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Friday, 26 April, 2024
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3 साल तक एक मामले को लटकाए रखने के बावजूद इस जज को मिला शीर्ष उपभोक्ता निकाय में पद

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सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश आर.के. अग्रवाल के दागी रिकॉर्ड के बावजूद उनकी नियुक्ति ने कानूनी बिरादरी के कई लोगो को आश्चर्यचकित कर दिया है

नई दिल्ली: न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल, जो कि चार हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त हुए, ने शुक्रवार को राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के प्रमुख के रूप में कार्यभार संभाला।

अग्रवाल 4 मई को सेवानिवृत्त हुए थे और इस हफ्ते के प्रारंभ में देश के शीर्ष उपभोक्ता विवाद निवारण निकाय के अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति कानूनी मण्डली के लिए आश्चर्यचकित करने वाली है – न केवल इनकी कार्य करने की गति के कारण बल्कि देश की शीर्ष अदालत में न्यायाधीश के रूप में उनके खराब रिकॉर्ड के भी कारण।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में अग्रवाल ने अपने चार साल के कार्यकाल मेंएक उच्च प्रोफ़ाइल और जोखिमपूर्ण मामले के निर्णय को 3 साल तक रिजर्व रखा और उसके बाद वह उस निर्णय की अधिघोष्णा किए बिना सेवानिवृत्त हो गए।इस निर्णय की वजह से इस मामले को शुरुआत से सुनना पड़ेगाजिससे दोनों पक्षों की लागत बढ़ जाएगी।

अग्रवाल का कार्यकाल भी विवादित था। वह पाँच न्यायाधीशों की खंडपीठ के न्यायाधीशों में से एक थे जिसकी स्थपना भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा द्वारा की गई थी। इस खंडपीठ की स्थापना तब की गई थी जब न्यायमूर्ति जस्ती चेलामेश्वर की अध्यक्षता वाली न्यायपीठ ने आदेश दिए थे कि प्रसाद मेडिकल ट्रस्ट मामले के संबंध में उच्च न्यायपालिका में कथित भ्रष्टाचार के मामले की सुनवाई होनी चाहिए।

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अग्रवाल की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशीय खंडपीठ को नई न्यायपीठ द्वारा एक याचिका भेजी गई।न्यायपीठ ने वरिष्ठ वकील कामिनी जयस्वाल की याचिका खारिज कर दी, जिसमें विशेष जाँच दल (एसआईटी) द्वारा कथित घोटाले में अदालत की निगरानी में जाँच की माँग की गई थी। इसमें याचिकाकर्ता और वकील पर भी “फोरम-शॉपिंग” का आरोप लगाया गया था।

देखा जाए तो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार वरिष्ठ न्यायपालिका और महत्वपूर्ण न्यायिक निकायों में पदों के लिए न्यायाधीशों का मूल्यांकन करते समय वरिष्ठता और प्रदर्शन पर जोर देती है,कानूनी विशेषज्ञों ने कहा कि एनसीडीआरसी में अग्रवाल की नियुक्ति असामान्य पसंद की तरह लगती है।

वह निर्णय जो कभी नहीं आया था

दिप्रिंट को पता चला है कि, दिल्ली विद्युत विनियामक आयोग (डीईआरसी), बीएसईएस राजधानी पावर लिमिटेड, कई अन्य बड़े निगमों और कम से कम आठ सरकारी अधिकारियों से जुड़े मामले में अग्रवाल को फैसला लिखना था।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसयू) के निर्माण के लिए बिजली के भुगतान में छूट की मांग हेतु निजी वितरण कंपनियों, बीएसईएस राजधानी और बीएसईएस यमुना ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। विवाद दो बीएसईएस इकाइयों के बीच टैरिफ पर था, जिसमें एक तरफ अनिल अंबानी के स्वामित्व वाली रिलायंस एडीएजी और दूसरी तरफ डीईआरसी थी। बीएसईएस इकाइयों ने दृढ़ता से कहा कि डीईआरसी द्वारा निर्धारित टैरिफ में उनकी लागत पूरी नहीं हो पाती है।

इस मामले में मुकदमे की सुनवाई 2010 में शुरू हुई और कई सुनवाइयों के बाद, अग्रवाल और न्यायमूर्ति जस्ती चेलामेश्वर की दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने 10 मार्च 2015 को आदेश सुरक्षित कर लिया। न्यायपीठ ने फैसला लंबित रखा और अंततः फैसला नहीं सुनाया।

इस मामले के दूसरे न्यायाधीश चेलामेश्वर अब यह फैसला नहीं सुना सकते हैं क्योंकि वह आधिकारिक तौर पर 22 जून को सेवानिवृत्त हो जाएंगे,तो इस मामले की सुनवाई एक नई पीठ द्वारा फिर से की जाएगी।

‘सुप्रीम कोर्ट के स्वयं के मानदंडों के खिलाफ’

इस मामले में उपस्थित परामर्शदाताओं में से एक वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने कहा कि “अब कोई विकल्प नहीं है। किसी एक पक्ष को जुलाई में मुख्य न्यायाधीश के समक्ष इस मामले का उल्लेख करना होगा और नये निर्देश माँगने होंगे। यह उच्च न्यायपालिका में बड़ी अनुशासनहीनता का हिस्सा है।”

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) के अध्यक्ष सिंह,प्रतिवादियों में से एक दामोदर वैली कारपोरेशन का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने इंगित किया कि यह मामला उन कई मामलों में से एक है जहाँ सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालयों को अपने आदेशों, कि वे निर्धारित तीन महीनों के भीतर निर्णय दें, का पालन करवाने में असफल रहा है।

सिंह ने कहा कि “यह मामला अन्य पक्षों और मेरे द्वारा कई बार सम्बंधित न्यायाधीशों के सामने उल्लेखित हुआ था। हर बार हमें यही बताया गया कि फैसला लिखा जा रहा है।इस मामले को तय करने में देरी के परिणामस्वरूप हजारों करोड़ रुपये के भुगतान में देरी हो रही है।”

डीईआरसी के लिए उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता मीत मल्होत्रा ने सिंह की भावनाओं को दोहराया। मल्होत्रा ने कहा कि “इस तरह की स्थितियों में, आमतौर पर, मामले के लिए फिर से प्रयास करना होगा।” उन्होंने आगे कहा कि “सुप्रीम कोर्ट के भीतर स्व-जवाबदेही समय की मांग है। कम से कम आठ उल्लेखों के बावजूद निर्णय देने में विफलता न्याय से इनकार है।”

मल्होत्रा ने कहा कि “न सिर्फ अदालत के अनगिनत घंटे बर्बाद हुए बल्कि यह राजकोष और जनता के पैसे पर बोझ भी है।अदालत का समय सार्वजनिक संपत्ति है, इसे न्यायसंगत रूप से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।”

सुधार की प्रतीक्षा

देरी उन दिशा निर्देशों के खिलाफ जाती है जो सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में समय सीमा के भीतर निर्णय देने के लिए निर्धारित किए थे। बिहार राज्य बनाम अनिल राय मामले में 6 अगस्त 2001 को दिए गये निर्णय में न्यायाधीश के.टी. थॉमस और आर.पी. सेठी की एक न्यायपीठ ने व्यक्त किया था कि आदेश निर्णयित होने के तीन महीने के भीतर निर्णय सुनाया जाना चाहिए।

नीति आयोग ने भारतीय न्याय प्रणाली में व्यापक महत्वपूर्ण सुधार लाने के प्रयासों के तहत 2017 में इस पर ध्यान खींचने का प्रयास किया था।अप्रैल 2017 के मसौदे में प्रस्तावित सुझावों में से एक ‘न्यायिक प्रदर्शन सूचकांक’ का परिचय था जो सुनवाइयों में देरी की जांच करेगा और लंबित पड़े मामलों की समस्या का पता लगाएगा।

मसौदे में कहा गया कि “सूचकांक में प्रक्रिया चरणों में कुछ विशेष प्रगति को शामिल किया जा सकता है जिसे उच्च न्यायालयों द्वारा पहले से ही अनुमोदित किया जा चुका है, जैसे कि न्यायाधीशों से दिन-प्रतिदिन की गतिविधि के भार को हटाया जाना और इसे प्रशासनिक अधिकारियों को दिया जाना।”

विशेषज्ञों ने कहा कि, लेकिन अग्रवाल प्रकरण जो व्याख्या करता है उसके हिसाब से सुधार अभी भी ‘कार्य प्रगति पर है’ वाली स्थिति में है।

Read in English: This judge sat on a verdict for 3 yrs & left it hanging. Now he heads top consumer body

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