नई दिल्ली: भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (इंडियन काउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च-आईसीएमआर) से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2021 में एच3एन2, इन्फ्लूएंजा-ए वायरस के एक सब-टाइप, से जुड़े मामलों में आए आखिरी उछाल के बाद से भारत में इस वायरस के कारण बीमार पड़ने वालों की संख्या दोगुनी हो गई है.
लोगों के इस वायरस – जिसके संक्रमण से जुड़े लक्षणों में बुखार, खांसी और थकान शामिल हैं – के प्रति अधिक संवेदनशील होने की कोई स्पष्ट वजह न होने के कारण, विशेषज्ञों का कहना है कि फ्लू के टीकों की कम लोकप्रियता, को-मॉर्बिडिटी (पहले से घातक बीमारियों की मौजूदगी) और हवा में मौजूद एलर्जी पैदा करने वाले कण इसके कारणों में शामिल हो सकते हैं.
हालांकि, आईसीएमआर द्वारा दिया गया यह आंकड़ा उसकी केवल 27 प्रयोगशालाओं से लिया गया है, मगर केंद्र सरकार अपने इंटीग्रेटेड डिसीज़ सर्वेलएन्स प्रॉजेक्ट-आईडीएसपी के माध्यम से सभी राज्यों के हालात पर नज़र रख रही है.
हालांकि तमाम डॉक्टर, स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी और सरकार लोगों से न घबराने की बातें कर रहे हैं, लेकिन एच3एन2 वायरस के लंबे समय तक सताने वाले लक्षणों ने लोगों को चिंतित कर दिया है. इस बीच तमाम विशेषज्ञ एच3एन2 वायरस और इसके लक्षणों की लंबी प्रकृति के बारे में अपने विचारों के आधार पर बंटे हुए हैं. उनमें से एक वर्ग को लगता है कि कोविड महामारी के दौरान लोगों की आंतरिक प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई थी, क्योंकि वे लगभग तीन साल तक घर के अंदर ही रहे थे और अचानक से बाहरी दुनिया के संपर्क में आने के बाद से वे सभी प्रकार के वायरस के प्रति अतिसंवेदनशील हो गये हैं. वहीं दूसरों का मानना है कि प्रतिरक्षा शक्ति एकाएक इस तरह से बहुत अधिक प्रभावित नहीं हो सकती है.
आईसीएमआर डैशबोर्ड के अनुसार, एच3एन2 के मामलों में आए आखिरी उछाल, जो साल 2021 में जुलाई से नवंबर के बीच हुआ था, के दौरान एक सप्ताह में अधिकतम 30 मामले देखे गए. पर वर्तमान मे जारी प्रकोप के दौरान एक सप्ताह में 60 ऐसे मामलों को देखा गया है. हालांकि, यह आंकड़ा सिर्फ 27 आईसीएमआर प्रयोगशालाओं से लिए गये डेटा पर आधारित है.
केंद्र सरकार का आईडीएसपी – आईएचआईपी (इंटीग्रेटेड हेल्थ इंफॉर्मेशन प्लेटफॉर्म), जो देश भर में चलाई जा रही लगभग 100 प्रयोगशालाओं के साथ एक व्यापक तंत्र का निर्माण करता है, ने इस साल की शुरुआत से लेकर 9 मार्च तक एच3एन2 सहित इन्फ्लूएंजा के विभिन्न उप-प्रकारों के 3,038 पुष्ट मामलों की सूचना दी है. इसमें जनवरी में सामने आए 1,245 मामले, फरवरी के 1,307 मामले और मार्च के (9 तारीख तक) 486 मामले शामिल हैं.
फरीदाबाद स्थित अमृता अस्पताल के संक्रामक रोग विभाग में सलाहकार के पद पर कार्यरत डॉ. रोहित कुमार गर्ग ने दिप्रिंट से कहा, ‘हमें अभी भी इस जीनोम के बारे में और अधिक डेटा की आवश्यकता है, ख़ासकर यह समझने के लिए कि क्या यह स्ट्रेन रोगियों में देखी जा रही गंभीर और लंबी बीमारी के लिए वास्तविक रूप से जिम्मेदार है. मैं लोगों द्वारा हर साल अपडेटेड फ़्लू के टीके लेने की आवश्यकता पर भी ज़ोर देना चाहूंगा.’
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क्या कम रोग प्रतिरोधक क्षमता इसका एक कारण है?
पर मरीजों में इन्फ्लुएंजा के लक्षण लंबे समय तक क्यों दिखाई दे रहे हैं? इस बारे में बात करते हुए जाने-माने पल्मोनोलॉजिस्ट (श्वशन रोग विशेषज्ञ) और दिल्ली स्थित पीएसआरआई इंस्टीट्यूट ऑफ पल्मोनरी, क्रिटिकल केयर एंड स्लीप मेडिसिन के चेयरमैन डॉ. गोपीचंद खिलनानी ने दिप्रिंट को बताया कि हर वायरल स्ट्रेन अलग प्रकार का होता है. उन्होंने कहा, ‘बीमारी की अवधि तीन चीजों पर निर्भर करता है – एजेंट, होस्ट और पर्यावरण.’
डॉ. खिलनानी ने कहा कि हालांकि एजेंट, इस मामले में एच3एन2, के जीनोम में परिवर्तन होने की संभावना है, लेकिन इसके होस्ट (रोगी) की प्रतिरक्षा शक्ति भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. डॉ. खिलनानी ने कहा, ‘पिछले तीन सालों के दौरान लोगों ने खुद को घर के अंदर ही सीमित कर लिया था. एंटीबॉडी का स्तर समय के साथ कम होता जाता है. पिछले कुछ वर्षों में लोगों का एक्सपोजर (बीमारी के संपर्क में आना) कम था. हालांकि, इसके साथ ही फ्लू के टीके लगवाने वालों की संख्या भी कम हो गई थी.’
डॉ. खिलनानी ने आगे कहा, ‘एक बार जब महामारी खत्म हो गई, तो लोग बड़े जोशो-खरोस के साथ बाहर निकले.’ उन्होंने कहा कि इससे वायरस के संपर्क में आने के मामलों में अचानक वृद्धि हुई.
हालांकि, अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि एक्सपोजर की कमी किसी की रोग प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित नहीं करती है.
महामारी विज्ञानी और आईसीएमआर की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी की वैज्ञानिक सलाहकार समिति के पूर्व अध्यक्ष जयप्रकाश मुलियिल ने कहा, ‘फ्लू के वायरस से लड़ने में सक्षम होने के लिए जवाबदेह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली लाखों वर्षों के दौरान विकसित हुई है. तीन साल के कम एक्सपोजर से हमारी प्रतिरक्षा में कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा.‘
मुलियिल ने दिप्रिंट से कहा, ‘जिस तरह सार्स-कोव-2 नए-नए म्युटेशन (उत्परिवर्तन) के साथ विकसित हुआ, उसी तरह फ्लू वायरस भी उत्परिवर्तित होता है. यह संभव है कि फिलहाल एच3एन2 का एक नया संस्करण घूम रहा हो.’
उन्होने आगे कहा, ‘वैसे भी, हम भारतीय कोविड के प्रकोप के दौरान भी मास्क लगाने को लेकर बहुत अधिक सख्ती नहीं बरत रहे थे. संक्रमण अधिकांश आबादी के बीच फैलने में सक्षम रहा था. इसलिए इस परिकल्पना का कोई आधार नहीं है.’
यहां इस बात पर ध्यान दिया जा सकता है कि इन्फ्लूएंजा वायरस, जो आमतौर पर सूअरों में फैलते हैं, जब इंसानों में पाए जाते हैं तो उन्हें ‘वैरिएंट’ वायरस कहा जाता है. इन्फ्लुएंजा ए एच3एन2 वैरिएंट वायरस को पहली बार जुलाई 2011 में इंसानों में मौजूद पाया गया था. इस वायरस को पहली बार 2010 में अमेरिका में सूअरों में पहचाना गया था.
यह केवल एच3एन2 के मामलों की ही बात नहीं हैं, बल्कि इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारियों से प्रभावित लोगों की संख्या भी बढ़ रही है.
स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़े आईडीएसपी-आईएचआईपी से मिला डेटा इस तरफ इशारा करता है कि इस साल जनवरी में, देश से अक्यूट रेस्पिरेटरी इलनेस/इनफ़्लुएंज़ा लाइक इलनेस (एआरआई / आईएलआई) के कुल 3,97,814 मामले सामने आए थे, जो फरवरी के दौरान थोड़ा बढ़कर 4,36,523 हो गए. मार्च महीने के पहले 9 दिनों में ऐसे मामलों की संख्या 1,33,412 है.
सिवियर अक्यूट रेस्पिरेटरी इलनेस से जुड़े लोगों के अस्पतालों में भर्ती होने मामलों के संबंधित आंकड़े जनवरी में 7,041 मामले, फरवरी में 6,919 और मार्च के पहले 9 दिनों के दौरान 1,866 हैं.
कॉम्बिडिटी वाले लोग अधिक असुरक्षित हैं
स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, मौसमी इन्फ्लूएंजा के संदर्भ में छोटे बच्चे और सह-रुग्णता वाले बुजुर्ग सबसे असुरक्षित समूह हैं. अभी तक, कर्नाटक और हरियाणा ने एच3एन2 इन्फ्लूएंजा से एक-एक मौत की पुष्टि की है.
मंत्रालय ने कहा, ‘भारत में हर साल मौसमी इन्फ्लूएंजा के दो चरम काल देखे जाते हैं: एक जनवरी से मार्च तक और दूसरा मानसून के बाद के मौसम में. मौसमी इन्फ्लूएंजा से उत्पन्न होने वाले मामलों में मार्च के अंत से गिरावट आने की उम्मीद है.’
डॉक्टर भी इस बात से सहमत हैं कि अन्य बीमारियों वाले रोगियों में गंभीर लक्षण आम हैं.
डॉ. खिलनानी ने कहा कि हालांकि अधिकांश रोगी संक्रमित होने के कुछ दिनों के भीतर ठीक हो जा रहे हैं, लेकिन प्रिडिसपोजिंग कंडीशन्स (पहले से मौजूद बीमारियों) वाले लोग ही वे रोगी हैं जो बीमारी से लंबे समय तक पीड़ित रहे हैं.
उन्होंने कहा कि पर्यावरण के कारक – जैसे प्रदूषक कण और एलर्जी पैदा करने वाले कण (जैसे कि पराग कण) – रोगियों में लक्षणों को और बढ़ा रहे हैं.
इसी तरह का विचार व्यक्त करते हुए, डॉ. गर्ग, जिनका पहले उल्लेख किया जा चुका है, ने कहा कि रोग की गंभीरता उन लोगों में अधिक होती है, जिनमें प्रिडिसपोजिंग कंडीशन्स – जैसे कि हृदय रोग, मधुमेह या पुरानी फेफड़ों की बीमारी- होती है. उन्होंने कहा, ‘कैंसर के वे रोगी जिन्हें प्रतिरक्षा शक्ति को दबाने वाली दवा दी जा रही हैं, वे अधिक ख़तरे में हैं, ठीक वैसे ही 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी ख़तरे में हैं.’
डॉ. गर्ग ने कहा कि इन्फ्लूएंजा वायरस के नवीनतम स्ट्रेन का सामना करने के लिए हर साल अपडेट किए जाने के बावजूद, फ्लू के टीके हम भारतीयों के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं हैं. उन्होंने कहा, ‘जिन लोगों को फेफड़ों की पुरानी बीमारी है, उन्हें फ्लू के टीके लगाए जाने होते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग उन्हें नहीं लगवाते हैं. यह उन्हें फ्लू के लगातार विकसित होने वाले स्ट्रेनस के प्रति असुरक्षित बनाता है,’
फोर्टिस अस्पताल, नोएडा में पल्मोनोलॉजी और क्रिटिकल केयर के अतिरिक्त निदेशक डॉ. राहुल शर्मा के अनुसार, हालांकि हाल के वर्षों में फ्लू के टीके की स्वीकार्यता में मामूली रूप से वृद्धि हुई है, विशेष रूप से कोविड के बाद के युग में, मगर यह अभी भी आम जनता में आदर्श स्थिति से कम है.’ उन्होंने कहा, ‘लोगों का मानना है कि फ्लू उन्हें उतना नुकसान नहीं पहुंचाता जितना कि कोविड.’
उन्होंने इसे समझाते हुए कहा, ‘हालांकि, अधिकांश स्वस्थ व्यक्तियों में संक्रमित होने पर हल्की से मध्यम स्तर की बीमारी होती है, मगर ब्रोन्कियल अस्थमा या एलर्जी वाले युवा वयस्कों को गंभीर बीमारी और जटिलताएं हो सकती हैं.’
डॉ. शर्मा ने यह भी कहा कि कोविड के डर से लोग सर्दी और खांसी के लक्षण दिखाई देने पर खुद की जांच कराने के बारे में अधिक सतर्क हो गए हैं, लेकिन वे खुद को सिर्फ कोविड के टेस्ट तक ही सीमित रखते हैं.
उन्होंने कहा कि यह फ्लू के मामलों में जारी ताज़ा आंकड़ों की उछाल को लेकर चिंता का विषय है. एक संभावना इस बात की भी है कि किसी व्यक्ति को कोई नई या अज्ञात एलर्जी हो सकती है जो उन्हें फ्लू वायरस की वजह से गंभीर बीमारी के खतरे में डालती है.
स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, फ्लू के प्रसार को रोकने के लिए ज़रूरी एहतियाती उपायों में फेस मास्क पहनना, हाथों की स्वच्छता बनाए रखना और सामाजिक दूरी बनाए रखना शामिल है.
हालांकि, डॉ. गर्ग नवीनतम फ्लू टीकाकरण के सन्दर्भ में अपडेट रहने की परंपरा को अपनाने की आवश्यकता पर जोर देते हैं.
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