कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर डालने जा रही है. अधिकतर जानकारों की भविष्यवाणी यह है कि पिछले साल की पहली तिमाही में जब पूर्ण लॉकडाउन किया गया था तब उत्पादन में जो गिरावट हुई थी उसके मुकाबले इस साल कम गिरावट होगी. अर्थव्यवस्था की हालत पिछले साल के मुकाबले इस साल बेहतर रहेगी लेकिन महामारी की दूसरी लहर के कारण यह महामारी के पहले के स्तर तक शायद नहीं पहुंच पाएगी.
भविष्यवाणी की गई थी कि 2021-22 में वृद्धि दर दहाई के आंकड़े में 12-13 प्रतिशत के आसपास रहेगी. लेकिन दूसरी लहर के बाद अनुमान लगाया गया कि दर इससे कम रहेगी. जेपी मॉर्गन ने कहा था कि 2021 में जीडीपी में वृद्धि 13 की जगह 11 प्रतिशत रहेगी. मूडीज़ की भविष्यवाणी थी कि यह 13.7 प्रतिशत की जगह 9.3 प्रतिशत रहेगी.
इस लेख में हम उन उभरते आंकड़ों पर नज़र डालेंगे जो कोविड की दूसरी लहर के कारण आए प्रभावों को दिखाती है.
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संक्रमण में वृद्धि से गिरी आर्थिक रिकवरी की गति
पिछले कुछ सप्ताहों में कोविड के मामलों में खतरनाक वृद्धि ने आर्थिक रिकवरी की रफ्तार को लेकर अनिश्चितता बढ़ा दी है. अर्थव्यवस्था की सेहत का अंदाजा देने वाले कुछ प्रमुख संकेतक बताते हैं कि पिछले कुछ महीनों से जो रिकवरी हो रही थी उसने अपनी रफ्तार गंवा दी है.
विकसित देशों में उम्मीद से जल्दी रिकवरी के कारण निर्यात की संभावनाएं बढ़ी हैं लेकिन महामारी की वजह से घरेलू मांग में कमी के कारण आर्थिक रिकवरी और सुस्त हो सकती है. महामारी की पहली लहर के दौरान ग्रामीण क्षेत्र तुलनात्मक रूप से बेहद कम प्रभावित हुआ था लेकिन इस बार वायरस के तेज फैलाव के कारण बुरा असर पड़ा है.
ऑर्डरों के कारण मैनुफैक्चरिंग सेक्टर के लिए ‘पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स’ (पीएमआई) में अप्रैल माह में थोड़ा सुधार दिखा है. लेकिन यह सुधार नये निर्यातों में तेजी के कारण था, न कि घरेलू कारखानों में नये ऑर्डरों के कारण. यह अप्रैल के लिए निर्यात के आंकड़े के अनुरूप था, जो मजबूत बना रहा और बाहर से आई मांगों में वृद्धि को दर्शा रहा था.
महामारी की दूसरी लहर ने श्रम बाज़ार को भी चोट पहुंचाई है. ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल में 73.5 लाख लोगों का रोजगार छिन गया, जिनमें से 28.4 लाख लोग गांवों के वेतनभोगी कामगार थे. इसका ग्रामीण उपभोग पर बुरा असर पड़ेगा, जो पिछले साल अच्छी स्थिति में था.
संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए राज्यों ने जो लॉकडाउन लगाए उनसे ग्रामीण रोजगार पर बुरा असर पड़ा. ‘मनरेगा’ के तहत रोजगार की मांग बढ़कर 2.45 करोड़ घरों से आई. अप्रैल से इसके आंकड़े जमा किए जाने लगे और इस माह में रोजगार की मांग सबसे अधिक रही.
बेहद संक्रामक दूसरी लहर ने उपभोक्ताओं के मन पर असर डाला और अप्रैल में मांग धड़ाम से गिर गई. वाहनों की बिक्री पिछले महीने के मुकाबले 30 प्रतिशत घट गई. ग्रामीण मांग की संकेतक ट्रैक्टरों की बिक्री अब तक मजबूत रही थी मगर अप्रैल में इसके आंकड़े में दहाई अंक की कमी आ गई.
अप्रैल में जीएसटी से रिकॉर्ड 1.42 लाख करोड़ रुपये के राजस्व की प्राप्ति दिखाई गई मगर यह मार्च में हुई आर्थिक गतिविधियों और बिक्री को दर्शा रही थी. ‘ई-वे बिल’ की संख्या को माल की आवाजाही और आर्थिक गतिविधियों का मुख्य संकेतक माना जाता है, अप्रैल में यह घटकर 5.8 करोड़ हो गई जबकि मार्च में करीब 7 करोड़ थी. ‘ई-वे बिल’ की संख्या में कमी मई में जीएसटी से उगाही के आंकड़े को प्रभावित कर सकती है. इस्पात और ईंधन की खपत जैसे दूसरे संकेतकों में भी अप्रैल में गिरावट दिखी.
सत्कार, यात्रा, पर्यटन आदि सेक्टरों में सुधार अभी शुरू ही हुआ था लेकिन उनकी स्थिति भी निराशाजनक हो गई है क्योंकि लोग फैलते संक्रमण के डर से घर से बाहर नहीं निकल रहे. यात्रियों की संख्या में गिरावट के कारण हवाई अड्डों को अस्थायी तौर पर बंद किया जा रहा है. स्थिति में सुधार केवल कोविड से संक्रमण में गिरावट पर ही नहीं बल्कि इस पर निर्भर करेगा कि लोगों में घर से बाहर निकलने और इन सेवाओं का उपयोग करने का आत्मविश्वास कितना बढ़ता है. ‘सीएमआइई’ के अनुसार उपभोक्ता भावना सूचकांक में अप्रैल में 3.8 प्रतिशत की गिरावट आई.
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मुद्रास्फीति और क्रेडिट डिमांड
साल-दर-साल उपभोक्ता कीमत सूचकांक में परिवर्तन के आधार पर निर्धारित मुद्रास्फीति आंकड़ा अप्रैल में 4.29 प्रतिशत पर पहुंच गया. लेकिन मुद्रास्फीति में गिरावट बहुत राहत की बात नहीं है क्योंकि उन पर ‘बेस इफेक्ट’ का असर होता है. एक साल पहले देशव्यापी लॉकडाउन में सप्लाई में अड़चनों के चलते खाद्य सामग्री की कीमतें बढ़ गई थीं. इसके अलावा, उपभोक्ता कीमत सूचकांक (‘सीपीआई’) के तहत कई समूहों के आंकड़ों पर जो असर हुआ उसके लिए प्राइस कलेक्सन सेंटरों के बंद होने को जिम्मेदार माना गया. वैसे, साल-दर-साल तुलना ठीक नहीं है.
अमेरिका में जींसों की कीमतों में वृद्धि, टीकाकरण में तेजी और सरकार द्वारा जबरदस्त आर्थिक राहत पैकेज दिए जाने से उपभोक्ता कीमत वृद्धि बढ़कर 4.2 प्रतिशत पर पहुंच गई. ज्यादा से ज्यादा विकसित देशों की आर्थिक स्थिति में सुधार के साथ जींसों की कीमतों में वृद्धि से भारत में मुद्रास्फीति में भी वृद्धि हो सकती है. जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा राज्यों में लॉकडाउन लगाया जाएगा, सप्लाई में अड़चनें बढ़ेंगी. इसलिए आगामी महीनों में महंगाई बढ़ सकती है.
महामारी और इसके साथ लॉकडाउन ने क्रेडिट डिमांड को चोट पहुंचाई है. अप्रैल में बैंक क्रेडिट में 5.7 प्रतिशत की धीमी रफ्तार से वृद्धि हुई. मांग में भारी गिरावट के साथ बैंक भी उधार देने में बहुत सावधानी बरतने लगे हैं क्योंकि ‘एनपीए’ में वृद्धि के कारण उनके बैलेंसशीट खराब हो सकते हैं. इसके कारण सरकारी प्रतिभूतियों में बैंकों का निवेश बढ़ गया और यह बैंकों द्वारा पिछले वित्त वर्ष में दिए गए कर्जों से कहीं ज्यादा ऊपर चला गया. ऐसा आमतौर पर देखा नहीं जाता. अगर महामारी पर काबू नहीं किया गया तो यह असामान्य प्रवृत्ति इस साल भी बनी रह सकती है.
आर्थिक मोर्चे पर अनिश्चितता के कारण कई एजेंसियों ने चालू वर्ष के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि के बारे में अपने अनुमानों को नीचा किया है. हालांकि उम्मीद यही है कि आर्थिक मोर्चे पर सुस्ती पिछले साल जैसी गहरी नहीं होगी लेकिन महामारी पर काबू पाने में देरी और रूप बदलते वायरस के फैलाव के कारण सुस्ती लंबी खिंच सकती है. टीकाकरण में तेजी लाकर वायरस की रफ्तार को तोड़ा जा सकता है, जिसने उपभोक्ताओं की भावनाओं और मांगों पर बुरा असर डाला है.
(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री हैं और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं राधिका पाण्डेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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