता हैं हिंदू और ईसाई. इसलिए हम हिंदू और ईसाई दोनों धर्मों की सभी परंपराओं का पालन करते हैं.’
रेजिमेंट में सेवारत रह चुके ब्रिगेडियर सनल कुमार (सेवानिवृत्त) ने बताया कि एक समय उनकी यूनिट में गुजरात से लेकर नगालैंड तक के आदिवासी थे, यद्यपि रेजिमेंट में शामिल ज्यादातर आदिवासी झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के थे.
उन्होंने आगे कहा, ‘हमें याद है कि कैसे आदिवासी गीतों को मिलाकर यूनिट के लिए एक मिश्रित गीत बनाया गया था.’
बिहार रेजीमेंटल सेंटर दानापुर, बिहार में है.
समृद्ध इतिहास और इसके नुकसान
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, आधुनिक काल के बिहारियों की सैनिकों के रूप में भर्ती ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में शुरू हुई थी जिसने 1750 के दशक में ‘बंगाल नेटिव इन्फैंटरी’ की स्थापना की थी.
यूनिट में भर्ती मुख्य रूप से भोजपुर के अलावा शाहाबाद और मुंगेर से भी हुई थी.
उनकी विजयगाथा में बक्सर की जंग और मराठा युद्ध शामिल हैं. उन्होंने मलय, सुमात्रा और मिस्र में भी जीत का परचम लहराया.
हालांकि, 1857 में स्वाधीनता की पहली लड़ाई के बाद स्थितियां एकदम बदल गई, जब सिपाही मंगल पांडे के नेतृत्व में सबसे पहले बिहारी सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों के इस्तेमाल के खिलाफ विद्रोह कर दिया. राज्य के दो अन्य नेता बाबू कुंवर सिंह और बिरसा भी अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलने वालों के तौर पर उभरे.
इसके तुरंत बाद, अंग्रेजों ने बंगाल नेटिव इन्फैंटरी को ‘गैर-युद्धक‘ करार देते हुए खत्म कर दिया, जो कि मुख्यत: पूरबिया (पूर्वी) यानी मौजूदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, झारखंड और ओडिशा के एक बड़े क्षेत्र को मिलाकर बनी थी.
अंग्रेजों की सेना में बिहारियों की भर्ती भी बंद कर दी गई.
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रेजीमेंट में रह चुके मेजर जनरल नीरज बाली (सेवानिवृत्त) कहते हैं कि रेजीमेंट को संभवत: अंग्रेजों के साथ वफादारी न दिखाने के लिए दरकिनार किया गया. साथ ही कहा कि अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह में भागीदारी के दंड के तौर पर जानबूझकर उसे ‘गैर-युद्धक’ घोषित कर दिया.
उन्होंने कहा, ‘बेशक अंग्रेज इसे गदर कहते थे. अगर आप मार्शल रेस को लेकर घोषणा या मान्यता के बीच अंग्रेजों की अवधारणा को देखें तो पता लगता है कि उन्होंने ब्रिटेन का समर्थन और विरोध करने वालों के बीच एक स्पष्ट रेखा खींच दी थी. बिहारियों ने बगावत कर दी थी’.
उन्होंने कहा, ‘बिहार रेजीमेंट को 1941 में जब फिर से गठित किया गया तो तमाम अनुरोधों के बावजूद उसे अपने समृद्ध ऐतिहासिक विरासत वाला तमगा फिर से नहीं मिल सका’.
रेजिमेंट का पुनर्गठन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुआ था और 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट में भर्ती की गई थी.
उन्होंने कहा, ‘जहां तक रेजिमेंट को मान्यता का सवाल है, विद्रोह में भागीदारी के इतिहास के कारण अंग्रेजों ने इसकी प्रक्रिया बेहद धीमी रखी. इसका न तो कोई वित्तीय असर पड़ा और न ही सरकारी खजाने से कुछ खर्च किया गया. यह बस ऐसा था कि सेना और जवान परंपरा, संस्कृति और गौरव के नाम पर खुश हो गए’.
बाली के मुताबिक, ‘पैदल सेना के हर सिपाही को बताया जाता है कि सभी रेजीमेंट के सैनिक समान रूप से बहादुर और समर्पित हैं. अंतर सिर्फ नेतृत्व करने वाले का होता है’.
रेजीमेंट में रहने के दौरान का एक किस्सा बताते हुए बाली ने कहा कि उनके कमांडिंग अफसर रहने के दौरान कैसे एक बार उनकी यूनिट के तीन जवान आईईडी धमाके की चपेट में आकर शहीद हो गए थे.
उन्होंने आगे बताया, ‘मैंने लाल रंग का टैब पहन रखा था और किसी ने सुझाव दिया कि उसे उतार दूं ताकि हमले में निशाना बनने से बच सकूं, लेकिन तभी यूनिट के एक साथी ने आकर कहा कि मैं जवानों का मनोबल बनाए रखने के लिए उसे पहने रखूं. यह आपको जवानों की मानसिकता बताता है’.
ब्रिगेडियर कुमार इस बात से सहमत हैं. उन्होंने कहा, ‘आजादी के बाद रेजिमेंट ने अपने गौरवशाली इतिहास को फिर से कायम करने की कोशिश की लेकिन कोई भी स्कूल में इसके बारे में नहीं पढ़ाता’.
एक अन्य पूर्व सैनिक, जो अपनी पहचान जाहिर नहीं करना चाहते, का कहना है कि किसी तरह लोग रेजीमेंट को राज्य से जोड़कर देखने लगे और एक समय पर बिहार राज्य के तौर पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहा था. ऐसे में रेजीमेंट के बारे में कुछ दूसरी तरह की ही धारणा बन गई जबकि यह सेना में अन्य की तरह अच्छा प्रदर्शन ही कर रही थी.
बाली के मुताबिक, ‘यह बताने के लिए कि बिहार रेजीमेंट ने अपने प्रदर्शन से कैसे प्रतिष्ठा अर्जित की है, किसी को बहुत रिसर्च नहीं करनी पड़ेगी. यह ऐसा कोई तथ्य नहीं है जिसे साबित करना पड़े’.
आजादी के बाद मिली ख्याति
भारत-पाकिस्तान के बीच हुई 1965 और 1971 की जंग में इस रेजीमेंट की ज्यादातर बटालियन ने हिस्सा लिया था. बिहार रेजीमेंट की एक यूनिट 10 बिहार को 1971 में अखौरा की लड़ाई में अदम्य साहस का परिचय देने के लिए थियेटर ऑनर अखौरा से सम्मानित किया गया था.
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1 बिहार रेजीमेंट ने बटालिक सब सेक्टर में ऑपरेशन विजय में हिस्सा लिया था और जुबार हिल और थारू पर फिर कब्जा जमाने में अहम भूमिका निभाई थी. यूनिट को सेनाध्यक्ष यूनिट प्रशस्ति पत्र, बैटल ऑनर ‘बटालिक’ और थिएटर ऑनर ‘करगिल’ से सम्मानित किया गया. इस यूनिट को चार वीर चक्र समेत 26 शौर्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया.
इस रेजीमेंट की कई सीआई ऑपरेशंस में भागीदारी रही है और 2011 में इसकी सभी बटालियन ने ऑपरेशन पराक्रम में हिस्सा लिया था.
2008 में मुंबई पर आतंकी हमले के दौरान ऑपरेशन ब्लैक टॉरनेडो के तहत एनएसजी के मेजर संदीप उन्नीकृष्णन ने आतंकियों का बहादुरी से मुकाबला किया और उन्हें मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया. उनकी पैरेंट यूनिट 7 बिहार थी.
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