scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमइलानॉमिक्सभारत को और ज्यादा निजी बीमा कंपनियों की जरूरत, कोविड ने सरकार को इसे पूरा करने का मौका दिया है

भारत को और ज्यादा निजी बीमा कंपनियों की जरूरत, कोविड ने सरकार को इसे पूरा करने का मौका दिया है

ज्यादा खिलाड़ी बाज़ार को और ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी बनाएंगे क्योंकि वे ग्राहकों के लिए आसान और कम लागत वाली बीमा योजनाएं पेश करने की होड़ करेंगे.

Text Size:

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उन संशोधनों को हरी झंडी दिखा दी है जिनके बाद सामान्य बीमा की एक सरकारी कंपनी के निजीकरण का रास्ता साफ हो जाएगा. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा था कि सरकार इस वित्त वर्ष में सार्वजनिक क्षेत्र वाले दो बैंकों और एक सामान्य बीमा कंपनी के निजीकरण के मामले को आगे बढ़ाएगी.

सार्वजनिक क्षेत्र वाली बीमा कंपनियों की संख्या कम है मगर बाज़ार में उनकी हिस्सेदारी बड़ी है. कम प्रतिस्पर्द्धा, कम पूंजी और कमजोर वित्तीय स्थिति इन कंपनियों को कम लागत वाली बीमा योजनाएं पेश करने में असमर्थ बनाती हैं. वे नये उभरते जोखिमों से सुरक्षा देने में असमर्थ हैं. यह तथ्य कोविड-19 के बाद और उभरकर सामने आया है.

निजी क्षेत्र अगर बीमा सेक्टर में भागीदारी करता है तो ऐसी कुछ चुनौतियों से निपटा जा सकता है.

निजीकरण का एजेंडा सरकार की ‘निर्णायक विनिवेश नीति’ का एक हिस्सा है. इस नीति के तहत बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवा जैसे निर्णायक सेक्टरों में तो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की न्यूनतम मौजूदगी रह जाएगी लेकिन बाकी सार्वजनिक उपक्रमों का या तो निजीकरण कर दिया जाएगा या उनका विलय कर दिया जाएगा या फिर उन्हें बंद ही कर दिया जाएगा.


यह भी पढ़ें: मुद्रा संकट के डर से विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाते रहने के उलटे नतीजे भी मिल सकते हैं


भारत का बीमा उद्योग

‘सामान्य बीमा व्यापार (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम 1972’ में जिन संशोधनों को मंजूर किया गया है उनमें एक यह भी है कि 51 प्रतिशत सरकारी स्वामित्व की शर्त को खत्म कर दिया जाएगा. भारत में 58 बीमा कंपनियां कारोबार कर रही हैं, जिनमें 24 जीवन बीमा की हैं और 34 सामान्य बीमा की हैं. जीवन बीमा कंपनियों में भारतीय जीवन बीमा निगम सार्वजनिक क्षेत्र की एकमात्र कंपनी है.

सामान्य बीमा वाली कंपनियों में चार सार्वजनिक क्षेत्र की हैं. सामान्य बीमा, या जीवन बीमा से इतर बीमा के तहत संपत्ति का आगजनी, चोरी, सेंधमारी आदि के लिए बीमा किया जाता है. इसमें स्वास्थ्य बीमा भी शामिल है. सामान्य बीमा कंपनियां जो बीमा पॉलिसियां पेश करती हैं उनमें मोटर बीमा, स्वास्थ्य बीमा, यात्रा बीमा और मकान बीमा शामिल हैं.

1956 में 245 बीमा कंपनियों का विलय करके सरकारी भारतीय जीवन बीमा निगम का गठन किया गया. 1972 में सामान्य बीमा सेक्टर का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया गया.

सामान्य बीमा की कई कंपनियों का विलय करके चार कंपनियां बनाई गईं- नेशनल इनश्योरेंस कं. लि., द न्यू इंडिया एश्योरेंस कं. लि., द ओरिएंटल इनश्योरेंस कं. लि. और यूनाइटेड इंडिया इनश्योरेंस कं. लि.. ये सब जनरल इनश्योरेंस कॉर्पोरेशन (जीआईसी) के पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनियां थीं. 2003 में इन चार कंपनियों का स्वामित्व सरकार को दे दिया गया.

अगस्त 2020 में इस सेक्टर को निजी तथा विदेशी खिलाड़ियों के लिए खोल दिया गया. इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की भी अनुमति दी गई. इस सेक्टर में एफडीआई की सीमा धीरे-धीर 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दी गई है.


यह भी पढ़ें: 1991 के सुधारों के दायरे में बैंकिंग और वित्त क्षेत्र नहीं आए इसलिए अर्थव्यवस्था एक टांग पर चलने को मजबूर हुई


चुनौतियां

उदारीकरण के कई उपायों के बावजूद भारतीय बीमा सेक्टर को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. भारत में बीमा का विस्तार और सघनता अंतरराष्ट्रीय मानकों के लिहाज से कम है. बीमा के विस्तार का आकलन जीडीपी के मुकाबले कुल प्रीमियम के अनुपात से किया जाता है, जो 2019 में 3.76 प्रतिशत था. अमेरिका में यह अनुपात 11.43 प्रतिशत का है. ब्राजील (4.03 प्रतिशत) और दक्षिण अफ्रीका (13.4 प्रतिशत) जैसी समान अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले भी भारत में बीमा का विस्तार कम है.

बीमा सघनता का आकलन आबादी के मुकाबले कुल प्रीमियम के अनुपात से लगाया जाता है, जो भारत में 2019 में 78 डॉलर के बराबर था जबकि अमेरिका में यह 4,362 डॉलर के बराबर है. ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी बीमा सघनता भारत से ज्यादा है. ये आंकड़े यही बताते हैं कि भारत की बड़ी आबादी अभी भी बीमा से वंचित है.


यह भी पढ़ें: सुधारों के लिए भारत को संकट का इंतजार था, जो नेहरू-इंदिरा के सोवियत मॉडल के चलते 1991 में आया


इस सेक्टर को क्या चाहिए

बीमा के बढ़ते व्यापार के लिए पूंजी की सतत आवक जरूरी है. लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की सामान्य बीमा कंपनियों के पास पर्याप्त पूंजी का अभाव है. सरकार इन कंपनियों को बार-बार पूंजी उपलब्ध कराती रही है, फिर भी उनकी वित्तीय स्थिति कमजोर बनी हुई है.

उदाहरण के लिए, यूनाइटेड इंडिया इनश्योरेंस ने 2019-20 में घोषित किया कि उसे कुल 1,485 करोड़ रुपये का घाटा हुआ. नेशनल इनश्योरेंस कंपनी ने 2020 में 4,100 करोड़ रुपए के घाटे की घोषणा की.

खासतौर से सार्वजनिक क्षेत्र की सामान्य बीमा कंपनियों का ‘सॉल्वेंसी’ अनुपात (जोखिम के मुकाबले बीमा कंपनी की पूंजी का आकार) चिंता का कारण बनता है. इन कंपनियों का ‘सॉल्वेंसी’ अनुपात न्यूनतम रेगुलेटरी दर 1.5 से भी कम है और यह दावों के निपटारे की उनकी क्षमता को प्रभावित करता है.

बीमा कंपनियों की अपर्याप्त पूंजी उन्हें अब तक उनसे अछूते रहे क्षेत्रों में विस्तार करने में मुश्किल पैदा करती है और उनकी वित्तीय स्थिति को भी प्रभावित करती है.

हाल के एक शोध में पाया गया है कि बीमा विस्तार और बीमा कंपनी की पूंजी में एक सकारात्मक संबंध होता है. सामान्य बीमा की निजी कंपनियों की पूंजी की स्थिति सार्वजनिक क्षेत्र की इन कंपनियों की स्थिति से बेहतर है. अब, निजी क्षेत्र की भागीदारी की अनुमति और एफडीआई की सीमा में वृद्धि से बीमा का और ज्यादा विस्तार करने में मदद मिलेगी.

कोविड की महामारी ने लोगों को स्वास्थ्य बीमा की अहमियत का एहसास कराया है. ज्यादा खिलाड़ी होंगे तो बीमा बाजार में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी और वे आसान एवं कम लागत वाली बीमा योजनाएं पेश करेंगी.

इससे बीमा योजनाओं तक पहुंच और उनकी कवरेज बढ़ेगी. इससे महामारी और साइबर सुरक्षा जैसे नये जोखिमों के लिए नई योजनाएं भी सामने आ सकती हैं.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कोविड संकट के मद्देनजर क्रेडिट रेटिंग फर्मों को अपने तौर-तरीकों पर फिर से विचार करने और बदलने की जरूरत है


 

share & View comments