जब से नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली बीजेपी 2014 में केंद्र की सत्ता में आई है, तबसे कश्मीर में अधिक हिंसा, मौतें और अलगाव देखने को मिला है.
नई दिल्ली: पिछले महीने फिरदौसा दक्षिण कश्मीर के शादीमर्ग गांव में अपने घर पर थी. वह अपने तीसरे बच्चे के जन्म का इंतजार कर रही थी, जो लगभग तीन महीने बाद होने वाला था. अब फिरदौसा और उनका अजन्मा बच्चा इस दुनिया में नहीं है. उसको पास के कब्रिस्तान में दफनाया गया है. उनके परिवार में अब उनके पति और दो बच्चे रह गए हैं.
19 अक्टूबर को पुलवामा जिले में अपने घर के बाहर एक क्रॉस-फायर में फिरदौसा की मौत हो गई थी. वह घाटी में बढ़ती हिंसा का नया शिकार बनी.
संख्याओं से पता चलता है कि जब से नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली बीजेपी 2014 में केंद्र की सत्ता में आई, उसके बाद आम नागरिकों की मौत में 70 फीसदी की वृद्धि हुई है. हिंसा, हत्याओं और जनता के बीच अलगाव की भावना में तेजी से वृद्धि हुई है. मुख्यधारा की राजनीति के लिए अवसर भी कम हो गए हैं और सीमाओं पर टकराव एक नए मकाम को छू रहा है.
मौतों की संख्या चिंताजनक
हत्याओं की कुल संख्या 2012 में 117 थी. जो इस साल बढ़कर अब तक 304 हो गई है. इनमें नागरिक, सुरक्षा बल, पुलिसकर्मी और आतंकवादी शामिल हैं.
इन छह सालों में आम नागरिकों की मृत्यु में तीन गुना का इज़ाफ़ा हुआ है. सुरक्षाकर्मियों की मौतों में चार गुना का इज़ाफ़ा हुआ है. इन सुरक्षाकर्मियों में से पुलिसकर्मियों की मौत की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि हुई है, जो 2012 में चार थी और इस साल 43 तक पहुंच गयी है.
21 अक्टूबर को कुलगाम में ग्रेनेड फटने से सात नागरिकों की मौत हो गयी थी. ये घाटी में ग्रेनेड हमलों के बढ़ते प्रचलन का हिस्सा था. इस तरह के हमलों की संख्या 2012 में 27 थी, जो 2017 में बढ़कर 49 हो गई.
इन सब वजहों से कश्मीर के पर्यटन पर बुरा प्रभाव पड़ा है. कश्मीर आने वाले पर्यटकों की संख्या 2012 में 13.09 लाख थी. इस साल सितंबर तक यह संख्या सिर्फ 7 लाख तक ही पहुंच पायी. अब यह संख्या बढ़ने के लिए ज्यादा समय नहीं बचा है.
इस बीच में पाकिस्तान द्वारा सीजफायर उल्लंघन की घटनाएं पिछले छह वर्षों में करीब 15 गुना बढ़ी हैं. 2018 में 1591 घटनाएं (अब तक) 2017 में दर्ज कुल घटनाओं के मुकाबले लगभग दोगुनी हैं. 2017 में भी दर्ज सीजफायर उलंघन की घटनाएं 2016 का लगभग दोगुनी थीं.
इन उल्लंघनों के परिणामस्वरूप सुरक्षाकर्मियों के हताहत होने की संख्या बढ़ रही है. अंतर्राष्ट्रीय सीमा और एलओसी से घुसपैठ का प्रयास 2014 में 222 बार हुआ था, जो कि 2017 में 406 तक पहुंच गया है.
‘स्थिति वास्तव में हाथ से बाहर निकल गयी है’
2010 में कश्मीर पर वार्ताकार रहे दिलीप पडगांवकर के नेतृत्व वाले पैनल का हिस्सा रहे राधा कुमार ने दिप्रिंट को बताया कि स्थिति वास्तव में हाथ से बाहर निकल गयी है.
उन्होंने कहा, ‘आतंकवाद वापस आ गया है, जिससे गुस्सा और अलगाव बढ़ रहा है. आतंकवादियों का समर्थन जगजाहिर है. केवल अंतिम संस्कार में ही नहीं बल्कि लोग सुरक्षा बलों को भी रोकने का भरसक प्रयास कर रहे हैं.’
उन्होंने कहा, ‘यह आपको बिल्कुल मदद नहीं करेगा कि आपके पास वहां गवर्नर का शासन है. आपने विधानसभा को स्थगित कर दिया. आपको समस्या की कोई परख नहीं और आपने कोई शांति की पहल नहीं की है. सरकार ने वार्तालाप का कोई प्रयास नहीं किया है.’
राधा कुमार ने आगे कहा, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि कश्मीर हाथ से निकल गया है, लेकिन इसके कई कारण हैं. जिस समय हमें (2010 में हिंसक विरोध और दंगों के बाद) वार्ताकार नियुक्त किया गया था, तब हालात बहुत बुरे थे. लेकिन अब स्थिति बहुत ही ख़राब है.’
कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) शीश पॉल वेद ने अलगाव के बिंदु पर सहमति व्यक्त की.
वेद ने कहा, ‘सभी कश्मीरियों को राष्ट्रीय मीडिया राष्ट्रविरोधी के तौर पर प्रदर्शित करती है. यह घाटी के लोगों को अलग-थलग करता है. अपने राज्य से बाहर पढ़ने वाले कश्मीरियों पर हमले होते हैं जो कि अलगाव को बढ़ावा देते हैं. अगर मीडिया किसी समस्या को उठाता है और उसको अलग तरीके से दिखाता है तो ये युवाओं को अलग करता है.’
आतंकवाद का चरित्र
वेद ने कहा, 1990 के दशक के विपरीत आतंकवाद की लहर सोशल मीडिया द्वारा फैलाई जा रही है. सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो और पिक्चर जिसमें हिज़्बुल मुजाहिद्दीन कमांडर बुरहान वानी बन्दूक के साथ दिखाई देता है. 2016 में एक मुठभेड़ में वानी की मौत के बाद, शिक्षित युवाओं ने बिना औपचारिक प्रशिक्षण लिए ही बंदूकें उठाईं.
वेद ने दिप्रिंट को बताया कि ‘बुरहान वानी की मृत्यु के बाद, युवाओं को कट्टरपंथी बनाने के लिए सीमा पार से सोशल मीडिया का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया गया और अब यह बड़े स्तर पर हो रहा है.’
वेद के अनुसार, जब पीडीपी-भाजपा सरकार राज्य में शासन में थी, तब सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों की तरफ नरम रवैये पर काम करने की घोषणा की. करीब 70 युवकों को आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने से रोका गया और 20 ने आत्मसमर्पण कर दिया था.
हालांकि हिज़्बुल मुजाहिद्दीन कमांडर रियाज नायकू के पिता की रिहाई की तुरंत मांग के बाद वेद को हटाकर दिलबाग सिंह को जम्मू-कश्मीर डीजीपी के रूप में नियुक्त कर दिया गया था. आतंकवादियों ने पुलिसकर्मियों के परिजनों को अगवा कर लिया था.
जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक शीर्ष पुलिस अधिकारी ने कहा कि पिछले दो महीनों में आतंकवादियों की भर्ती की प्रक्रिया में काफी कमी आई है. ‘इस साल, स्थानीय आतंकवादियों की कुल संख्या अब तक 96 है. अधिकारी ने कहा कि मारे गए कमांडरों की संख्या भी काफ़ी ज्यादा है.’
चुनाव में कोई उत्साह नहीं
आखिरी बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव 2014 की सर्दियों में हुए थे. लोकसभा चुनाव के लगभग छह महीने बाद जब भाजपा केंद्र की सत्ता में आयी थी. उसी साल सितंबर में भारी बाढ़ ने घाटी को तबाह कर दिया था और फिर भी, 66 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया था.
अगर इसकी तुलना शहरी स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान पंजीकृत संख्याओं के साथ करें तो कश्मीर घाटी में चार चरणों में क्रमश: 8.3, 3.4, 3.4 9 और 4.2 प्रतिशत का मतदान देखने को मिला. राज्य में कुल मतदान केवल 35.1 प्रतिशत था. जिसमें जम्मू और लद्दाख क्षेत्र भी शामिल थे.
राज्य की सबसे पुरानी मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस ने प्रतिद्वंद्वी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार के दौरान लोगों के प्रति ‘असंवेदनशील’ होने के लिए जिम्मेदार ठहराया है. जिससे लोगों में अलगाव की स्थिति पैदा हुई है.
नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता तनवीर सादिक़ ने कहा कि महबूबा की सरकार नई दिल्ली यानि केंद्र सरकार पर ज्यादा निर्भर थी. उनकी सरकार केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही थी.
पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने पीडीपी और भाजपा के पुराने गठजोड़ को जिम्मेदार ठहराया और उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से राज्य की व्यवस्था को ख़राब करने के लिए सवाल किये जाने चाहिए.
अब्दुल्ला ने दिप्रिंट से एक साक्षात्कार में कहा कि इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए. आपने एक ऐसे राज्य की विरासत को चुना जहां चुनाव समय पर और लोगों की भागीदारी के साथ नियमित रूप से होते थे.’
संयोग से पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस दोनों ने ही शहरी निकाय चुनाव का बहिष्कार किया. महबूबा ने कहा कि इन चुनावों में भाग लेने वाले लोग ‘शरारती तत्व’ थे जो पैसे के लोभ में थे.
उनकी पूर्व सहयोगी भाजपा ने इन चुनावों में जीतने का दावा किया है. भाजपा ने पहली बार कश्मीर घाटी में निकाय चुनाव में 100 सीटें जीती थीं. हालांकि संख्याएं कुछ अलग कहानी कहती हैं. 100 में से 76 सीटों पर मुकाबला हुआ ही नहीं. जबकि दो सीटों पर उनकी पार्टी के उम्मीदवार पोलिंग बूथ से दूर थे.
इस संदर्भ में भाजपा ने सभी दलों पर उनके सत्ता में आने से पहले तुष्टीकरण की नीति अपना कर सत्ता में रहने को जिम्मेदार ठहराया है.
पूर्व उपमुख्यमंत्री और भाजपा नेता कविंदर गुप्ता ने कहा कि पूर्ववर्ती सरकारों और उनके तुष्टीकरण की नीति की वजह से आतंकवाद बढ़ा है. इन्हीं चींजों के कारण कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ कर बाहर जाना पड़ा.
शहरी स्थानीय चुनावों में कम मतदान के बारे में पूछे जाने पर गुप्ता ने दूसरे पक्ष पर जोर देते हुए कहा कि ‘पहली बार, चुनाव इतने शांतिपूर्वक आयोजित किए गए. हम उम्मीद कर रहे हैं कि नवंबर में होने वाले पंचायत चुनावों में ज्यादा से लोग भाग लेंगे.’
टूटे वादे
2014 में जब मोदी लहर पूरे देश में थी तब मुस्लिम बहुल कश्मीर भगवा ताकतों को लेकर चिंतित था. भाजपा ने हिंदू-बहुमत वाले जम्मू क्षेत्र में हिंदू बनाम-मुस्लिम की चाल चली और लोगों ने इनको वोट दिया.
दूसरी तरफ बाद में महबूबा ने भाजपा को कश्मीर घाटी की राजनीति से दूर रखने के लिए पीडीपी के लिए वोट मांगा. उन्होंने कई गलत तथ्यों का उपयोग कर उमर अब्दुल्ला की मौजूदा सरकार पर युवा लड़कों की हत्या और 2010 में अशांति के दौरान पैलेट गन का इस्तेमाल का आरोप लगाया था.
इस समय किसी ने भी अनुमान नहीं लगाया था कि पीडीपी भाजपा को जम्मू-कश्मीर में पहली बार सत्ता का स्वाद चखने देगी. महबूबा ने कहा उनके स्वर्गीय पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 2015 में बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया था. वह कहती हैं, ‘मुफ्ती साहेब ने बीजेपी के साथ समझौता करने और बातचीत के माहौल को बनाने के लिए और सुलह करने का प्रयास किया.’ हालांकि, उन्होंने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जादू फिर से नहीं चलाया जा सका क्योंकि ‘मोदी वाजपेयी नहीं हैं’.
दोनों पार्टियों के ‘गठबंधन का एजेंडा’ जो कि न्यूनतम कार्यक्रम था जिसके तहत दोनों पार्टियों को मिलकर काम करना था. यह एक ख़याली पुलाव निकला.
हालांकि भाजपा नेता गुप्ता ने गठबंधन तोड़ने के लिए पीडीपी को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा कि हमने जनादेश का आदर करते हुए पीडीपी के साथ गठबंधन किया था. लेकिन जब वे लोग सरकार अपने जिद्द से चलाने लगे तब हम लोगों ने समर्थन वापस लेने का निर्णय लिया.
अगर वित्तीय मोर्चे की बात करें तो नवंबर 2015 में श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर क्रिकेट स्टेडियम, कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार राज्य के लिए 80,000 करोड़ रुपये के बड़े वित्तीय पैकेज की घोषणा की. हालांकि यह पैकेज विशिष्ट परियोजनाओं के लिए था.
जम्मू-कश्मीर के नए राज्यपाल सत्यपाल मलिक कहते हैं कि कई अन्य परियोजनाएं पैसे की कमी के कारण फंस गई हैं. सरकार को बैंक से 8,000 करोड़ रुपये उधार लेना पड़ा है.
मलिक ने कहा, ‘हमने पैसे की कमी के कारण फंसी परियोजनाओं की एक सूची बनाई है. हमने एक विकास निगम बनाया है और बैंकों से 8,000 करोड़ रुपये जुटाए हैं. छह महीने में आप एक अलग कश्मीर देखेंगे.’
‘अधिक’ सुरक्षा बल
बहुत से राजनेता और राजनीतिक पंडित कश्मीर समस्या के प्रति केंद्र सरकार के कड़े रुख की ओर इशारा करते हैं. लेकिन भाजपा के नेता गुप्ता ने इन सब दावों को ख़ारिज कर दिया.
उन्होंने ने कहा कि किसी भी प्रकार की मस्कुलर नीति नहीं है. हमारे सुरक्षा बल पूरा संयम बरतते हैं. फिर भी नागरिक सुरक्षाकर्मियों द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग का आरोप लगाते रहते हैं.
पैलेट गन के उपयोग ने कथित तौर पर अंधे युवाओं की एक पीढ़ी को जन्म दिया है. राज्य मानवाधिकार आयोग के आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में जम्मू-कश्मीर में 2,000 से अधिक पैलेट गन पीड़ित हैं.
ज्यादातर आवासीय क्षेत्रों में घाटी में कॉर्डन और सर्च ऑपरेशंस (सीएएसओ) हैं, जिन्हें कथित रूप से मुठभेड़ों और हत्याओं के बाद पीछा करने के लिए लगाया जाता है.
सेना इस तरह के आरोपों से इनकार करती है. डिफेंस के प्रवक्ता राजेश कालिया कहते हैं कि उनकी नीति के अनुसार सेना स्थानीय आतंकवादियों को आत्मसमर्पण करने का मौका देती है. हालांकि अगर आतंकवादी समर्पण करने से इनकार करता है तो मुठभेड़ होती है, जो कि संपत्ति को नुकसान पहुंचाती है.
इंडियास्पेंड द्वारा प्राप्त आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अकेले दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में, 2015 से मार्च 2018 के बीच गोलीबारी में कम से कम 105 घरों की क्षति हुई.
हुर्रियत और पाकिस्तान
पिछले साल अक्टूबर में केंद्र सरकार ने इंटेलीजेंस ब्यूरो के पूर्व डायरेक्टर दिनेश्वर शर्मा को जम्मू-कश्मीर में शांति प्रक्रिया के लिए सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर नियुक्त किया था. उन्होंने कहा कि उन्हें हुर्रियत कॉन्फ्रेंस समेत कश्मीर में किसी से भी बात करने का शासनदेश है.
हालांकि शर्मा ने अब तक केवल एक हुर्रियत नेता, प्रो. अब्दुल गनी भट से मुलाकात की है. यद्यपि उन्होंने राज्य के सभी तीन क्षेत्रों का दौरा किया है और युवाओं समेत विभिन्न सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों से मुलाकात की है.
हुर्रियत की पाकिस्तान सहित सभी हितधारकों को बातचीत में शामिल करने, पारदर्शिता बरतने और केंद्र का एजेंडा स्पष्ट करने की मांग शांति प्रक्रिया में बाधा डाल रही है.
बीजेपी के गुप्ता ने कहा कि हुर्रियत या पाकिस्तान से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है. ‘हमें पाकिस्तान से क्यों और किस बारे में बात करनी चाहिए? कश्मीर हमारा है और जिस हिस्से पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया है, वह भी हमारा है.’
इस समय गवर्नर मलिक ने कहा कि हुर्रियत बातचीत में महत्वपूर्ण पक्ष है. लेकिन पाकिस्तान को चर्चा में लाने के जोर को त्यागना पड़ेगा.
उन्होंने कहा, ‘मैं हुर्रियत के नेताओं का सम्मान करता हूं और वे बातचीत का एक महत्वपूर्ण पक्ष हैं. विवाद यह है कि वे ‘पाकिस्तान से बात करने को’ कहते हैं, जो कि नहीं होना चाहिए. पाकिस्तान इस मामले में कोई हितधारक नहीं है. वह उपद्रवी तत्व है. हमें लगता है कि हुर्रियत के साथ बातचीत अलग है जबकि हम पाकिस्तान से अलग से निपटेंगे.’
उपाय क्या है?
यह पूछे जाने पर कि इस खराब स्थिति से निपटने का समाधान क्या है, राधा कुमार ने कहा कि वार्ता और सुलह के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है.
वेद ने जोर देते हुए कहा कि स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए ‘पूरी सरकार’ का दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है.
वेद ने कहा, ‘इसे कई मोर्चों पर लड़ा जाना है. पूरी तरह से सरकार का दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है. केवल सुरक्षा बलों के हाथ में छोड़ने से कुछ नहीं होगा. राज्य और केंद्र समेत हर किसी को भूमिका निभानी होगी.’
नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुखिया उमर अब्दुल्ला ने सत्ता में बैठे लोगों पर समाधान खोजने के लिए जोर दिया. जैसे राज्य के राज्यपाल, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, प्रधानमंत्री और गृह मंत्री.
उन्होंने कहा, ‘उन्हें पहले स्वीकार करना चाहिए कि कुछ तो गड़बड़ है. आपको पहले समस्या को समझने की आवश्यकता है और फिर उसका इलाज करें. इस मामले में वे समस्या के अस्तित्व को नकार रहे हैं.’
दूसरी तरफ पीडीपी की महबूबा मुफ़्ती ने पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते की वकालत की.
उन्होंने कहा, ‘भारत को पाकिस्तान को देश के रूप में स्वीकार करना होगा जैसा कि वाजपेयी ने किया था. हमें विरोधाभासों के बजाय समानताओं पर काम करने की ज़रूरत है और कम से कम दोस्त नहीं तो सामान्य पड़ोसी जैसा संबंध बनाने की जरूरत है जो कि घाटी में वातावरण को बदल देगा.’ उनका मानना है कि जमीन पर लोगों में विश्वास जगाना होगा. लोगों का उत्पीड़न और हिंसा बंद करनी होगी.
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