कोविड-19 के कारण लागू किए गए लॉकडाउन के चलते मुश्किल में पड़े कर्जदारों की मदद के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने कर्ज भुगतान पर जो 6 महीने की रोक लगाई थी वह 31 अगस्त को समाप्त हो गई. कई ऋणदाताओं ने रिजर्व बैंक से आग्रह किया था कि इस रोक को और आगे न बढ़ाया जाए क्योंकि इससे ‘एनपीए’ (बुरे कर्जों) में वृद्धि होगी, जबकि उन कर्जदारों को अनावश्यक फायदा होगा जो भुगतान करने की क्षमता रखते हैं.
रोक खत्म होने के बाद कई कर्जदारों, होटल संघों और रियल एस्टेट कंपनियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके मांग की कि रोक आगे जारी रखी जाए और रोक की अवधि में भुगतान की जाने वाली किस्तों पर ब्याज लेने से बैंकों को रोका जाए. सरकार ने कहा कि वह 2 करोड़ रुपये के ‘एमएसएमई’ तथा निजी कर्जों पर ब्याज के ऊपर ब्याज का खर्च उठाएगी.
कोर्ट अब सरकार पर इस ब्याज का तुरंत भुगतान करने के लिए कह रही है और इसके लिए 2 नवंबर तक एक्सन प्लान पेश करने के लिए भी कह रही है. सरकार ने आश्वासन दिया है कि वह अपना फैसला 15 नवंबर तक लागू कर देगी.
बैंकों पर बोझ
अगर सरकार ने हस्तक्षेप न किया होता तो कर्जों पर ब्याज माफ करने से बैंकों पर वित्तीय बोझ बढ़ता. बैंकिंग सेक्टर की समस्याओं को दूर करना भी अर्थव्यवस्था में जान डालने की रणनीति का एक हिस्सा होना चाहिए. कर्जदारों और बैंकों, दोनों के हितों में संतुलन रखा जाना चाहिए. अपने यहां जमा पैसे पर बैंकों को ब्याज देना पड़ रहा है. बैंक जो कर्ज देते हैं उस पर उन्हें ब्याज के रूप में आय चाहिए ताकि वे अपना कारोबार चला सकें. इसलिए, जबकि कोविड-19 के कारण लॉकडाउन से कुप्रभावित कर्जदारों को राहत देने की जरूरत है, तब अगर बैंकों को कर्ज पर बने ब्याज को माफ करने के लिए कहा जाता है तो सरकार को इस लागत की भरपाई करने के लिए आगे आना चाहिए क्योंकि लॉकडाउन कोविड के फैलाव को रोकने के लिए किया गया था.
सरकार ने बैंकों के बैलेंसशीट को उलटे प्रभाव से बचाने के लिए 2 करोड़ तक के कर्ज पर ब्याज भुगतान का खर्च उठाने का फैसला करके उचित समाधान प्रस्तुत किया है. ऐसा वह सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के मकसद से किया है.
ब्याज का पुनःनिर्धारण
सुप्रीम कोर्ट ने रोक को एक महीना और जारी रखने का निर्देश दिया है, रिजर्व बैंक ने खुदरा बाज़ार, ‘एमएसएमई’ और कॉर्पोरेट कर्जदारों को राहत देने के लिए ब्याज के एक बार पुनःनिर्धारण (रीस्ट्रक्चरिंग) की घोषणा की है. इससे कर्जदारों को कोविड-19 के कारण पड़ी मार से थोड़ी राहत मिलेगी.
सुप्रीम कोर्ट जबकि कर्ज भुगतान पर रोक के मामले की सुनवाई कर रही है, चर्चा यह चल रही है कि बैंकों, छोटे बचतकर्ताओं और जमाकर्ताओं के ब्याज और कर्जदारों के ब्याज में संतुलन स्थापित किया जाए. रिजर्व बैंक ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि कर्ज की राशियों को ‘एनपीए’ न माना जाए. ‘एनपीए’ को मान्यता न देने से बुरे कर्जों का पहाड़ खड़ा हो जाएगा. हाल के अनुमान के मुताबिक, इस साल के अंत तक बैंकों का सकल ‘एनपीए’ अनुपात 11-11.5 प्रतिशत के बीच रहेगा. बुरी परिसंपत्तियों में वृद्धि होने से बैंकों को पूंजी पर नियमन संबंधी मानक को पूरा करने में परेशानी होगी.
बैंको के बैलेंसशीट पर रोक की अवधि बढ़ाने के प्रभाव देर तक देखे जा सकते हैं. आर्थिक ‘रिकवरी’ धीमी और आधी-अधूरी रह सकती है. क्रेडिट ग्रोथ पर रोक लगने से बैंकों को ब्याज से आमदनी घट सकती है. इसी के साथ, डिपॉजिट की दर अगर बढ़कर क्रेडिट ग्रोथ की दर से दोगुनी हो जाती है तो यह बैंकों के बैलेंसशीट पर दबाव डालेगी. सरकार ‘रीकैपिटलाइजेशन’ के जरिए 20,000 करोड़ रुपये डालने की योजना बना रही है, लेकिन बैंक अपनी कमजोर वित्तीय स्थिति के कारण सरकार की इस योजना पर निर्भर नहीं रह सकते. बुरे कर्जों के मामले में नियमन के नुस्खे को फिर से लागू करने की जरूरत है.
अगर बैंकों को ‘टालो और ढोंग करो’ वाली मुद्रा अपनाने की छूट दी गई, यानी कर्जों को बुरे कर्ज के रूप में स्वीकार न करने की छूट न दी गई और ऋणदाताओं को यह छूट न दी गई कि वे कंपनियों को दिवाला अदालतों में खींच सकें, तो इससे नैतिक संकट पैदा होगा और पिछले वर्षों की गलतियां दोहराई जाती रहेंगी. भुगतान करने में सक्षम कर्जदार भी भुगतान करने का दबाव नहीं महसूस करेंगे.
बैंकों के लिए अलग से समाधान की व्यवस्था नहीं होगी, तो चंद बैंकों से ही कहा जाएगा कि वे परेशानी में फंसे बैंकों को उबारें.
अर्थव्यवस्था जब खुल रही है और कुछ ‘हाई फ्रिक्वेंसी’ संकेतकों में सुधार दिख रहा है, तब हम उम्मीद कर सकते हैं कि हम आर्थिक सिकुड़न के खराब दौर को पीछे छोड़ चुके हैं. आर्थिक गतिविधियां तेज होंगी तो कर्जदाता बैंकों को भुगतान करने की अपनी ज़िम्मेदारी भी पूरी करने लगेंगे. वैसे, उन्हें राहत देने का ज्यादा बेहतर तरीका यही हो सकता है कि एक-एक कर्ज का अलग-अलग ‘रीस्ट्रक्चरिंग’ किया जाए.
बैंक जमाकर्ताओं और कर्जदारों के बीच पुल की भूमिका निभाते हैं. केवल कर्जदारों के लिए राहत देने से बैंकों की यह मूल भूमिका कमजोर पड़ सकती है. तब लोग बैंकों में पैसे जमा करने से परहेज कर सकते हैं, और इससे क्रेडिट ग्रोथ और कमजोर पड़ सकता है. इससे उन छोटे कारोबारियों को परेशानी होगी, जो कर्ज के लिए बैंकों पर निर्भर हैं.
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(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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