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Friday, 22 November, 2024
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कैसे भारत NBFC को संकट से उबारने के लिए दिवाला कानून का सफल इस्तेमाल कर रहा

रिजर्व बैंक ने श्री इन्फ्रा फाइनांस और श्री ईक्विपमेंट फाइनांस के बोर्ड को बरखास्त कर दिया है और उनके दिवालिया घोषित करने प्रक्रिया आइबीसी के जैसी हो सकती है.

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इस सप्ताह के शुरू में भारतीय रिजर्व बैंक ने श्री इन्फ्रा फाइनेंस और श्री ईक्विपमेंट फाइनेंस के ‘प्रबंधन को लेकर चिंताओं’, और इनके द्वारा कर्जों के भुगतान में विफलता के चलते उनके बोर्डों को बर्खास्त कर दिया. रिजर्व बैंक अब आईबीसी के जरिए उन्हें दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया शुरू करना चाहता है.

रिजर्व बैंक ने आरबीआई एक्ट की धारा 45-आइई के तहत मिले अपने अधिकारों का उपयोग किया. इस धारा के तहत रिजर्व बैंक को यह अधिकार हासिल है कि वह उनके बोर्ड को बर्खास्त कर दे और एक एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त कर दे. संकटग्रस्त एनबीएफसी के प्रबंधन में रिजर्व बैंक बड़ी भूमिका निभा सके इसके लिए 2019 के वित्त अधिनियम के तहत आरबीआई अधिनियम में संशोधन किया गया. उम्मीद की गई कि दिवाला की प्रक्रिया आईबीसी जैसी प्रक्रिया की तरह चलेगी, जैसा कि डीएचएफएल के मामले में हुआ.

एनबीएफसी बैंक और गैर-वित्तीय कंपनी से किस तरह अलग है, और उसकी समस्या समाधान की व्यवस्था इन दोनों से किस तरह अलग है?

बैंक आम परिवारों को उनका पैसा ब्याज सहित लौटाने के बड़े वादे करते हैं. एनबीएफसी गैर-वित्तीय कंपनी की तरह होते हैं क्योंकि वे आम तौर पर पेशेवरों से उधार लेते हैं जो सोच-विचार कर जोखिम मोल ले सकते हैं और जब व्यवसाय की योजना अपेक्षा के मुताबिक नहीं चलती तो घाटा उठाते हैं.

बैंकों में समस्या समाधान की व्यवस्था एनबीएफसी की इस व्यवस्था से अलग है. बैंकों में डिपॉजिट बीमा की व्यवस्था है जो आम परिवारों को सुरक्षा देती है. कानून रिजर्व बैंक को अधिकार देता है कि जब कोई बैंक डिफ़ाल्ट करने वाला हो तब वह उसे अपने हाथ में लेकर किसी खरीदार को बेच दे.

एनबीएफसी न केवल बैंकों से बल्कि उन गैर-वित्तीय फर्मों से भी अलग है जो भारतीय क़ानूनों के मुताबिक ‘गुड्स और सर्विसेज’ देते हैं. एनबीएफसी के दिवालिया होने की प्रक्रिया गैर-वित्तीय फर्मों की इस प्रक्रिया से अलग है. गैर-वित्तीय फर्मों की यह प्रक्रिया आइबीसी के तहत चलती है. आइबीसी के तहत समस्या समाधान की प्रक्रिया क्रेडिटर्स कमिटी के तहत चलती है. जब कोई कंपनी डिफ़ाल्ट करती है, आइबीसी उसके शेयरधारकों और बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स को हटाकर कंपनी को क्रेडिटर्स कमिटी के हाथ में सौंप देती है. यह कमिटी कंपनी के भाग्य का फैसला करती है और आइबीसी के मुताबिक कार्रवाई आगे बढ़ाती है और उधार देने वालों के दावों का निपटारा करती है.

एनबीएफसी के फ्रेमवर्क के तहत रिजर्व बैंक को डिफ़ाल्ट हो जाने का इंतजार करने की जरूरत नहीं है. इस मामले में वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जो बैंकों के लिए है. जब रिजर्व बैंक आगे आ जाता है तो उसे विस्तृत अधिकार हासिल हैं और कानूनी स्पष्टता न होने के कारण वह समाधान की कोई भी रणनीति अपना सकता है.


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फ्रेमवर्क का विकास

2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से तमाम देशों ने बैंकों, बीमा कंपनियों और व्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण फ़र्मों में समस्या समाधान के अलग फ्रेमवर्क की जरूरत महसूस की. माना गया कि दिवालिया घोषित करने की सामान्य प्रक्रिया किसी बैंक के लिए उपयुक्त नहीं है. भुगतान में चूक (डिफ़ाल्ट) के कारण दिवालिया घोषित करने की सामान्य प्रक्रिया शुरू की जा सकती है लेकिन बैंकों के मामले में रेगुलेटर यह इंतजार नहीं कर सकता कि कोई बैंक अपने खातेदारों या व्यवस्था के लिए अहम वित्तीय संस्था को भुगतान में वास्तव में चूक करे और उसका असर पूरे देश में महसूस किया जाए.

बैंकों और बीमा कंपनियों की विफलता उपभोक्ताओं के लिए काफी नुकसानदेह हो सकती है और पूरी अर्थव्यवस्था को जोखिम में डाल सकती है. इस तथ्य को संज्ञान में लेते हुए भारत में ‘फाइनैंसियल सेक्टर लेजिस्लेटिव रिफॉर्म्स कमीशन’ (एफएसएलआरसी, 2011-15) ने विशेष समाधान प्रक्रिया और एक ‘समाधान निगम’ की स्थापना की सिफ़ारिश की जिसे बैंकों, बीमा कंपनियों और अहम वित्तीय फ़र्मों द्वारा उपभोक्ताओं से किए गए बड़े वादों का निपटारा करने का अधिकार हासिल होगा. 2015 में एफएसएलआरसी का जो विचार दिया गया था उसमें कुछ वित्तीय फ़र्मों के लिए विशेष निपटारा व्यवस्था और सभी दूसरी फ़र्मों के लिए दिवालिया के सामान्य नियमों में फर्क रखा गया था.

दिवालिया घोषित करने के सामान्य नियम ‘बैंकरप्सी लेजिस्लेटिव रिफॉर्म्स कमीशन’ (बीएलआरसी, 2014-15) ने बनाए थे. उसने भी इस फर्क को मान्य किया. कुछ वित्तीय समस्याओं का समाधान एफएसएलआरसी समाधान निगम तथा आइबीसी के जरिए किए जाने की व्यवस्था की गई.

समन्वय की कीमत

बैंक और बीमा कंपनियां खुदरा के स्रोतों से, मसलन जमाकर्ताओं या बीमाधारकों से कोश जुटाती हैं और उनकी देनदारियां बड़ी संख्या में जमाकर्ताओं के प्रति होती हैं. उधार देने वालों की कमिटी के जरिए सामूहिक कार्रवाई को उपयुक्त व्यवस्था नहीं माना जा सकता क्योंकि समन्वय की कीमत ऊंची हो सकती है. एनबीएफसी के लिए उधारदाता पेशेवरों का छोटा समूह होता है. यह किसी बड़े निगम, मसलन टाटा स्टील के उधारदाताओं के जैसा होता है. डिफ़ाल्ट के बाद बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स से अधिकार लेकर उधारदाताओं की कमिटी को सौंपना यहां मुमकिन है.


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डिफ़ाल्ट बनाम डिफ़ाल्ट की चिंता

गैर-वित्तीय फार्मों के मामले में किसी कंपनी को आइबीसी के जरिए अधिग्रहीत करने के लिए जरूरी है कि डिफ़ाल्ट किया हो; जबकि वित्तीय फार्मों के मामले में मौजूदा ढांचे के तहत रेगुलेटर अपने नये अधिकारों के बूते एनबीएफसी को अपने कब्जे में ले सकता है और उसे आइबीसी के जरिए चला सकता है.

एक एनबीएफसी (मसलन आइएल-ऐंड-एफएस) जब डिफ़ाल्ट करने वाला था तब रिजर्व बैंक और सरकार ने उसे अधिग्रहीत करने की कोशिश की थी, तब से दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया में सुधार हो गया है. संशोधित कानूनी और नियमन ढांचे के तहत एनबीएफसी को भी आइबीसी की प्रक्रिया में डाला जा सकता है.

अंतरिम ढांचा

वित्तीय सेवादाताओं को शुरू में आइबीसी के दायरे से बाहर रखा गया था. लेकिन आइबीसी की धारा 227 ने वित्त क्षेत्र के रेगुलेटर के परामर्श से सरकार को अधिकार दिया कि वह वित्तीय सेवादाताओं या इनके कुछ वर्गों को आइबीसी के दायरे में ला सकती है. 2019 में बनाए गए नियम वित्तीय सेवादाताओं को दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया बताते हैं. नवंबर 2019 में केंद्र सरकार ने इन नियमों को 500 करोड़ या उससे ज्यादा की संपत्ति वाली गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों (हाउसिंग फाइनैंस कंपनियों समेत) पर लागू करने की अधिसूचना जारी की.

आरबीआई एक्ट और आइबीसी नियमों में 2019 में किए गए संशोधन के बाद रिजर्व बैंक ने डीएचएफएल को दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया शुरू की. यह पहली वित्त कंपनी थी जिसे रिजर्व बैंक ने आइबीसी से प्राप्त विशेष अधिकारों के तहत नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के हवाले किया.

इस तरह, एनबीएफसी के नये समाधान ढांचे के तहत, दिवाला के मामले के निपटारे की प्रक्रिया उपयुक्त रेगुलेटर की अर्जी पर शुरू की जाती है. एनसीएलटी दिवाला की प्रक्रिया में शामिल वित्त सेवादाताओं के लिए रेगुलेटर द्वारा प्रस्तावित एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त करता है. एडमिनिस्ट्रेटर कंपनी के प्रबंध को अपने हाथ में लेता है, उधारदाताओं के दावों को मान्य या खारिज करता है और विघटन की प्रक्रिया को संभालता है. समाधान की योजना को स्वीकार करने के बाद एडमिनिस्ट्रेटर को वित्त सेवादाता के प्रबंधन को संभालने वाले व्यक्तियों के लिए रेगुलेटर से नो ऑब्जेक्सन लेना पड़ता है. आइबीसी और आरबीआई एक्ट के तहत संशोधन कुछ वित्त सेवादाताओं के दिवाला के मामले से निपटने की अंतरिम व्यवस्था थी, जब तक कि इसके लिए पूर्ण फ्रेमवर्क न लागू किया जाए.

भविष्य पर नज़र

उम्मीद की जाती है कि दो बदलाव आगे बढ़ाए जाएंगे. एक तो समाधान प्राधिकरण गठित किया जाएगा, जो बैंकों, बीमा कंपनियों और महत्वपूर्ण वित्त फर्मों के मामलों का निपटारा करेगा. यह प्राधिकरण व्यवस्था के लिए गैर-महत्वपूर्ण एनबीएफसी में समाधान में शायद ही भूमिका निभाएगा.

दूसरे, जब आइबीसी प्रक्रियाएं और एनसीएलटी अदालतें मजबूत होती जाएंगी, एनबीएफसी के उधारदाता कंपनी को सीधे आइबीसी में ले जाएंगे. इसके लिए आइबीसी और आरबीआई एक्ट में संशोधन करने होंगे ताकि उधारदाता डिफाल्ट होने पर रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप के बिना सीधे एनसीएलटी में जा सकें.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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