नई दिल्ली: भारत में लगभग 27,000 मनोचिकित्सकों की कमी है, यह देखते हुए एक संसदीय समिति ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) से देश भर के मेडिकल कॉलेजों में पोस्ट-ग्रेजुएट और समकक्ष सीटें बढ़ाने का आग्रह किया है.
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर विभाग-संबंधित संसदीय स्थायी समिति के अनुसार, देश में लगभग 9,000 मनोचिकित्सक हैं, हालांकि लगभग 15 प्रतिशत वयस्कों – जैसा कि राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-1 (एनएमएचएस) 2015-16 में उजागर किया गया है – एक या अधिक मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों के लिए सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है.
समिति ने शुक्रवार को लोकसभा में ‘समसामयिक समय में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल और इसके प्रबंधन’ पर अपनी 148वीं रिपोर्ट पेश की.
सांसद भुवनेश्वर कलिता की अध्यक्षता वाली समिति ने रेखांकित किया कि भारत में प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वांछनीय संख्या, प्रति 1,00,000 लोगों पर तीन मनोचिकित्सकों से ऊपर है.
अब तक, मनोचिकित्सा में लगभग 1,000 पोस्ट-ग्रेजुएट हर साल कार्यबल में शामिल होते हैं, लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि इस दर से, भारत को प्रति 100,000 जनसंख्या पर मनोचिकित्सकों की अनुशंसित संख्या प्राप्त करने में 27 साल और लग सकते हैं.
प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर मनोचिकित्सकों का वैश्विक औसत 1.7 है.
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि लगभग 2,840 मान्यता प्राप्त नैदानिक मनोवैज्ञानिक हैं (जो मुख्य रूप से टॉक थेरेपी करते हैं), लेकिन चिंता व्यक्त की कि, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में एम.फिल पाठ्यक्रमों को बंद करने की सिफारिश की गई है और कई संस्थान इस उपाय का पालन कर रहे हैं, जिससे आगे भी देश में मनोवैज्ञानिकों का कमी की समस्या हो सकती है.
समिति ने सिफारिश की कि “मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या को मजबूत करने और मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की क्षमता को बढ़ाने के लिए अल्पकालिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए.”
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मानसिक स्वास्थ्य संकट
एनएमएचएस 2015-16 ने इस बात पर प्रकाश डाला था कि लगभग 150 मिलियन भारतीय किसी न किसी प्रकार की मानसिक बीमारी से प्रभावित हैं, जबकि 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों की मानसिक रुग्णता 10.6 प्रतिशत थी, और सर्वेक्षण की गई आबादी में मानसिक विकारों का जीवनकाल प्रसार 13.7 प्रतिशत था.
मानसिक रुग्णता का तात्पर्य किसी मानसिक या मनोवैज्ञानिक स्थिति के परिणामस्वरूप शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों प्रकार की गिरावट की घटनाओं से है.
सर्वेक्षण में सामान्य मानसिक विकारों, गंभीर मानसिक विकारों और मादक द्रव्यों के सेवन की समस्याओं के सह-अस्तित्व की ओर भी इशारा किया गया था, जिससे मध्यम आयु वर्ग की कामकाजी आबादी विशेष रूप से प्रभावित हुई थी.
इसके अलावा, सर्वेक्षण में पाया गया कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े उपचार का अंतर बहुत बड़ा था और इसका कारण उपलब्धता की कमी से लेकर उपचार की सामर्थ्य तक था.
संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भारत में मानसिक विकारों के इलाज में विभिन्न विकारों के लिए उपचार का अंतर 70 से 92 प्रतिशत के बीच है.
चूंकि कोविड-19 महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य और मनो-सामाजिक कल्याण के लिए जोखिम बढ़ा दिया है और सभी के लिए तनाव कारक बढ़ गए हैं, समिति ने सिफारिश की है कि एनएमएचएस-2, जो 2025 में पूरा होने वाला है, में तेजी लाई जानी चाहिए ताकि महामारी के प्रभाव का सटीक पता लगाया जा सकता है.
समिति की रिपोर्ट में देश में आत्महत्या की बढ़ती दर पर भी चिंता व्यक्त की गई है, जिसमें बताया गया है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ‘भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या’ 2021 रिपोर्ट के अनुसार, आत्महत्या की दर बढ़कर प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर चिंताजनक रूप से 12 हो गई है. .
इसलिए, समिति ने स्वास्थ्य मंत्रालय से राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति के माध्यम से निगरानी तंत्र को मजबूत करने के लिए कहा है, ताकि आत्महत्या के कारणों पर नज़र रखी जा सके और शमन रणनीतियां तैयार की जा सकें.
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(संपादन: अलमिना खातून)
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