नई दिल्ली: कोविशील्ड आज भारत में स्वीकृत होने वाली पहली कोविड-19 वैक्सीन बन गई. ये फार्मास्यूटिकल कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन का भारतीय संस्करण है, जिसे बुधवार को यूके में मंज़ूरी दे दी गई.
नई दिल्ली ने भी उसी का अनुकरण किया है. शनिवार को, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि इमरजेंसी उपयोग के लिए अनुमति दे दी है जबकि रविवार को डीसीजीए ने भी दवा पर मुहर लगा दी है.
ये है कोविशील्ड वैक्सीन के बारे में हमारी जानकारी, जिसपर कई महीनों से काम चल रहा था.
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ये कैसे काम करती है
ChAdOx1 nCoV-19 या AZD1222 के नाम से जानी जाने वाली ये वैक्सीन, कॉमन कोल्ड वायरस या एडिनोवायरस का एक कमज़ोर किया गया रूप है, जो चिंपैंज़ियों में पाया जाता है. इस वायरल वेक्टर में सार्स-सीओवी-2 स्पाइक प्रोटीन का जिनेटिक मटीरियल होता है- वायरस की ऊपरी सतह पर मौजूद उभार, जो इसे इंसानी सेल से चिपकने में सहायता करता है.
जैसा कि अधिकतर वैक्सीन्स के साथ होता है, ऑक्सफोर्ड-एस्त्राज़ेनेका संस्करण नकली स्पाइक प्रोटीन पैदा करता है, जो फिर एक प्रतिरक्षात्मक प्रतिक्रिया पैदा करता है, जिससे इम्यून सिस्टम तैयार हो जाता है.
ये कितने अच्छे से काम करती है
वैक्सीन के पहले दौर के ट्रायल से रिसर्चर्स ने नतीजा निकाल लिया था कि वैक्सीन के दो डोज़, एक महीने के अंतराल से, सबसे अच्छी सुरक्षा प्रदान करेंगे.
लेकिन तीसरे दौर के क्लीनिकल ट्रायल में डोज़ की गलती से, कुछ प्रतिभागियों को आधा डोज़ मिल गया और फिर एक पूरा मिल गया, जो दरअसल 90 प्रतिशत कारगर साबित हुआ. जिन प्रतिभागियों को दो पूरे डोज़ मिले थे, इसका असर 62 प्रतिशत था.
चूंकि इस मिश्रण को प्राप्त करने वाला समूह काफी छोटा था, जिनमें कोई प्रतिभागी 55 वर्ष से अधिक का नहीं था, इसलिए एस्त्राज़ेनेका ने ऐलान किया कि वो एक और वैश्विक ट्रायल करेगी. उनको भी पहले एक आधा डोज़ और फिर उसके बाद एक पूरा डोज़ दिया गया. यूके की नियामक इकाई ने वैक्सीन को दो पूरे डोज़ में दिए जाने की अनुमति दी है, जिनके बीच में 12 हफ्ते का अंतराल होगा.
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दूसरी वैक्सीन्स की तुलना में कैसी है
फाइज़र और मॉडर्ना वैक्सीन्स मैसेंजर आरएनए या एमआरएनए प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करती हैं, एस्त्राज़ेनेका को एक 50 साल पुराने प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करके विकसित किया जा रहा है, जो चिंपैंज़ी एडिनोवायरस पर आधारित है.
इसके अलावा, ऑक्सफोर्ड-एस्त्राज़ेनेका को ‘गरीब आदमी की वैक्सीन’ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है, चूंकि इसे 2 डिग्री सेल्सियस से 8 डिग्री सेल्सियस तापमान के बीच ले जाया जा सकता है और छह महीने तक स्टोर किया जा सकता है.
फाइज़र-बायोएनटेक वैक्सीन, जो पहली बार अमेरिका, कनाडा, यूके और यूरोपियन संघ के कई देशों में स्वीकृत की गई, को रखने और लाने ले जाने के लिए माइनस 70 से लेकर माइनस 20 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान की ज़रूरत होती है. इसकी वजह से ऑक्सफोर्ड-एस्त्राज़ेनेका वैक्सीन, भारत जैसे गर्म देशों के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प बन सकती है.
उसके अलावा, एसआईआई ने कहा है कि सरकार कोविशील्ड को, 225 से 300 रुपए के बीच खरीद सकती है, जो उस मूल्य का अंश मात्र है, जिस पर वो इसे अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बेचेंगे. फाइज़र वैक्सीन की कीमत करीब 37 डॉलर है, जो लगभग 2,700 रुपए बैठती है.
भारत में विवाद
भारत में कोविशील्ड वैक्सीन का ट्रायल, पिछले महीने एक विवाद में फंस गया, जब एक 40 वर्षीय वॉलंटियर को कथित रूप से गंभीर न्यूरोलॉजिकल समस्या पैदा हो गई.
ट्रायल प्रतिभागी ने एसआईआई को एक कानूनी नोटिस भेज दिया और कंपनी को चेतावनी दी कि अगर उसने वैक्सीन के ट्रायल तुरंत नहीं रोके और इसके ‘उत्पादन व वितरण’ की अपनी योजनाएं स्थगित नहीं कीं तो वो कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेगा. इसी महीने खबर मिली कि वॉलंटियर ने एसआईआई के खिलाफ अदालत जाने का फैसला किया है.
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