दुनियाभर की सरकारों ने महामारी से निपटने के लिए अपने वित्तीय ख़र्च को बढ़ाया है. साथ ही साथ केंद्रीय बैंकों ने, नक़दी में भी इज़ाफा किया है. अमेरिका में ये डर ज़ाहिर किया जा रहा है कि विस्तारक वित्तीय तथा मौद्रिक नीतियों से, ओवरहीटिंग की स्थिति पैदा हो सकती है. इसकी वजह से अमेरिका में महंगाई दर तेज़ी से बढ़ सकती है, क्योंकि वैक्सीन्स की सहायता से अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के साथ, लोग ज़्यादा ख़र्च करने लगते हैं.
भारत में, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) मार्च में 5.52 प्रतिशत था, जबकि फरवरी महीने में ये 5.03 प्रतिशत, और जनवरी में 4.06 प्रतिशत था. सीपीआई महंगाई में वृद्धि, ईंधन और यातायात ख़र्च बढ़ने की वजह से हुई थी, जिसके साथ ही खाद्य पदार्थों के कुछ घटकों में भी इज़ाफा हुआ था.
उसके अलावा इस समय देशभर में कोविड-19 मामलों में रिकॉर्ड उछाल, ख़ासकर ऐसे समय जब उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में रिकवरी शुरू हो गई है, महंगाई दर पर ऊपर की ओर गंभीर दबाव बना सकता है.
ऊंची वैश्विक महंगाई दर, वस्तुओं के बढ़ते दाम, स्थानीय लॉकडाउन्स और कमज़ोर रुपया, भारत में क़ीमतों को बढ़ा सकते हैं.
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आपूर्ति में बाधाएं
जहां अमेरिका में कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि मांग की ओर से पड़ने वाले प्रभाव महंगाई दर को बढ़ा सकते हैं, वहीं भारत में आपूर्ति की ओर से भी इस पर असर पड़ने की अपेक्षा है.
जैसे-जैसे कोविड में उछाल आता है और मौतें बढ़ती हैं, चरमराती स्वास्थ्य प्रणालियां राज्य तथा शहरों की सरकारों को, कर्फ्यू लगाने और आवाजाही पर पाबंदी लगाने की ओर ढकेल सकती हैं. स्थानीय लॉकडाउन्स और आपूर्ति में बाधाएं, अभी कुछ और समय तक बने रह सकती हैं.
हालांकि सरकार और कारोबार पिछले साल के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर ढंग से तैयार हैं, लेकिन इस समय जो उछाल देखा जा रहा है, उसके लिए ये तैयारी पूरी पड़ने की संभावना नहीं है. ऐसा लगता है कि किसी ने भी, इतने बड़े आकार की दूसरी लहर की अपेक्षा नहीं की थी.
आपूर्ति में ये बाधाएं अपने आप से क़ीमतों को बढ़ा सकती हैं.
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वैश्विक मुद्रास्फीति
इस सबके ऊपर, अमेरिकी मुद्रास्फीति में वृद्धि आने वाले महीनों में, भारत पर विपरीत प्रभाव डाल सकती है. ऊंची वैश्विक मुद्रा स्फीति आयातित वस्तुओं के ज़रिए, घरेलू क़ीमतों में इज़ाफा कर सकती है.
अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के साथ ही, तेल समेत वस्तुओं के दाम भी बढ़ गए हैं और आगे इनमें और इज़ाफा हो सकता है. इसका मतलब होगा, ऊंची आयातित मुद्रा स्फीति.
भारत में थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) आधारित मुद्रीस्फीति, मार्च में बढ़कर 8 वर्षों के रिकॉर्ड स्तर, 7.39 प्रतिशत पर पहुंच गई, जिसका कारण ईंधन तथा विनिर्मित उत्पादों की क़ीमतों में इज़ाफा था. डब्लूपीआई में विनिर्मित उत्पादों का वेट लगभग 65 प्रतिशत होता है. डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति में उछाल, मेटल्स, रबर, केमिकल्स और टेक्सटाइल्स की क़ीमतों के तेज़ी से बढ़ने की वजह से आया था.
इन वस्तुओं की वैश्विक क़ीमतों में तेज़ी से बढ़ोतरी देखी जा रही है, जिसके पीछे का कारण कोविड वैक्सीन आ जाने के बाद, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मांग का फिर से बढ़ना है. ऐसी संभावना है कि डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति, आयातित विनिर्मित उत्पादों और पिछले साल के निचले आधार की वजह से, निकट भविष्य में दहाई का आंकड़ा छू सकती है.
सीपीआई में, खाद्य तेलों की मुद्रास्फीति लगभग 25 प्रतिशत और दलहन की क़रीब 13.25 प्रतिशत तक पहुंच गई. खाद्य तेलों की वैश्विक क़ीमतों में बढ़ोतरी से भी मुद्रास्फीति के ऊपर उठने का ख़तरा पैदा हो सकता है. गर्मियों के महीनों में सब्ज़ियों के दामों में मौसमी उछाल और स्थानीय लॉकडाउन मिलकर भी मुद्रास्फीति को बढ़ा सकते हैं.
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रुपए का अवमूल्यन
मार्च में 2.6 प्रतिशत अमेरिकी मुद्रास्फीति से फेडरल रिज़र्व रेट के बढ़ने की अपेक्षा होने लगी थी. हालांकि अपनी ताज़ा फेडरल ओपन मार्केट कमेटी मीटिंग में, यूएस फेड ने ब्याज दरें नहीं बढ़ाने का फैसला किया लेकिन बाज़ार को अपेक्षा थी कि इस साल बाद में उसे ऐसा करना पड़ेगा.
यूएस में बढ़ती प्राप्ति से अमेरिका और भारत के बीच ब्याज का अंतर कम होगा और इससे रुपए में गिरावट आ सकती है.
इसके अलावा, रुपया इसलिए भी गिर रहा है क्योंकि भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने सरकारी बॉण्ड्स पर ब्याज दर को कम रखने के लिए कुछ क़दम उठाए हैं. सरकार के ऋण प्रबंधक के तौर पर आरबीआई के पास सरकार के ऋण के कार्यक्रम को संभालने का ज़िम्मा होता है. जी-सेक अधिग्रहण कार्यक्रम (जी-सैप) की घोषणा के बाद रुपए में 1.5 प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई.
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के बाहर जाने से रुपए पर एक अतिरिक्त दबाव पैदा हो गया है. अक्टूबर और फरवरी महीनों के बीच, जब आर्थिक रिकवरी रफ्तार पकड़ रही थी, तो एफपीआईज़ ने 1.94 लाख करोड़ रुपए पंप किए.
लेकिन, अप्रैल के महीने में, जब दूसरी कोविड लहर और उससे उत्पन्न लॉकडाउंस के परिणामस्वरूप आर्थिक रिकवरी के फिर से पटरी से उतरने का ख़तरा पैदा हो गया है, तो एफपीआईज़ इक्विटी बाज़ार से बाहर निकल रही हैं. रुपए के बाहरी मूल्य में गिरावट, भारत के आयातों ख़ासकर कच्चे तेल, मेटल्स और खाद्य तेलों को और महंगा कर देगी.
रुपए के अवमूल्यन से आयातित वस्तुओं की, रुपए में क़ीमत बढ़ जाती है और ये देश में क़ीमतों के स्तर में, एक व्यापक वृद्धि कर सकती है.
(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री हैं और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पाण्डेय एनआईपीएफपी में एक कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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