तालडांगरा, बांकुड़ा: कोरोना वायरस का कहर खासकर पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव में प्रचलित एक प्राचीन कला परंपरा को आगे बढ़ाने में बाधा बन गया है.
बांकुड़ा जिले के बिष्णुपुर स्थित पंचमुड़ा गांव में कुम्भकारों या कुम्हारों के सौ से कुछ कम परिवार रहते हैं. इन महिलाओं और पुरुषों ने टेराकोटा उत्पाद बनाने की 1,000 साल की पुरानी विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अपने मजबूत कंधों पर ले रखी है- खास तौर पर पकी हुई मिट्टी से बनने वाली घोड़े की मूर्तियां या टाइलें बनाने का काम.
लेकिन बांकुड़ा शहर से 40 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव, जिसके रास्ते में जंगल भी पड़ता है, में महामारी ने लोगों की आजीविका को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है.
धीमी आंच या आग पर जलाकर पकाने के दौरान मिट्टी से आने वाली तेज आवाजें खामोश पड़ चुकी हैं क्योंकि इन उत्पादों को बेच पाना अब मुश्किल हो गया है.
दलितों के इस गांव के कुम्हारों का कहना है कि वायरस ने न सिर्फ कारीगरों की जान ली है, बल्कि कला को भी खात्मे के कगार पर ला खड़ा किया है. 88 परिवारों के 287 पुरुष और महिलाएं दोनों इस पेशे में लगे हैं.
संसाधनों की कमी के कारण ऑनलाइन मार्केटिंग अपनाने में असमर्थ यहां के ग्रामीणों ने सब कुछ खत्म होने से बचाने के लिए सरकारों से मदद मांगी है. कुम्हारों का कहना है कि वे अपनी कला को छोड़कर शहरों की ओर पलायन नहीं करना चाहते थे, इसके बजाये स्थानीय घरेलू सहायक-सहायिकाओं के तौर पर काम करना पसंद करेंगे.
हालांकि, सरकारी अधिकारी चाहते हैं कि कारीगर अपना माल ऑनलाइन बेचने में सक्षम हों. लेकिन कुम्हारों का कहना है कि इंटरनेट की उपलब्धता जैसे कई साधनों की कमी को देखते हुए यह असंभव है.
टेराकोटा का इतिहास
टेराकोटा मिट्टी को जलाकर या पकाकर भिन्न-भिन्न आकृतियां बनाने की एक परंपरा है जिसकी जड़ें 8वीं शताब्दी से जुड़ी हैं. इसकी शुरुआत मल्ल वंश के शासनकाल में बिष्णुपुर के पंचमुड़ा गांव से हुई थी.
बंगाल में पत्थरों की आपूर्ति कम होने के कारण पकी मिट्टी की तैयार ईंटें एक विकल्प बनीं और इसके साथ ही एक अनूठे शिल्प ‘टेराकोटा’ का जन्म हुआ.
17वीं शताब्दी में कला अपने उत्थान के चरम पर पहुंची. राजा जगत मल्ल और उनके वंशजों ने टेराकोटा के भित्ति चित्रों और दीवारों पर उकेरी गई नक्काशी के साथ कई मंदिरों का निर्माण कराया.
समय के साथ लंबी गर्दन वाला विष्णुपुर घोड़ा टेराकोटा कला की एक पुख्ता पहचान बन गया. ग्रामीण हस्तशिल्प की उत्कृष्ट कला का यह प्रतीक काफी लोकप्रिय है.
शिल्पकारों ने लगाई मदद की गुहार
कुम्हारों का कहना है कि महामारी से पहले एक कुम्हार-कलाकार सारे खर्चें निकालकर प्रति माह लगभग 10,000 रुपये कमा लेता था.
वह अपने उत्पादों को सीधे बाजार में बेचने के बजाये थोक विक्रेताओं और निर्माण सामग्री आपूर्तिकर्ताओं (टाइल्स के लिए) को देते थे. ये एजेंट गांव में अपना काम कराने के लिए आते थे, लेकिन अब उनका आना कभी-कभार ही होता है.
इस गांव में टाइलों के अलावा यहां की खास पहचान बने लंबी गर्दन वाले घोड़े, जिसे बिष्णुपुर घोड़े के नाम से जाना जाता है, का निर्माण होता है. यहां के कारीगर अपनी छोटी-मोटी कृतियां 150-200 रुपये में बेचते हैं, जो शहरों में फुटकर दुकानों और बुटीक आदि में काफी ज्यादा कीमत पर बिकते हैं.
कुम्हार संघ के सचिव भूतनाथ कुंभकार ने कलाकारों को टीका लगाने और विलुप्त होती कला को फिर से जीवित करने में मदद के लिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को पत्र लिखा है. हालांकि, कला को बचाने के बाबत उन्हें अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है लेकिन जिला प्रशासन ने गांव के 287 कारीगरों को टीका लगवा दिया है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी कला—ज्यादातर घोड़े और आंतरिक सजावट के लिए टाइलें—को आज कोई पूछने वाला तक नहीं है. हम दशकों से यही काम करते आ रहे हैं और कोई दूसरा पेशा नहीं जानते हैं.’ कुंभकार ने कहा कि खेती कोई विकल्प नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र बंजर है. कोविड ने अगली पीढ़ी को इस ‘कला में कुछ नया और आधुनिक’ करने के लिए पारंगत करने की उनकी योजनाओं को भी ध्वस्त कर दिया है.
70 वर्षीय बुद्धदेव कुंभकार के जीर्ण-शीर्ण घर की दीवारें गौरवशाली अतीत की झलक देती हैं.
मिट्टी की इन दीवारों पर रूस और जर्मनी की उनकी यात्राओं की पुरानी तस्वीरें, कई पुरस्कार समारोह और प्रमाणपत्र आदि फ्रेम में सजे नजर आते हैं. बुद्धदेव का कहना है, ‘लेकिन ये मेरे आठ लोगों के परिवार के भरण-पोषण के लिए पैसे नहीं दे सकते.’
यह कहते हुए कि टेराकोटा तो उनकी जीन में है, कुम्हार कहते हैं, ‘किसी ने हमें मिट्टी के मॉडल या मूर्तियां बनाना नहीं सिखाया. हमने इसे अपने दम पर सीखा. यह एक नाजुक कला है और इसमें काफी ज्यादा श्रम की आवश्यकता होती है. महामारी ने हमारे कुछ कारीगरों को निशाना बनाया और अब यह कला के लिए खतरा बन रही है.’
सरकारी मदद में कमी की शिकायत करते हुए बुद्धदेव ने कहा कि ग्रामीणों को ‘बुनियादी स्वास्थ्य जांच’ के लिए 25 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है.
एक अन्य कलाकार नारायण कुंभकार की हालत और भी खराब है. उनके परिवार के दो सदस्य पिछले महीने कोविड की चपेट में आ गए थे. उनमें से एक का स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में परीक्षण किया गया लेकिन रिपोर्ट 10 दिनों के बाद दी गई.
नारायण ने कहा, ‘मेरे बड़े भाई को बुखार और सूखी खांसी थी. उन्होंने साइकिल से जाकर निकट के स्वास्थ्य केंद्र जाकर जांच कराई. पर रिपोर्ट 10 दिन बाद आई. वह आइसोलेशन में नहीं थे और इस दौरान परिवार का एक अन्य सदस्य भी संक्रमण की चपेट में आ गया. हालांकि, कुछ दिनों में दोनों ठीक हो गए लेकिन रिपोर्ट आने में 10 दिन क्यों लगे थे?’
नारायण ने बताया कि उन लोगों के टीकाकरण के लिए जिला प्रशासन को राजी करना भी एक बड़ा काम था. उन्होंने बताया, ‘टीकाकरण कराने के लिए हमें कई पत्र लिखने पड़े थे. लेकिन हमें अभी तक अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर पाने के लिए कोई सहायता नहीं मिली है. हम मुश्किल से दो वक्त के खाने का इंतजाम कर पाते हैं. हमारे पास पैसा भी नहीं है.’
सरकारी मदद, या इसमें दिक्कत
बांकुड़ा के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि प्रशासन ‘कारीगरों को वित्तीय राहत प्रदान करने के लिए उनकी कुछ कलाकृतियां खरीदने की कोशिश कर रहा है.’
स्थानीय विधायक अरूप चक्रवर्ती का कहना है कि कारीगरों को ‘टेराकोटा शिल्प के लिए एक ऑनलाइन बाजार बनाने की कोशिश करनी चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘हमने स्थानीय पंचायतों से इन उत्पादों को बेचने के लिए ऑनलाइन मार्केटप्लेस बनाने या विभिन्न ई-कॉमर्स पोर्टल के साथ रजिस्ट्रेशन कराने में मदद करने को कहा है.’ उन्होंने बताया कि लॉकडाउन ने व्यापार को काफी ज्यादा प्रभावित किया है.
उन्होंने यह भी कहा कि अनुसूचित जाति समुदायों से आने वाले कारीगर मुख्यमंत्री की मासिक भत्ता योजना के तहत प्रति परिवार 1,000 रुपये के पात्र हैं. एक अधिकारी ने कहा कि प्रशासन उनके घरों तक राशन पहुंचाने की भी कोशिश कर रहा है.
हालांकि, ग्रामीण ऑनलाइन बिक्री की संभावनाओं को लेकर परेशान हैं. उनका कहना है कि इंटरनेट की बेहतर पहुंच का अभाव, पैकेजिंग और परिवहन में आने वाली समस्याओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.
भूतनाथ कुंभकार ने कहा, ‘हमारे पास सीधे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर आपूर्ति के संसाधन नहीं हैं. ये बेहद नाजुक उत्पाद हैं और इन्हें विशेष पैकेजिंग की आवश्यकता होती है. हमारे यहां मूलभूत सुविधाएं भी नहीं हैं. हम इस दूरवर्ती इलाके में निर्बाध इंटरनेट सेवा और सुचारू परिवहन की अपेक्षा कैसे करेंगे? हमने ग्रामीण खादी, राज्य और केंद्रीय दोनों विभागों से हमारी मदद करने का अनुरोध किया है.’
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