केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नकदी की कमी से परेशान टेलीकॉम सेक्टर के लिए राहत पैकेज की मंजूरी दे दी है. इस पैकेज के तहत कई तरह के उपाय किए गए हैं, मसलन- बकाया भुगतान पर चार साल के लिए रोक, कुल समायोजित राजस्व (एजीआर) को इस तरह परिभाषित करना कि गैर-टेलीकॉम राजस्व इसके दायरे से बाहर हो जाए और स्पेक्ट्रम यूजर कीमत को तर्कसंगत बनाना.
उम्मीद की जाती है कि भारी कर्ज के बोझ से दबे टेलीकॉम सेक्टर को इस पैकेज से राहत मिलेगी.
नियमन की व्यवस्था का ज़ोर इस बात पर तो रहा है कि निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़े लेकिन प्रतिस्पर्द्धा का माहौल बनाने और बाज़ार के अनुकूल नीतियां बनाने की भी जरूरत है.
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सेक्टर का इतिहास
1994 में नेशनल टेलीकॉम पॉलिसी (एनपीटी) के तहत टेलीकॉम सेक्टर में उदारीकरण किया गया था और कंपनियों को निश्चित लाइसेंस फीस के बदले लाइसेंस दिए गए थे. निश्चित लाइसेंस फीस काफी ज्यादा थी इसलिए सरकार ने 1999 में लाइसेंस लेने वालों को यह विकल्प पेश किया कि वे निश्चित लाइसेंस फीस की जगह कमाई में हिस्सेदारी के मॉडल को चुन सकते हैं.
टेलीकॉम विभाग (डीओटी) और टेलीकॉम कंपनियों के बीच जो लाइसेंस करार किए गए उनमें इन कंपनियों के कुल राजस्व को परिभाषित किया गया. इसके बाद एजीआर का हिसाब कुछ कटौतियों के बाद लगाया जाने लगा. एजीआर के दो तत्व हैं- लाइसेंस फीस और स्पेक्ट्रम यूजर कीमतें. कुल मिलाकर यह सरकार के लिए रेगुलेटरी फीस के रूप में एजीआर के 15 प्रतिशत के बराबर होता है.
एजीआर की परिभाषा को लेकर मुकदमा एक दशक से चल रहा है. डीओटी का दावा है कि एजीआर के तहत टेलीकॉम कंपनियां अपनी पूरी कमाई में से राजस्व की हिस्सेदारी करें लेकिन कंपनियों का दावा है कि एजीआर में केवल कोर सर्विसेज से कमाई को शामिल किया जाए, न कि निवेश या संपत्तियों की बिक्री से हुई कमाई को.
टेलीकॉम अपीली संस्था ने टेलीकॉम कंपनियों के पक्ष में फैसला सुनाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एजीआर की उस व्याख्या को सही ठहराया जो डीओटी ने की थी. इस फैसले ने वित्तीय रूप से कमजोर, दिवालिया होने के कगार पर पहुंची वोडाफोन आइडिया को भारी झटका पहुंचाया.
सरकार ने टेलीकॉम सेक्टर में निजी क्षेत्र की भागीदारी की मंजूरी तो दी मगर आगे उसकी नीतियों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि टेलीकॉम बाज़ार आगे चलकर एकाधिकार में बदल सकता था. इससे उपभोक्ताओं के हितों को नुकसान पहुंचता. सरकार को 15 ऑपरेटरों से बकाया हासिल करना है लेकिन उनमें से 10 या तो बंद हो चुके हैं या दिवालिया घोषित होने को हैं.
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दूसरे सेक्टरों को भी हस्तक्षेप चाहिए
बैंकिंग सेक्टर को भी प्रवेश संबंधी अड़चनों से उपजी कमजोरियों को दूर करने के लिए अधिक प्रतिस्पर्द्धा की जरूरत है.
भारत में बैंकिंग पर सरकारी बैंकों का वर्चस्व रहा है. 1991 से 2016 के बीच निजी उपक्रम को बैंक शुरू करने के केवल तीन बार मौके दिए गए. 2016 तक रिजर्व बैंक ने बैंक न खोलने देने की लाइसेंस नीति जारी रखी. ‘ऑन-टैप’ लाइसेंस या निरंतर लाइसेंस की नीति 2016 में जाकर घोषित की गई. लेकिन ‘ऑन-टैप’ लाइसेंस के प्रति ठंडा रुख ही रहा क्योंकि इस नीति के कुछ तत्वों को सख्त माना गया.
लाइसेंस के शर्तों की समीक्षा के अलावा बैंकिंग सेक्टर में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाने के लिए सरकारी बैंकों का निजीकरण भी करना पड़ेगा. कई विशेषज्ञ कमिटियां सिफारिश कर चुकी हैं कि चरणबद्ध तरीके से सरकारी हिस्सेदारी कम की जाए और सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जाए. बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में मुख्यतः यह तर्क दिया जाता है कि मुनाफा बढ़ाने वाले कर्जदाता ऊंचा सामाजिक लाभ देने वाले मामलों में प्रायः ऋण नहीं देते.
लेकिन अनुभव जनित प्रमाण यही बताते हैं कि 1990 के बाद से सरकारी बैंक उधार देने, डिपॉजिट हासिल करने और शाखाएं खोलने में कम उत्साह दिखा रहे हैं. कई विशेषज्ञ कमिटियां बता चुकी हैं कि सरकारी बैंक कामकाज के दूसरे पैमानों पर भी पिछड़े साबित हुए हैं.
सरकारी बैंकों की बढ़ती समस्याओं के जवाब में उन्हें और पूंजी मुहैया कराने का ही नीतिगत कदम उठाया जाता रहा है. इससे सरकार की वित्तीय स्थिति पर भारी दबाव पड़ता है और बैंकों का प्रदर्शन भी बिगड़ जाता है.
जब निजी बैंक पूंजी उगाहते हैं तब उन्हें बाज़ार की कसौटी से गुजरना पड़ता है. उन्हें निवेशकों को अपने निवेश और लाभ के बारे में भरोसा दिलाना पड़ता है. सरकारी बैंकों को लाभ और कामकाज को लेकर इस तरह के सवालों से नहीं जूझना पड़ता. भारी पूंजी मिलने के बावजूद वे ऋण देने के मामले में निजी बैंकों से पिछड़े ही रहते हैं.
बैंकों के निजीकरण का मुद्दा कई वर्षों से ठंडे बस्ते में डालकर छोड़ दिया गया था. अब दो सरकारी बैंकों के निजीकरण की योजना बाजार के हक में महत्वपूर्ण संकेत है. कोई सेक्टर तभी प्रतिस्पर्द्धी बनता है जब कमजोर फर्में उससे बाहर निकलती हैं और नयी के लिए जगह बनाती हैं.
नागरिक उड्डयन भी एक ऐसा सेक्टर है जिसे इसलिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है क्योंकि कोई भी सरकार एअर इंडिया को बेचने का साहस नहीं जुटा पाई. एअर इंडिया भारत के सबसे पुराने सार्वजनिक उपक्रमों में है. 1953 से 1991 तक भारत के आसमान पर उसका एकछत्र राज रहा. आर्थिक उदारीकरण के साथ उड्डयन सेक्टर को भी निजी खिलाड़ियों के लिए खोल दिया गया. पूर्ण सेवा देने वाले कई खिलाड़ी और सस्ते में यात्रा कराने वाले केरियर उड्डयन सेक्टर में दाखिल हुए.
सरकार ने एअर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस को 2007 में एक कर दिया ताकि निजी खिलाड़ियों से बेहतर मुकाबला किया जा सके लेकिन बाजार में एअर इंडिया की हिस्सेदारी घटती गई. वह करदाताओं के पैसे पर जिंदा है. अब उसका स्वामित्व अपने हाथ में रखने में सरकार की दिलचस्पी नहीं रह गई है. उसका निजीकरण हो जाएगा तो उसका प्रबंधन ज्यादा कुशलता से किया जा सकेगा. प्रतिस्पर्द्धा बढ़ेगी तो मौजूदा निजी खिलाड़ियों को भी अपनी कार्यकुशलता बढ़ानी पड़ेगी.
इसलिए, किसी सेक्टर में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना ही काफी नहीं है. इसके साथ, प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देने वाला अनुकूल माहौल बनाना भी जरूरी है.
(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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