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Thursday, 25 April, 2024
होमहेल्थWHO ने भारतीय स्वास्थ्य सेवा के 'निजी क्षेत्र में रेगुलेशन की कमी' पर ध्यान दिलाया, लाइफ एक्सपेक्टेंसी में हुई बढ़ोत्तरी

WHO ने भारतीय स्वास्थ्य सेवा के ‘निजी क्षेत्र में रेगुलेशन की कमी’ पर ध्यान दिलाया, लाइफ एक्सपेक्टेंसी में हुई बढ़ोत्तरी

यह समीक्षा डब्ल्यूएचओ के 'हेल्थ सिस्टम्स इन ट्रांजिशन (हिट) प्रोफाइल के हिस्से के रूप में थी जो विभिन्न देशों की स्वास्थ्य प्रणालियों पर आधारित रिपोर्ट हैं. अन्य मुद्दों के बीच सार्वजनिक स्वास्थ्य पर कम खर्च का मुद्दा भी उठाया गया.

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नई दिल्ली: विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक समीक्षा के अनुसार निजी क्षेत्र में रेगुलेशन (विनियमन) की कमी और सार्वजनिक क्षेत्र में संसाधनों, शासन और गुणवत्ता को मजबूत करने की आवश्यकता – ये भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली से जुड़े ऐसे कुछ मुद्दे हैं जिन्हें तत्काल हल किए जाने की आवश्यकता है.

इसने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर कम खर्च, जनशक्ति की कमी और दवा की कीमतों – जो भारतीय स्वास्थ्य सेवा से जुड़ीं स्थाई समस्याएं हैं – के ऐसे मसलें हैं जिन्हें हल किए जाने की आवश्यकता है.

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (PHFI), दिल्ली के डॉ शक्तिवेल सेल्वराज और मेडिकल फैकल्टी एंड यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल, हीडलबर्ग यूनिवर्सिटी, जर्मनी के डॉ स्वाति श्रीवास्तव द्वारा मिलकर लिखी गई यह समीक्षा डब्ल्यूएचओ की ‘हेल्थ सिस्टम्स इन ट्रांजिशन’ (हिट) प्रोफाइल का हिस्सा है, जो देशों की स्वास्थ्य प्रणालियों पर आधारित रिपोर्ट हैं. इसे 30 मार्च को प्रकाशित किया गया था.

हालांकि, यह समीक्षा भारत की दवा नियामक प्रणाली के प्रति काफी आलोचनात्मक थी, मगर इसने शिशु मृत्यु दर और जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) जैसे मापदंडों पर देश की प्रगति की सराहना की है. इसमें यह भी पाया गया कि सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं का उपयोग गरीब राज्यों की तुलना में धनी राज्यों में अधिक था.

दवाओं के रेगुलेशन में ‘खराब बुनियादी ढांचा, भ्रमित करने वाले कानून’

भारत की दवा नियामक प्रणाली पर टिप्पणी करते हुए, इस समीक्षा में कहा गया है कि उप-राष्ट्रीय स्तर पर यह ‘खराब बुनियादी ढांचे, कुशल कर्मियों की कमी, भ्रमित करने वाले कानून और कई प्राधिकारियों के द्वारा अभिलक्षित (करेक्टराइज्ड) किया जाता है, जो नियमों और विनियमों के खराब कार्यान्वयन में योगदान करते हैं.’

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इसने यह भी जिक्र किया है कि दवाओं के लिए मौजूदा ऊपरी प्राइस सीलिंग मैकेनिज़्म दवा निर्माताओं और रोगियों दोनों के हितों को संतुलित करने की दिशा में काम कर रहा है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश राज्य चिकित्सा जगत के ज्यादातर लोगों द्वारा किए जा रहे ‘असहयोग’ की वजह से क्लीनिकल एस्टाब्लिशमेंट्स (रजिस्ट्रेशन एंड रेगुलेशन) एक्ट [सीईए], 2010 को लागू करने में सक्षम नहीं हो पाए हैं.

सीईए के तहत सभी स्वास्थ्य संबंधी प्रतिष्ठानों को पंजीकृत किए जाने की आवश्यकता है और इसका उद्देश्य निदान और उपचार के लिए सामान्य न्यूनतम मानकों को लागू करना है.

इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सभी आउट पेशेंट विजिट्स में से लगभग 70 प्रतिशत, सभी इनपेशेंट एपिसोड के लगभग 58 प्रतिशत और लगभग 90 प्रतिशत दवा और जांच सुविधाएं, वर्तमान में या तो लाभ के लिए चलाए जा रही हैं  या फिर बिना लाभ वाले निजी क्षेत्र प्रदान कर रही हैं.

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि प्रदान की गई सेवाओं की गुणवत्ता, लागत और प्रभावशीलता इनके प्रदाताओं के आधार पर काफी भिन्न होती है.

सार्वजनिक स्वास्थ्य पर दोगुना खर्च किया जाए

इस रिपोर्ट के लेखकों के अनुसार, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च को दोगुना करना प्राथमिकता होनी चाहिए.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के द्वारा योगदान के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च को दोगुना करते हुए इसे अगले पांच वर्षों में सरकारी खर्च के मौजूदा 4-5 प्रतिशत से 8 प्रतिशत के लक्ष्य तक पहुंचाने की प्राथमिकता दी जानी चाहिए. साथ ही, वित्तीय प्रबंधन प्रणाली की मजबूत करने के लिए तंत्र बनाए जाने चाहिए ताकि आवंटित धन का कुशलतापूर्वक और समान रूप से इस्तेमाल किया जा सके.’

इसने आगे कहा कि वर्तमान में मौजूद ‘भारी कमी’ को देखते हुए, स्वास्थ्य क्षेत्र में बढ़े हुए फंड इस निवेश का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पेशेवर स्वास्थ्य कर्मियों, खासतौर से नर्सों और संबद्ध पेशेवर स्वास्थ्य कर्मियों की भर्ती और उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए, ताकि प्राथमिक देखभाल और उपचार को प्रभावी ढंग से किया जा सके.

रिपोर्ट में यह भी सिफारिश की गई है कि ‘दवाओं और अन्य आपूर्ति की सामूहिक खरीद’ के साथ – साथ ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में बेहतर सप्लाई चेन का निर्माण’ क्षमता और कीमत को बढ़ा सकता है.


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जीवन प्रत्याशा में तीव्र वृद्धि

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में जन्म के समय बढ़ी हुई लाइफ एक्सपेंटेंसी के रूप में ‘उल्लेखनीय सफलता’ हासिल की गई है – साल 1990 की तुलना में 2020 में एक औसत भारतीय का जीवन काल 20 साल से अधिक बढ़ गया.

भारत की शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) 1990 में 88 से घटाकर 2020 में लगभग 32 प्रति 1,000  लाइव बर्थ्स (जन्म के समय जीवित) पर आ गई. इसी तरह, मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर) भी 2016-2018 में घटकर 113 प्रति 1,00,000 लाइव बर्थ्स हो गया, जो 1990 में 556 था.

हालांकि, इस रिपोर्ट का कहना है कि यह प्रगति अनियमित रही है और आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों से उच्च दरों की ख़बरें आती रहती हैं.

यह रिपोर्ट आईएमआर और एमएमआर को जीवन प्रत्याशा में तीव्र वृद्धि से जोड़ती है. इसके अनुसार, ‘एक औसत भारतीय अपने जन्म के समय जितने वर्षों तक जीने की उम्मीद कर सकता है, वह तेजी से बढ़ गई है. यह 1970 में 47.7 वर्ष से बढ़कर 2020 में 69.6 वर्ष हो गया है, जो दो दशकों में आई सबसे अधिक बढ़ोत्तरी है.’

रिपोर्ट में कहा गया है कि यह प्रभावशाली उपलब्धि है. भले ही यह श्रीलंका (74 वर्ष), ब्राजील (74 वर्ष), चीन (75 वर्ष) और कोस्टा रिका (80 वर्ष) जैसे मध्यम आय वर्ग के अन्य देशों की तुलना में कम है .

इसमें कहा गया है, ‘1970 और 2016 के बीच भारतीय महिलाओं में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में 24 साल की वृद्धि हुई, जो पुरुषों की तुलना में अधिक है जिनके बीच इसी अवधि में 20 साल की वृद्धि देखी गई है. इसके अलावा, 60 वर्ष की आयु में, पुरुषों की औसत जीवन प्रत्याशा महिलाओं के लिए 17 वर्ष की तुलना में 15 वर्ष है. ‘

1970 से 2020 की अवधि में जीवन प्रत्याशा में सबसे अधिक वृद्धि उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, बिहार, असम और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में देखी गयी.

अकेले उत्तर प्रदेश में, पिछले 50 वर्ष की अवधि के दौरान, जीवन प्रत्याशा में लगभग 22 वर्ष की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है.

 धनी राज्यों में प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना का अधिक उपयोग

साल 2018 में शुरू की गई प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PMJAY) की परिकल्पना एक ऐसी योजना के रूप में की गई थी जो स्वास्थ्य खर्चों की वजह से घरों में आने वाली गरीबी को कम करेगी. इसके तहत पात्र परिवारों को 5 लाख रुपए के वार्षिक स्वास्थ्य कवर का आश्वासन दिया गया है .

हालांकि, लेखकों ने PMJAY के डेटा को खंगाला और पाया कि ‘गरीब राज्यों में इसका उपयोग धनी राज्यों की तुलना में बहुत कम है’. फैलाव के आधार पर इसके दावों में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी तमिलनाडु (28 फीसदी) की रही. इसके बाद गुजरात (17 फीसदी) और छत्तीसगढ़ (15 फीसदी) का स्थान रहा.

लेखकों ने लिखा है कि कोविड -19 महामारी ने अतिरिक्त चुनौतियों को जन्म दिया: ‘सख्ती की वजह से लॉकडाउन के पहले अवधि की तुलना में अस्पताल में भर्ती होने के लिए इसका उपयोग लगभग दो-तिहाई तक कम हो गया…मोतियाबिंद या हड्डियों के जोड़ के बदले जाने से संबंधित उपचार के प्रति एक तेज गिरावट देखी गई थी, हालांकि हेमोडायलिसिस जैसी योजनाबद्ध और महत्वपूर्ण उपचार में केवल 6 प्रतिशत की गिरावट आई थी… ‘

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ‘हालांकि इस योजना के लाभार्थी अपने निवास स्थान की स्थिति की परवाह किए बिना देश में कहीं भी स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग कर सकते हैं, मगर PMJAY द्वारा कवर किए गए मामलों में से केवल 1 प्रतिशत मामलों में ही निवास स्थान वाले राज्य के बाहर मरीज का उपचार किया गया. मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार ही ऐसे राज्य थे जहां राज्य के बाहर स्वास्थ्य सुविधाओं के उपयोग की मांग सबसे अधिक थी.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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