नई दिल्ली: ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) जांच में इस्तेमाल होने वाली उपभोग की एक मुख्य वस्तु की ख़रीद प्रक्रिया में बदलाव होने से, राज्यों के पास अब ऐसी मशीनें रह गई हैं, जिन्हें वो तुरंत इस्तेमाल नहीं कर सकते. ये ऐसे समय हुआ है जब लॉकडाउन और कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए संसाधनों के दिशांतरण की वजह से, बीमारी की रिपोर्टिंग प्रभावित होने के बाद, संशोधित राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) फिर से पटरी पर आ रहा था.
इस साल मार्च में एक फैसले के तहत, सीबीनेट मशीनों में इस्तेमाल होने वाले कार्ट्रिज की केंद्रीय ख़रीद की प्रक्रिया को बदल दिया गया. इन मशीनों से टीबी मरीज़ों की दवा प्रतिरोधक क्षमता की जांच की जाती है.
पहले, ये कार्ट्रिजेज़ केंद्रीय स्तर पर क़रीब 1,200 रुपए की दर से ख़रीदकर, राज्यों को दी जातीं थीं. लेकिन, इस साल केंद्र सरकार ने इस प्रक्रिया को विकेंद्रित कर दिया, जिसका मतलब है कि राज्यों को अब अपनी सप्लाई ख़ुद मंगानी होगी. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए कार्यक्रम कार्यान्वयन योजनाओं (पीआईपीज़) को पहले ही अंतिम रूप दिया जा चुका है, इसलिए राज्य अब ख़रीद प्रक्रिया को नए सिरे से शुरू कर रहे हैं.
26 मार्च को राज्यों को लिखे गए पत्र में, जिसकी कॉपी दिप्रिंट के हाथ लगी है, कहा गया है, ‘इसलिए, राज्यों को लैबोरेट्री डायग्नोस्टिक्स की निर्बाध सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए, राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के अंतर्गत, लैब के उपभोग की सभी वस्तुओं की ख़रीद को विकेंद्रित करने का फैसला किया गया है. अपनी अपनी कार्यक्रम कार्यान्वयन योजनाओं में, लैब के उपभोग की वस्तुएं ख़रीदने के लिए, राज्य आवश्यक धनराशि का अनुरोध कर सकते हैं. एनटीईपी के अंतर्गत जारी की जाने वाली अनुदान राशि को भी, उपयुक्त रूप से नक़द अनुदान में बदल दिया जाएगा’.
दिप्रिंट ने स्वास्थ्य मंत्रालय और संबंधित अधिकारियों से, ईमेल और व्हाट्सएप के ज़रिए संपर्क साधकर, टिप्पणी लेने का प्रयास किया, लेकिन इस रिपोर्ट के छपने तक उनकी ओर से कोई जवाब नहीं मिला था.
बहुत से राज्यों के लिए, मसला धन का नहीं बल्कि प्रक्रिया में देरी का है, जिसकी वजह से वो मजबूर हो गए हैं, कि या तो सीबीनेट मशीनों को बिल्कुल ही इस्तेमाल न करें, या फिर उन्हें सिर्फ ऐसे मामलों में इस्तेमाल करें, जो बेहद ज़रूरी हों.
सीबीनेट मशीन में, जो विदेश में निर्मित उपकरण है, एक कार्ट्रिज इस्तेमाल होता है जिससे दवा प्रतिरोधी टीबी का पता लगाया जाता है, और ये भी पता लगाया जाता है कि क्या उसका पैथोजन रिफैम्पिसिन का प्रतिरोधी है, जो टीबी के खिलाफ सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाली दवा है.
यह भी पढ़ें: सरकार ने चेताया- टीकाकरण में तेजी न आई तो तीसरी लहर और बदतर होगी, हर दिन 6 लाख मामले आएंगे
केस स्टडी- बिहार
बिहार 6 करोड़ रुपए मूल्य की 50,000 सीबीनेट कार्ट्रिजेज़ ख़रीदने पर विचार कर रहा था, लेकिन ये मामला अब राज्य कैबिनेट की मंज़ूरी के इंतज़ार में है.
राज्य टीबी अधिकारी डॉ बीके मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारे पास पैसा है लेकिन हमने बिहार मेडिकल सर्विसेज़ एंड इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरपोरेशन लिमिटेड से रेट का क़रार तैयार करने को कहा है, और उनके साथ विशेष विवरण साझा किया है. ये काम हो चुका है लेकिन इसे कैबिनेट की मंज़ूरी मिलनी बाक़ी है. सभी राज्यों के सामने यही मसले पेश आ रहे हैं’.
उन्होंने कहा कि राज्य में क़रीब 1,000 सीबीनेट कार्ट्रिज बची हैं, जिन्हें वो केवल प्राथमिकता वाले मरीज़ों पर इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि बाक़ी मरीज़ों को ट्रूनेट के ज़रिए स्क्रीन किया जा रहा है.
ट्रूनेट देश में ही निर्मित टीबी जांच उपकरण है, जो सीबीनेट वाला ही काम करता है, लेकिन इसमें दो अलग अलग काट्रिज लगती हैं. अधिकारियों का कहना है कि दोनों मशीनों का काम और कार्यक्षमता एक जैसी है. ये एक सच्चाई है कि आधी इनवेंटरी अब काम में नहीं आ सकती, जिसकी वजह से कार्यक्रम प्रभावित हो रहा है. डॉ मिश्रा ने कहा, ‘लगभग सभी राज्यों के सामने यही समस्या आ रही है’.
बिहार में टीबी का बोझ देश में सबसे अधिक है, और यहां 70 सीबीनेट मशीनें तथा 200 से कुछ अधिक ट्रूनेट मशीनें हैं. महामारी के चरम पर इनमें से बहुत सी मशीनें, कोविड टेस्टिंग के काम में लगा दी गईं थीं. अब, हालांकि वो टीबी कार्यक्रम के लिए उपलब्ध हैं, लेकिन राज्य उनकी पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर सकते.
सरकारी आंकड़ों के अनुमान के मुताबिक़, टीबी से हर साल 4,80,000 और हर रोज़ क़रीब 1,400 भारतीयों की मौत होती है.
तपेदिक उन्मूलन की राष्ट्रीय सामरिक योजना में कहा गया है, कि भारत में हर साल दस लाख से अधिक मामले ऐसे होते हैं, जिनकी अधिसूचना नहीं होती, और उनमें से अधिकांश का या तो निदान नहीं होता, या उनका हिसाब नहीं रखा जाता, और निजी क्षेत्र में उनका अपर्याप्त निदान और इलाज होता है. भारत ने 2025 तक इस बीमारी के उन्मूलन का संकल्प लिया हुआ है, जो 2030 की वैश्विक समय सीमा से पांच साल पहले है.
उत्तर प्रदेश के राज्य टीबी अधिकारी डॉ संतोष गुप्ता ने कहा: ‘हमने (कार्ट्रिजेज़ के लिए) ऑर्डर दे दिए हैं. इसमें देरी कंपनी की ओर से हो रही है’.
राजस्थान में, फिलहाल 60 सीबीनेट मशीनों में से कोई एक भी इस्तेमाल में नहीं है. राज्य टीबी अधिकारी डॉ विनोद कुमार गर्ग ने बताया, ‘हम ट्रूनेट मशीनें इस्तेमाल कर रहे हैं. ख़रीद की प्रक्रिया चल रही है, इसलिए हमें उम्मीद है कि कार्ट्रिजेज़ जल्द ही मिल जाएंगी’.
यह भी पढ़ें: भारत में सितंबर में होंगी वैक्सीन की 18-22 करोड़ डोज़, ZyCoV D को बाज़ार तक आने में लग सकता है समय
बढ़ सकते हैं कार्ट्रिज के दाम
राज्यों के अधिकारियों का कहना है कि ख़रीद में देरी अस्थाई हो सकती है, लेकिन चूंकि कार्ट्रिजेज़ मालिकाना आईटम्स हैं- यानी उन्हें केवल एक कंपनी बनाती है- इसलिए इसका मतलब ये है कि टेंडर प्रक्रिया के ज़रिए, क़ीमतों में कोई बदलाव नहीं होने जा रहा.
एक राज्य टीबी अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘हम टेंडर नहीं दे सकते क्योंकि कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है. पहले जब केंद्र ख़रीद करता था तो वो थोक में करता था, इसलिए ज़ाहिर है कि उसे बेहतर दाम मिलते थे. लेकिन अब स्थिति ये है कि विक्रेता एक है, और ख़रीदने वाले बहुत हैं जिनमें कोई, कभी भी उतनी मात्रा नहीं ख़रीदेगा जितनी केंद्र ख़रीदता था. इसलिए हम निश्चित रूप से क़ीमतों के बढ़ने की अपेक्षा कर रहे हैं. मैं नहीं कह सकता कि वो कितनी होगी, लेकिन मुझे लग रहा है कि जिस कैट्रिज का दाम 1,200 रुपए था, वो बढ़कर क़रीब 1,600 रुपए पहुंच जाएगा’.
लेकिन, अधिकारियों का कहना है कि विकेंद्रीकरण का मतलब ये भी है, कि राज्य अपनी ज़रूरत के हिसाब से ख़रीद सकते हैं, और एक्सपायरी जैसे किसी भी मुद्दे को, कंपनी के साथ सीधे उठा सकते हैं.
अधिकारी ने कहा, ‘पिछले साल, श्रमबल को दूसरे कामों में लगा देने के कारण, टीबी रिपोर्टिंग बुरी तरह प्रभावित हुई थी. लगभग 100 प्रतिशत श्रमबल दूसरे कामों में लगा दिया गया था, और फिर लॉकडाउन हो गया. इस बार हम खोई हुई ज़मीन फिर से हासिल करना चाह रहे हैं, इसलिए मशीनें जितना जल्दी काम करने लगें, उतना बेहतर होगा’.
लेकिन, केरल पहले ही कार्ट्रिजेज़ खरीदने में सफल हो गया है. राज्य के टीबी अधिकारी डॉ सुनील कुमार एम ने कहा, ‘हमने केरल चिकित्सा आपूर्ति निगम को ऑर्डर दिया था, और कार्ट्रिजेज़ आ भी गई हैं’.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: WHO COVID डेटाबेस में हैं कई ‘खामियों भरे जर्नल्स’, जिसमें 70 पेपर भारतीयों के हैं