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Saturday, 21 December, 2024
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कोविड महामारी में मोदी सरकार की सुधार केंद्रित रणनीति कारगर रही, आर्थिक आंकड़े यही दिखाते हैं

कोविड महामारी से मुकाबले के लिए मोदी सरकार ने प्रभावित लोगों को सीधे कर्ज उपलब्ध कराने की जो नीतिगत पहल की वह आलोकप्रिय भले रही हो लेकिन व्यावहारिक है.

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दुनिया के तमाम देशों ने कोविड महामारी के आर्थिक तथा जनस्वास्थ्य प्रभावों से निपटने के लिए 2020 और 2021 में वित्तीय तथा मौद्रिक नीति से संबंधित कई तरह के उपाय किए. भारत में भी वित्तीय पैकेज दिए जाने की मांग कई हलकों से उठी.

लेकिन महामारी और लॉकडाउन के मद्देनजर भारत में जो नीतिगत वित्तीय कदम उठाए गए वे तुलनात्मक रूप से हल्के थे. मोदी सरकार ने लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा तो की लेकिन इसकी आलोचना भी हुई कि उपभोग बढ़ाने के लिए जो वित्तीय उपाय किए गए वे रूढ़िपंथी थे जबकि भारी परिमाण में नकदी की जरूरत थी.

सरकार के नीतिगत कदम का जोर लघु व्यवसायों और व्यक्तियों को सरकारी गारंटी पर ऋण उपलब्ध कराने और पूंजी के खर्च को बढ़ावा देने पर था. मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) के.वी. सुब्रह्मण्यन ने कहा कि करदाताओं के पैसे का सही उपयोग होना चाहिए. बिना शर्त नकदी जारी करने की जगह प्रभावित लोगों को ऋण देने का अच्छा परिणाम मिलता है. यूं ही जारी की गई नकदी अपात्रों द्वारा हड़पे जाने का खतरा रहता है. सरकारी नीति भले ही आलोकप्रिय रही हो लेकिन व्यावहारिक है.

अमेरिका और ‘आसियान’ देशों समेत दुनिया के दूसरे भागों में भी सहायता पैकेज दिए गए, जिनका मुख्य जोर परिवारों, व्यवसायों और बेरोजगार हुए लोगों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के उपायों पर था. भारत ने अधिक सावधानी बरती.


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भारतीय उपाय समझदारी भरे थे

मई 2020 में हम कह चुके हैं, कोरोनावायरस के बारे में अनिश्चितता के कारण आगे भी लॉकडाउन लगाने की संभावना, और पहले से ही वित्तीय संकट के बीच टैक्स से आमदनी में गिरावट के मद्देनजर सरकार ने भारी-भरकम वित्तीय पैकेज की घोषणा न करके समझदारी ही दिखाई. भारत में जो वित्तीय पैकेज दिया गया उसका जोर कम ब्याज दरों के साथ आसान कर्ज उपलब्ध कराने और फर्मों तथा परिवारों के नुकसान को कम करने के लिए क्रेडिट गारंटी लोन उपलब्ध कराने पर रहा.

हाल के शोधों से जाहिर हुआ है कि महामारी के कारण जो आर्थिक मंदी आती है वह आम मंदी से मूलतः अलग होती है इसलिए उसके लिए अलग नीतिगत उपायों की जरूरत होती है. आम मंदी में नीति ऐसी अपनाई जाती है जिससे कुल मांग बढ़े और संसाधनों के पूर्ण उपयोग के साथ उत्पादन में वृद्धि हो.

महामारी के कारण आई मंदी के मद्देनजर नीतिगत पहल जन स्वास्थ्य की स्थिति के मुताबिक की जाती है. जन स्वास्थ्य संबंधी प्रभावी उपायों के बिना व्यापक मांग को बढ़ाने की कोशिश से वायरस और फैल सकता है. इसके अलावा वायरस को लेकर अनिश्चितता के कारण, बड़ी मात्रा में नकदी जारी करने से जरूरी नहीं है कि उपभोग पर खर्च भी बढ़ेगा. और यह बढ़ा भी तो इससे मुद्रास्फीति पैदा हो सकती है.

भारत में नीतिगत पहल को उपरोक्त संदर्भों में ही देखा जाना चाहिए.

महामारी से पहले भी वित्तीय स्थिति नाजुक थी. 2019-20 में वित्तीय घाटा जीडीपी के 4.6 प्रतिशत के बराबर पहुंच गया था, जो 3.8 प्रतिशत के संशोधित लक्ष्य से भी ऊपर चला गया था. इसलिए वित्तीय स्थिति का लिहाज करते हुए ही कदम उठाए जा सकते थे. असली सवाल यह था कि सीमित संसाधनों का उपयोग सबसे कमजोर तबकों के हक में कैसे किया जाए.

आत्मनिर्भर भारत’ पैकेज प्रवासी कामगारों, कृषि क्षेत्र, माइक्रो-लघु एवं मझोले उपक्रमों, फेरीवालों समेत कई तबकों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था. इसमें किसानों को प्रत्यक्ष सहायता और मुफ्त अनाज वितरण जैसे उपाय शामिल थे. इनके अलावा भारत के मैनुफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन की स्कीम जारी की गई.


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भारत आर्थिक वृद्धि के रास्ते पर कैसे लौटा

सरकार की रणनीति का एक मुख्य तत्व पूंजीगत खर्च पर जोर देना रहा. लॉकडाउन में ढील दिए जाने के बाद व्यय संबंधी नीति में ऊंचे पूंजीगत खर्च पर जोर दिया गया. सरकार ने पूंजीगत खर्च में साल-दर-साल 34.5 प्रतिशत वृद्धि का बजट बनाया था जिसे चालू वित्त वर्ष के लिए 5.54 लाख करोड़ कर दिया. परिसंपत्तियों के निर्माण के जरिए पूंजीगत खर्च से उत्पादकता में वृद्धि होती है.

सरकार अगर बड़े पैमाने पर वित्तीय खर्च करती तो इससे मुद्रास्फीति बढ़ने का खतरा पैदा हो जाता. आज जबकि मौद्रिक नीति का जोर ब्याज दरों को घटाने और तरलता बढ़ाने पर है, तब मांग आधारित मुद्रास्फीति में वृद्धि से मौद्रिक नीति को लागू करना जटिल मामला हो जाता.

भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों को इसलिए नहीं बढ़ाया क्योंकि मुद्रास्फीति मुख्यतः सप्लाई में व्यवधान के कारण आई थी, जिसे ऊंची ब्याज दरों के कारण कम नहीं किया जा सकता है. अमेरिका में इस बात को लेकर चिंता है कि बड़े पैमाने पर वित्तीय खर्च से मुद्रास्फीति बढ़ जाएगी.

नीची ब्याज दरों और मौद्रिक नीति के कई पारंपरिक तथा गैर-पारंपरिक उपायों के बूते रिजर्व बैंक सरकार द्वारा उधार लेने के कार्यक्रम को 5.79 प्रतिशत की औसत ब्याज लागत के, जो 2004-05 के बाद सबसे नीची है, साथ आगे बढ़ा पाया. इसके विपरीत जिन विकासशील अर्थव्यवस्थाओं ने बड़े वित्तीय पैकेज का सहारा लिया उन्हें ज्यादा अल्पावधि सरकारी ऋण लेना पड़ा जिसने री-फाइनांसिंग का जोखिम बढ़ा दिया. मसलन ब्राजील में अगले 12 महीने में संघीय ऋण दिसंबर 2019 में 18 प्रतिशत से दिसंबर 2020 में बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया.

कोविड की क्रूर दूसरी लहर के बावजूद पहली तिमाही में जीडीपी में 20.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई. उसके बाद से अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है. कई ‘हाई फ्रिक्वेंसी’ संकेतक यह तो दिखा रहे हैं कि अर्थव्यवस्था गति पकड़ रही है, रोजगार की पेशकश भी बढ़ी है. दूसरी तिमाही में भारत की जीडीपी में 8.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, जिसके बूते वह दुनिया में सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में उभरी.

उम्मीद है कि इस साल वह दहाई अंक वाली वृद्धि दर हासिल कर लेगी. टैक्स से आमदनी में वृद्धि के बूते सरकार वित्तीय घाटे को 6.8 प्रतिशत पर रखने का लक्ष्य हासिल कर सकती है.

सरकार ने आर्थिक सुधार का जो रास्ता अपनाया है वह बड़े वित्तीय पैकेज देने और नोट छापने की रणनीति से, जो मांग आधारित मुद्रास्फीति और असहनीय घाटा और कर्ज का संकट पैदा करती है, बेहतर साबित हुई है.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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