मुम्बई: 2009 में, जब स्वाइन फ्लू महामारी ने दुनिया के कुछ हिस्सों को अपनी चपेट में ले लिया था, तो मनोज गोपालकृष्णन, जो अब भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान- बॉम्बे (आईआईटी-बी) में प्रोफेसर हैं, एक विचार को आज़माना चाहते थे कि टेस्ट के नमूनों को एक साथ जमा किया जाए, जिससे वायरस की जांच की रफ्तार और उसके पैमाने को बढ़ाया जा सके.
लेकिन, वो एक विचार ही रहा, जो 11 साल तक गोपालकृष्णन के डेस्कटॉप के एक फोल्डर में बैठा रहा. फिर, 2020 में भारत में कोविड-19 महामारी फैल गई और तुरंत ज़रूरत महसूस की गई कि टेस्टिंग की कुशलता बढ़ाई जाए और इसकी लागत घटाई जाए.
आईआईटी-बी के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग में काम कर रहे गोपालकृष्णन ने कहा, ‘लोगों ने पूलिंग के बारे में बात करनी शुरू कर दी थी. मैं समझ गया कि इस बार स्थिति 2009 से अलग थी, क्योंकि स्वाइन फ्लू महामारी के विपरीत, ये समस्या हमारे दरवाज़े पर थी. मुझे अपने सहकर्मियों से जो प्रतिक्रिया मिली, वो भी उत्साहजनक थी’.
मार्च 2020 में उन्होंने अपने विचार को झाड़-पोंछकर बाहर निकाला और दो महीने में एक टेस्टिंग टूल- टेपेस्ट्री, विकसित कर लिया, जिसमें उन्होंने क़रीब 10 लोगों की सहायता ली, जिसमें आईआईबी- कंप्यूटर साइंसेज़ विभाग के अजीत राजवाड़े भी थे, जो उनके सहयोगी थे.
टेपेस्ट्री एक सिंगल राउंड मात्रात्मक पूलिंग एल्गोरिथम है, जो आरटी-पीसीआर टेस्ट के साथ इस्तेमाल होता है और जिसे कोविड टेस्टिंग का स्वर्ण- मान कहा जाता है. गोपालकृष्णन ने बताया कि टेपेस्ट्री से, नमूनों की जांच के समय में, काफी कमी लाई जा सकती है और पूलिंग की वजह से जांच की लागत भी, 50-85 प्रतिशत कम की जा सकती है.
इसी हफ्ते, ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीजीसीआई) ने एक ग़ैर-विनियमित चिकित्सीय उपकरण के तौर पर, टेपेस्ट्री के व्यावसायिक इस्तेमाल को मंज़ूरी दे दी.
इस टेस्टिंग टूल को बेंगलुरु स्थित एल्गोरिथमिक बायोलॉजिक्स ने लॉन्च किया है, जो एक स्टार्ट-अप है जिसे गोपालकृष्णन ने पिछले साल मार्च में तब स्थापित किया था, जब उन्होंने टेपेस्ट्री पर काम करना शुरू किया था.
कंपनी अब परिसरों और कार्य स्थलों से बातचीत कर रही है, ताकि टूल को कोविड टेस्टिंग में इस्तेमाल किया जा सके, जिससे सुनिश्चित हो सके कि खुलने के बाद, कार्यस्थल सुरक्षित रहें.
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कैसे काम करती है टेपेस्ट्री
ये टूल आणविक परीक्षण के लिए कम्प्रेशन एल्गोरिथम की तरह काम करता है. बहुत से लोगों के नमूनों को मिला लिया जाता है और आरटी-पीसीआर की मदद से एक ही राउंड में उनकी जांच की जाती है. हर नमूने को तीन पूल्स में भेजा जाता है, जिससे सुनिश्चित हो जाता है कि टेस्टिंग तीन प्रतियों में हो रही है और नतीजे सही हैं.
40 वर्षीय प्रोफेसर ने कहा, ‘अगर कोई पूल पॉज़िटिव निकलता है, तो मुझे पता नहीं चलेगा कि कौन सा नमूना पॉज़िटिव है. लेकिन में दूसरे पूल्स को देखकर, उसे गणित के हिसाब से सुलझा लूंगा, जिससे समझ में आ जाएगा कि कौन सा सैम्पल पॉज़िटिव है’.
एक अनुकूली दृष्टिकोण वो होता है, जब टेस्टिंग में आपका अगला क़दम आपके पिछले क़दम के नतीजे पर निर्भर करता है. गोपालकृष्णन ने कहा कि इस तरह की पूलिंग से लैब्स, कुशलता के साथ टेस्ट नहीं कर सकतीं.
वो बताते हैं कि ग़ैर-अनुकूली तरीक़े में, ‘20 सवालों का खेल खेला जाता है, जहां आपके सवाल दिए जा रहे जवाबों पर निर्भर नहीं करते और आपको सभी 20 सवाल एक साथ देने होते हैं’.
प्रोफेसर ने, जिनके पास सदर्न कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस में पीएचडी है, कहा कि टेपेस्ट्री से उन्हें आरटी-पीसीआर टेस्टिंग में समय बच जाता है, क्योंकि लैबोरेटरी में एक ही राउंड में, कई नमूनों की जांच की जा सकती है.
उन्होंने कहा, ‘आमतौर पर अगर कोई लैब 100 नमूने टेस्ट करने में सक्षम है, और वहां आप एक हज़ार सैम्पल्स ले जाते हैं, तो वहां नमूनों का ढेर जमा हो जाता है और नतीजों में समय लगता है.
इसी तरह, लगात भी कम होती है, क्योंकि लैबोरेट्री जितनी संख्या में टेस्ट कर रही होती हैं, वो नतीजों की संख्या से कम होती है.
परिसरों, कार्यस्थलों के लिए उपयुक्त
गोपालकृष्णन ने कहा कि कार्यस्थल और परिसर नियंत्रित प्रबंधनीय सूक्ष्म जगत होते हैं, इसलिए टेपेस्ट्री के पहली बार इस्तेमाल किए जाने के लिए वो सही जगह होते हैं.
टेस्टिंग का फील्ड ट्रायल अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान हैदराबाद के परिसर में हुआ था. मध्य-फरवरी से परिसर के सभी 400 लोगों के नमूने, हर सप्ताह एक साथ जमा किए जाते हैं और टेपेस्ट्री के ज़रिए टेस्ट किए जाते हैं.
गोपालकृष्णन ने कहा कि परिसर, दूसरी लहर के दौरान खुला रहा था. हमें दूसरी लहर के आने से पहले ही, मामलों में एक उछाल दिखने लगा था, लेकिन हम जल्दी से उन लोगों की पहचान कर पाए जो पॉज़िटिव थे और कैंपस में मामलों की संख्या कभी ज़्यादा नहीं हुई’.
उन्होंने ये भी कहा कि टूल का इस्तेमाल, पूरे इलाक़ों या ज़िलों की जांच के लिए भी किया जा सकता है. फिलहाल, एल्गोरिथमिक बायोलॉजिक्स ने दो लैबोरेट्रीज़- दिल्ली की लैब एश्योर और बेंगलुरू की ढीटॉमिक्स टेक्नॉलजीज़- से क़रार किया है और कुछ अन्य के साथ बातचीत चल रही है.
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