भारतीय अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के असर से उम्मीद से ज्यादा तेजी से बाहर निकलने तो लगी है मगर उसके लिए कुछ महत्वपूर्ण खतरे कायम हैं.
2021 के लिए बजट के बारे में विचार करते हुए हमें उन शक्तियों के बारे में अपना नज़रिया तय करना होगा, जो अभी भी सक्रिय हैं.
ऐसा लगता है कि 2021 में भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा निम्नलिखित पांच चीजों से तय होने वाली है.
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1. कोरोना महामारी
कई अध्ययनों से जाहिर हो रहा है कि आबादी के बड़े हिस्से में एंटीबॉडीज़ पैदा हो रही हैं और कोविड-19 से संक्रमित होने वालों की संख्या घटने के साथ महामारी की रफ्तार भी धीमी पड़ रही है. इसके प्रत्यक्ष फायदे दिख रहे हैं.
उदाहरण के लिए, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मुंबई में ऐसे दिन भी बीते हैं जब कोविड से कोई मौत नहीं हुई. भारत के लगभग सभी राज्यों में वायरस का फैलाव धीमा हुआ है और संक्रमण की दर 1 प्रतिशत से नीचे हुई है.
हर जगह वैक्सीन का उत्पादन बड़े पैमाने पर होने लगा है और भारत में अब कई लोगों को इसका टीका लगाया जा सकेगा. यह कोविड से संक्रमित होने वालों की संख्या में और कमी लाएगा. इसके खतरे से मुक्त होने की उम्मीद रखने वाले लोगों की संख्या हर दिन बढ़ रही है और वे आर्थिक गतिविधियां शुरू करने लगे हैं.
2. उपभोक्ताओं की मांग
लॉकडाउन के दौर में उपभोक्ताओं की ओर से मांग बिल्कुल खत्म हो गई थी. इसकी एक वजह तो यांत्रिक थी, लोग बाज़ार नहीं जा पा रहे थे इसलिए बिक्री भी नहीं हो रही थी. परिवहन और सत्कार जैसी सेवाएं ठप हो गई थीं.
लॉकडाउन के बाद उपभोक्ताओं की ओर से मांग एक तो इसलिए खत्म हो गई थी क्योंकि लोगों की आमदनी घट गई थी. दूसरे, आमदनी थोड़ी सुधरने लगी तो अनिश्चितता बनी रही कि पता नहीं यह सुधार जारी रहेगी या अर्थव्यवस्था फिर गिरने लगेगी. मौतों की संख्या जब तक बढ़ रही थी और अस्पताल भरे हुए थे, तब तक यह आशंका बनी हुई थी कि लॉकडाउन कहीं फिर न लागू कर दिया जाए. इसके कारण उपभोक्ताओं की ओर से मांग नीची बनी रही.
लेकिन ये आशंकाएं मौतों की संख्या में गिरावट और कोविड के मरीजों का इलाज करने के मामले में स्वास्थ्य सेवाओं की क्षमता में भरोसा पैदा होने के कारण दूर होने लगी हैं. इसके कारण अर्थव्यवस्था को लेकर अनिश्चितता घटी है और उपभोक्ताओं की ओर से मांग बढ़ने लगी है.
लेकिन यह डर कायम है कि रोजगार का स्तर नीचा रहा तो आमदनी का स्तर भी नीचा रहेगा और दबाव घटने के बाद मांग में आई उछाल भी दब जाएगी.
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3. निवेश
भारतीय अर्थव्यवस्था में उछाल का सबसे निर्णायक तत्व है निजी निवेश. ऊंची अनिश्चितता ने निवेश की मांग को नीचे धकेल दिया था. अर्थव्यवस्था को लेकर अनिश्चितता घटती है तो व्यवसायों को निवेश करने के लिए अधिक मजबूत स्थितियां मिलती हैं. लेकिन कोरोना संकट के कारण कई कंपनियों, खासकर छोटे व्यवसायों की बैलेंसशीट बिगड़ गई. रिजर्व बैंक ने कंपनियों को लॉकडाउन की अवधि के लिए भुगतान में छूट के साथ कर्ज दिए क्योंकि वे कर्ज का भुगतान नहीं कर पा रही थीं. इससे कुछ मदद तो मिली लेकिन नीची मांग, निश्चित लागत और मौजूदा कर्ज का ब्याज भरने की मजबूरी ने कंपनियों पर दबाव बनाए रखा.
वित्तीय और गैर-वित्तीय फर्मों की बिगड़ी हुई बैलेंसशीट निवेश में सुधार की गति पर भारी दबाव डालेगी. फर्मों के कर्जों के निपटारे का पुराना एजेंडा बहुत महत्व रखता है. दिवाला एवं शोधन अक्षमता कोड लागू करने की जरूरत है. वित्तीय फर्मों के कर्ज निपटारे की व्यवस्था बनाने के लिए एफआरडीआई बिल लाने के बारे में फिर से सोचना पड़ेगा.
4. वित्तीय घाटा
भारतीय अर्थव्यवस्था में गिरावट का अर्थ था सरकार के कर राजस्व में भी भारी गिरावट. अनुमान है कि 2020-21 में वित्तीय घाटा 6.2 से 6.5 प्रतिशत के बीच रहेगा.
खर्चे करने की सरकारी क्षमता इसी घाटे के स्तर पर निर्भर करेगी. अगर सरकारी कर्जे असुविधाजनक स्तर पर पर पहुंच जाएंगे, तब अगले साल भी खर्चे करने की सरकारी क्षमता में कमी बनी रहेगी.
5. मुद्रास्फीति
पिछले कुछ महीनों से भारत में मुद्रास्फीति बढ़ रही है. शुरू में हर किसी को लगता था कि यह लॉकडाउन के कारण मांग में गिरावट और सप्लाई में अड़चनों के कारण हो रहा है. लेकिन अब तो सप्लाई और परिवहन की समस्याएं दूर हो चुकी हैं, फिर भी मुद्रास्फीति लक्ष्य से ऊपर बनी हुई है, यहां तक कि रिजर्व बैंक ने लक्ष्य के इर्द-गिर्द जो सीमा तय की थी उसे भी पार कर चुकी है.
ऊंची मुद्रास्फीति, खासकर खाद्य सामग्री की महंगाई न केवल गरीबों के लिए खर्च करने की सरकारी क्षमता को प्रभावित करती है बल्कि व्यवसाय जगत के लिए भी अनिश्चितता पैदा करती है.
रिजर्व बैंक ने 2015 के बाद के दौर में मुद्रास्फीति और इससे लड़ने के उपायों पर ज़ोर देकर बड़ी मेहनत से जो साख बनाई थी उस पर अब सवाल उठाया जा रहा है. लेकिन सरकार और रिजर्व बैंक को मुद्रास्फीति और इससे लड़ने के उन उपायों के पक्ष में मजबूती दिखानी पड़ेगी जिनकी बदौलत भारत की वृहत अर्थव्यवस्था को स्थायित्व देने में मदद मिली थी.
(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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