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Monday, 23 December, 2024
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भारतीय वियाग्रा फर्मों के पास अब सुनहरा मौका क्योंकि अमरीका में फाइज़र का पेटेंट होगा खत्म

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एफडीए से औषधि निर्माण के लिए सात कंपनियों को मंजूरी मिलने से अमेरिका में इस दवा की कीमत में 99 प्रतिशत तक गिरावट आ सकती है।

नई दिल्लीः औषधि निर्माण कंपनी फाइज़र अमेरिका में अपनी सुपर हिट औषधि वियाग्रा के पेटेंट को खोने वाली है, इसके साथ ही एक लाभदायक बाजार में कदम रखने की उम्मीद से भारतीय कंपनियाँ इस लोकप्रिय नीली गोली का कॉपीकट संस्करण तैयार करने के लिए कमर कस रही हैं।

वियाग्रा का पुरूषों में नपुंसकता का उपचार करने के लिए प्रयोग किया जाता है। वियाग्रा के निर्माण के लिए फाइज़र का पेटेंट अमेरिका में 2020 में समाप्त हो रहा है। इससे भारतीय कंपनियों के सामने स्तंभन की समस्या से पीड़ित करीब 5 करोड़ अमेरिकियों को लक्षित करने का दरवाजा खुल जाएगा जो औषधियों के निर्यात के लिए भारत का सबसे बड़ा बाजार है।

सात भारतीय कंपनियाँ पहले ही आवश्यक मंजूरियाँ प्राप्त कर चुकी हैं। ये सात कंपनियाँ दुनिया भर की उन 15 कंपनियों में से हैं जिन्हें अमेरिकी स्वास्थ्य देखभाल संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा, वियाग्रा के रूप में तैयार किए गए पेटेंट सिल्डेनाफिल साइट्रेट के उत्पादन के लिए मंजूरी प्रदान की गई है।

नीली गोली बेचने के लिए मैदान में भारतीय कंपनियाँ रूबिकॉन रिसर्च, हेटरो ड्रग्स, मैकलियोड्स फार्मा, डॉ. रेड्डी की अरबिन्दों फार्मा, टोरंट फार्मास्टिकल्स और अजंता फार्मा हैं।

अमेरिका में क़ीमतों की हो सकती है भारी गिरावट

भारतीय कंपनियाँ रणनीतियों पर काम कर रही हैं जो अमेरिकी बाजार में वियाग्रा की कीमत लगभग 99 प्रतिशत तक कम कर सकती हैं।

अमेरिकी में इस गोली की कीमत 65 अमेरिकी डॉलर यानी 4400 रूपये या इससे अधिक है। फाइजर ने 2017 में स्वयं इस औषधि का आधी कीमत वाला एक सामान्य संस्करण लॉन्च किया था। यहाँ तक कि विशेषज्ञों का मामना है कि इसकी कीमत भी भारतीय फर्मों द्वारा पेश की गई कीमत से मेल नहीं खाती थी। मुंबई स्थित मैकलियोड्स फार्मास्यूटिकल्स, जिसने 2012 में अमेरिका को औषधि निर्यात करना प्रारंभ किया था, मैकसूत्र के रूप में भारत में वियाग्रा के एक देशी संस्करण को 58 रुपये प्रति गोली की दर से बेचता है।

अजन्ता फार्मा, सार्वजनिक रूप से 1.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर के रूप मे सूचीबद्ध फर्म, कामग्रा के नाम से अपने संस्करण को 32 रुपये प्रति गोली की दर से बेचता है।

इस मामले में भारत का प्रवेश दवाओं पर फाइज़र के प्रभुत्व को कम कर सकता है। 2014 में सिर्फ वियाग्रा से इसकी वैश्विक बिक्री 10,900 करोड़ रुपये से 1.685 अरब डॉलर तक पहुंच गई। एक अमेरिकी कंपनी, ट्रांसपैरेंसी मार्केट रिसर्च के मुताबिक, वैश्विक स्तंभन समस्या औषधि बाजार (ग्लोबल इरेक्टाइल डाइसफंक्शन ड्रग्स मार्केट) में इसका मूल्य 4.35 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।


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मैकलियोड्स फार्मास्युटिकल्स के उपाध्यक्ष नीतीश श्रीवास्तव ने स्वीकार किया कि अमेरिकी बाजार में भारतीय फर्मों की प्रविष्टि कीमत युद्ध को बढ़ा सकती है। वह कहते हैं, “वरीयता प्राप्त करने का एकमात्र तरीका कम मूल्य निर्धारण है। इसलिए, एक कीमत युद्ध तय है।”

श्रीवास्तव ने आगे बताया कि लोकप्रिय और कम- लोकप्रिय दोनों प्रकार की कंपनियाँ कुछ फायदे प्राप्त करेंगी। उन्होंने बताया, “जब कम-लोकप्रिय या अपेक्षाकृत छोटी कंपनियाँ कम अतिरिक्त व्यय के कारण कीमतें घटाने में सक्षम होंगी, तो अमेरिका में वांछित सौदेबाजी तक पहुँचने के लिए फ़ार्मा दिग्गजों की फार्मेसी लाभ प्रबंधकों (पीबीएम) पर पहले से ही बेहतर पकड़ होगी।”

एक वैश्विक शोध परामर्श फर्म टीएफपीएल के अध्यक्ष सुगत चटर्जी ने कहा, “यह भारतीय दवा निर्माताओं के लिए उनके अनुसंधान और विकास और मूल्य निर्धारण की शक्ति पर वित्तीय लाभ प्राप्त करने और वियाग्रा, जिसके उत्पादक वर्ग पेटेंट और नीति विनियमन के चलते व्यापक रूप से अग्रणी रहे हैं, के लिए अमेरिकी बाजार में आने का अवसर है।”

हालांकि, भारतीय फर्मों को बढ़ती एफडीए लाइसेंस फीस के चलते संघर्ष करना पड़ा है। एफडीए ने 45 लाख रुपये के पूर्व शुल्क के मुकाबले वित्तीय वर्ष 2018 के लिए 65 लाख रुपये से 1.1 करोड़ रुपये तक दवाइयों के प्रसंस्करण के लिए शुल्क बढ़ाया है।

श्रीवास्तव ने कहा, “इस तरह के निवेश के साथ मंजूरी प्राप्त करने के लिए हर कंपनी दीर्घकालिक परिणाम प्राप्त करने की आश्चर्यजनक रणनीति के साथ मैदान में उतर आएगी।”

लेकिन एक महत्वपूर्ण घटक द्वारा उन्हें सहायता दी जाएगी।अमेरिका द्वारा वियाग्रा को एक ओटीसी उत्पाद (चिकित्सक की सलाह के बिना ली जाने वाली औषधियाँ) के रूप में स्वीकार करने के बाद यह उम्मीद की जाती है कि अमेरिकी एफडीए भी ऐसा ही करेगी क्यूँकि इसमें अत्यधिक प्रेरित रोगी आबादी है।


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चटर्जी ने कहा, “इन सात कंपनियों में से कई ओटीसी बाजार में इसकी वास्तविक कीमत तय होने की प्रतीक्षा कर रही हैं। अब उन्हें मौका मिलने की संभावना है।”

पीबीएम रूट

आने वाले महीनों में, ऐसी उम्मीद की जा रही है कि भारतीय निर्माता अमेरिका में फार्मेसी लाभ प्रबंधकों (पीबीएम) के साथ जुड़ सकते हैं।

अमेरिकी फार्मासिस्ट एसोसिएशन के मुताबिक, पीबीएम “मुख्य रूप से फार्मूले को तैयार करना और रख -रखाव, फार्मेसियों के साथ अनुबंध करने, दवा निर्माताओं के साथ छूट और छूट पर बातचीत करने और चिकित्सकीय दवाओं के दावों को प्रसंस्करण और भुगतान करने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।”

2016 में, पीबीएम ने 26.6 करोड़ अमेरिकियों के लिए फार्मेसी लाभ प्रबंधित किए। इंडियन ड्रग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन, एक लॉबी जो भारत में 1,000 से अधिक फार्मा कंपनियों का प्रतिनिधित्व करती है, के कार्यकारी निदेशक अशोक मदन, ने कहा कि, “ये पीबीएम खुदरा फार्मेसियों के हिस्से के रूप में और बीमा कंपनियों के हिस्से के रूप में एकीकृत हेल्थकेयर सिस्टम के अंदर काम करते हैं। भारतीय फर्मों की सफलता इन फार्मेसी श्रृंखलाओं के साथ अपने रिश्ते और नेटवर्किंग पर निर्भर करेगी।”

हालांकि, ज्यादातर कंपनियां अपनी योजनाओं के बारे में चुप्पी साधे हुए हैं। डॉ. रेड्डी के लैबोरेट्रीज ने कहा कि हमारे प्रवक्ता यात्रा कर रहे हैं, कैडिला हेल्थकेयर, टोरेंट फार्मास्युटिकल्स, रुबिकॉन रिसर्च को भेजे गए ईमेल की अभी प्रतिक्रिया नहीं आई है।

नाम गोपनीय रखने की शर्त पर अजंता फार्मा के एक अधिकारी ने बताया, “2014 तक हमारे पास सिर्फ दो अमेरिकी अनुमोदन थे। 2016 में, हमारे पास नौ नई मंजूरियां थीं। हम अमेरिका में कारोबार का विस्तार करने के लिए अपने पूर्ववर्ती कदम उठा रहे हैं। जब भी कोई दवा पेटेंट खो देती है, तो यह एक बड़ा मौका होता है। हालांकि, हम अभी सिर्फ रणनीतियां बना रहे हैं।”

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